गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

पंच कोशी साधना का ज्ञातव्य

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पिछले पृष्ठों पर पंच कोशों की साधना के अन्तर्गत योग विद्या की वे साधनाएं बताई गई हैं जो सर्व साधारण के लिए सरल एवं उपयोगी हैं। यह प्रकट है कि आध्यात्मिक महातत्व गायत्री ही है। जितना भी ज्ञान विज्ञान और योग है वह सब गायत्री से आविर्भूत होता है। इसलिए ऐसी कोई साधना हो नहीं सकती जो गायत्री की महापरिधि से बाहर हो। सम्पूर्ण योग शास्त्र निश्चित रूप से गायत्री के अन्तर्गत है।

योग साधनाएं अनेक हैं। यह सब एक ही महातत्व की प्राप्ति के लिए हैं। गायत्री का नाम ही ‘मुक्ति’ है और उसी को ‘सिद्धि’ कहते हैं। जैसे किसी नगर में पहुंचने से अनेक दिशाओं से अनेक रास्ते होते हैं उसी प्रकार प्रभु प्राप्ति के लिए अनेक योग हैं। प्रत्येक मार्ग में अलग अलग प्रकार के दृश्य, पदार्थ और मनुष्य मिलते हैं, उनको ध्यान में रखते हुए लोग निर्दिष्ट स्थान पर पहुंचने का मार्ग निर्धारित करते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक योग साधन की यह विशेषता है कि उसके मार्ग में अपने अपने ढंग के अनोखे अनुभव होते हैं, भिन्न भिन्न सिद्धियां शक्तियां एवं अनुभूतियां प्राप्त होती हैं। अन्त में पहुंचते सब एक ही स्थान पर हैं।

योग साधनाएं अनेक प्रकार की इसलिए हैं कि मनोभूमि स्थिति शक्ति, सुविधा, रुचि, देश काल पात्र के भेद से भिन्न भिन्न परिस्थिति के लोग उन्हें अपना सकें। युग परिवर्तन के अनुसार तत्वों की स्थिति में अन्तर आता रहता है। पूर्वकाल के जल, वायु, में जो गुण था वह अब नहीं है। जो अब है वह आगे न रहेगा। सृष्टि धीरे धीरे बुड्ढी होती जाती है। बालक में जितनी स्फूर्ति, कोमलता, चंचलता, उमंग और सुन्दरता होती है वह बुड्ढे में नहीं रहती। जवान आदमी जितना बोझ उठा सकता है उतना वृद्ध पुरुष के लिए सम्भव नहीं।

सतयुग सृष्टि का बालकपन है। त्रेता जवानी,  द्वापर अधेड़ अवस्था है तो कलियुग बुढ़ापा। पंच तत्वों की यही स्थिति होती है जब बुढ़ापा अधिक आ आता है तो सृष्टि मर जाती है, प्रलय हो जाती है। फिर उसका नया जन्म होता है। सतयुग के बालक पंच तत्वों में प्राणियों के शरीर भी वैसे ही थे, खाद्य पदार्थ तथा जलवायु में भी वैसी ही विशेषता थी। मानसिक चेतना, इन्द्रिय लालसा, आहार विहार, आयु एवं शरीर का ढांचा भी युग प्रभाव से बहुत कुछ सम्बन्धित रहता है।

भूगर्भ विज्ञान के अन्वेषकों ने कुछ हजार वर्ष पुराने ऐसे जीव जन्तुओं के प्रमाण पाये हैं जो वर्तमान जीवों की अपेक्षा कहीं भिन्न आकृति के और कहीं अधिक बड़े थे। ऐसे मनुष्यों के अस्थि पिंजर मिले हैं जो दस फीट लम्बे थे। महागज, महामकर और महाशूकर अपने वर्तमान वंशजों की अपेक्षा पांच गुने से लेकर सैंतीस गुने तक बड़े थे ऐसे प्रमाण मिल चुके हैं। जिस प्रकार सूर्य लोक में अग्नि तत्व प्रधान शरीर वाले प्राणी रहते हैं उसी प्रकार सतयुग में आकाश तत्व की प्रधानता इस पृथ्वी पर होने से उस समय उसी तत्व की प्रधानता वाले प्राणी इस पृथ्वी पर थे। उनके लिए आकाश में बिना पंखों के भी उड़ना सरल था। हनुमानजी ने बिना पंखों के छलांग मारकर समुद्र को पार किया था। त्रेता में ऐसा करना कुछ थोड़े लोगों के लिए ही संभव रह गया था इसलिए हनुमानजी को विशेष महत्व मिला। सतयुग में यह बिलकुल साधारण बात थी।

पूर्व युगों की स्थिति का कुछ परिचय यहां हमें इसलिए देना पड़ा है कि पाठक यह जान जायं कि जो योग साधनाएं सतयुग के मनुष्यों के लिए अत्यंत सरल और स्वाभाविक थी वह अब नहीं हो सकती, जो सिद्धियां पूर्वकाल में थोड़ी सी साधना से मिल जाती थीं वे अब लगभग असंभव हैं। पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिए कितने लम्बे समय तक कितना कष्ट साध्य तप किया था। वैसा आज की स्थिति में किसी के लिए सम्भव नहीं है। संभव इसलिए भी नहीं है कि मनुष्य की आयु सौ वर्ष रह गई है और पृथ्वी तत्व प्रधान हो जाने से शरीर में जड़ता का अंश अधिक आ गया है। किसी समय में शरीर में पाप के होने न होने की परीक्षा अग्नि में तपा कर वैसे ही करली जाती थी जैसे कि आजकल सोने को तपा कर करली जाती है। सीताजी ने हंसते हंसते उस प्रकार की अग्नि परीक्षा दी थी और उनके शरीर को जरा भी कष्ट न हुआ था। पर आज तो परम साध्वी का शरीर भी अग्नि के जले बिना नहीं रह सकता। कलियुग में सती प्रथा का इसी लिए निषेध है कि पति की चिता पर जलने से आज कोई स्त्री कष्ट पीड़ित हुए बिना नहीं रह सकती। इसलिए पूर्वकाल की सतियों की भांति वह पति को शान्ति देना तो दूर, उलटे अपने आर्तनाद से पति की आत्मा को अत्यन्त दुख और नारकीय व्यथा में डुबा देती है।

कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि युग की स्थिति के अनुसार योग साधना का मार्ग और परिणाम बदलता है। इसीलिए साधना क्रमों की व्यवस्था और विधि विधान में अन्तर पड़ता जाता है। इस युग के तत्ववेत्ता अपनी सूक्ष्म दृष्टि से अन्वेषण करके यह निश्चित करते हैं कि आज की स्थिति में कौन सा साधन आवश्यक है और किस प्रकृति का किस मनोभूमि का साधक किस साधना को ठीक प्रकार कर सकेगा। यह निर्णय ठीक न हो तो योग साधना से कई बार लाभ के बदले उलटी हानि होती देखी जाती है।

ऐसी अनेक दुर्घटनाएं हमने अपनी आंखों देखी हैं। प्राण को ब्रह्माण्ड में चढ़ाकर वापिस लौटाने की क्रिया से अपरिचित होने के कारण एक साधक की आधे घंटे में मृत्यु हो गई थी। एक सज्जन कुण्डलिनी जागरण के सिलसिले में पक्षाघात के चंगुल में फंस गये, कुण्डलिनी का कूम मेरु जरा सा विचलित हुआ ही था कि वे पिंगला में ‘कृकल’ प्राण का प्रवेश करने लगे, फल स्वरूप वायु कुपित हो गई और लकवा से उनके हाथ पांव जकड़ गये। गायत्री तंत्र की साधना करते हुए प्राण कोष की हिंस्रा ग्रन्थि को एक सज्जन जगा रहे थे। किसी दूसरे पर घात चलाने का उनका इरादा था। पर हिंस्रा जाग्रत न हो सकी भूल से उसके वाम पार्श्व में रहने वाला तिर्यग अणु फट गया, बस वे मुह और नाक से खून डालने लगे। तीन सेर खून निकल जाने से उनकी मृत्यु 40 मिनट के भीतर हो गई।

हठयोग की हम अधिक चर्चा सुनते हैं। क्योंकि वह निकट भूत में कलियुग के प्रारम्भ में काफी क्रियाशील था। नागार्जुन हठयोग के पूर्ण सिद्ध चुके हैं। नाथ सम्प्रदाय के आचार्य गोरखनाथ और मछीन्द्रनाथ पूर्ण हठयोगी थे। बौद्ध काल में महायान, वज्रयान आदि का काफी प्रचलन था। पर अब हठयोग का समय भी बीत चला था। स्वस्थ हठ योगी जहां तहां ही एकाध दीख पड़ता है। षट् कर्म-नेति धोति, वस्ति, न्योलि, वज्रोली, कपाल भाति, करते हुए कितने ही साधक हमने उदर रोगों से ग्रस्त देखे हैं। नासिका में होकर सूत की डोरी चढ़ाते हुए एक सज्जन अपने नेत्र खो बैठे। मुंह से कपड़े की पट्टी पेट में पहुंचाने की क्रिया आरम्भ करते हुये एक सज्जन संग्रहणी में ग्रस्त हुए और फिर उस रोग से उन्हें छुटकारा न मिला, वज्रोली क्रिया करने वाले अक्सर बहुमूत्र और गुर्दे की सूजन से ग्रसित हो जाते हैं।

कारण यह है कि साधक की स्थिति का भली प्रकार निरीक्षण किये बिना यदि उसकी प्रकृति से विपरीत साधन बता दिया जाय तो इससे उसका अहित ही हो सकता है। कई साधक ऐसे दुस्साहसी, अहंकारी और जल्दबाज होते हैं कि बिना उपयुक्त पथ प्रदर्शक की सलाह के लिए अपनी मन मर्जी से, कहीं पए़ सुनकर मनमानी साधना करने लगते हैं। मनमाने लाभों की कल्पना कर लेते हैं। मनमानी विधि व्यवस्था रच लेते हैं, ऐसे लोग एक खतरनाक खेल खेलते हैं। इससे उन्हें लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है इन्हीं कारणों से योग मार्ग में गुरु का होना आवश्यक माना गया है।

इस पुस्तक में पंच कोशों की साधना की चर्चा करते हुए गायत्री योग का उल्लेख किया है। उसमें कितनी ही योग क्रियाओं की बिलकुल चर्चा नहीं की गई है यद्यपि वे भी इन्हीं पांचों के अन्तर्गत हैं। कारण यह है कि जो साधनाएं द्वापर, त्रेता, सतयुग के पूर्व युगों के उपयुक्त थीं, जिन्हें आकाश, अग्नि, वायु एवं जल प्रधान शरीरों वाले साधक ही आसानी से कर सकते थे उनकी चर्चा इस सर्व साधारण के लिए लिखी गई पुस्तकों में अनावश्यक ही नहीं अनुचित भी होती क्योंकि सम्भव है कोई व्यक्ति उस आधार पर साधन करने लगते तो उनसे उन्हें लाभ तो कुछ न होगा उलटे समय का अपव्यय, निराशा, अश्रद्धा, अरुचि एवं कोई हानि हो जाने का भय और बना रहता। इसलिए उन्हीं साधनाओं की चर्चा की गई है जो आज की स्थिति में भी उपयुक्त हो सकती है।

जिन साधनाओं का वर्णन है उनके सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि यह संक्षिप्त रूप में लिखी गई हैं और इनका पूरा विधि विधान, समस्त नियमोपनियम नहीं बताये गये हैं। इसका कारण यह है कि एक योग की सबके लिए एक विधि व्यवस्था नहीं हो सकती। नाद योग को सब लोग एक विधि से नहीं साध सकते। उष्ण प्रकृति वालों को-अस्थिर, चंचल, अनेक ध्वनियों का मिला हुआ नाद सुनाई देता है ऐसे साधक को वे उपाय बताये जाते हैं जिससे उसकी उष्णता शान्त हो और दिव्य ध्वनियां ठीक प्रकार सुनाई देने लगें। इसके विपरीत जिनकी प्रकृति शीत प्रधान है उनको अनाहत नाद बड़े मंद रुक रुक कर देर में सुनाई पड़ता हैं, उसकी दिव्य कर्णेन्द्रियों को उष्णता प्रधान साधनों से उत्तेजित करके इस योग्य बनाना पड़ता है जिससे नाद भली प्रकार खुल जाय। जैसे शीत और उष्ण प्रकृति के दो भेद ऊपर बताए हैं वैसे और भी अनेक भेद उपभेद हैं। जिनके कारण एक ही साधना के लिए अनेकों प्रकार के नियम उपनियम बनाने पड़ते हैं। ऐसी दशा में यह संभव नहीं कि समस्त प्रकार की प्रकृति वाले मनुष्यों की परिस्थिति भेद के कारण किये जाने वाले समस्त विधानों का एक पुस्तक में उल्लेख हो सके।

चिकित्सा शास्त्र में निदान, निघटु, तथा औषधि-निर्माण का विस्तृत उल्लेख मिलता है। परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ अब तक नहीं छपा जिसमें समस्त रोगों, समस्त प्रकार के रोगियों की, समस्त परिस्थितियों के अनुसार, समस्त चिकित्सा विधियों का वर्णन हो। ऐसा लिखा जाना सम्भव भी नहीं है। यह तो तत्कालीन स्थिति पर निर्भर रहता है। यही बात योग साधना के बारे में भी लागू होती है। यदि किसी एक छोटी साधना के सम्बन्ध में भी साधक भेद से उसके अन्तरों को लिखा जाय तो एक भारी ग्रन्थ बन सकता है फिर भी वह ग्रन्थ अपूर्ण रहेगा। ऐसी स्थिति में गायत्री की पंच मुखी साधना के अन्तर्गत जो साधनाएं इस पुस्तक में लिखी गई हैं वे मोटे तौर से भली प्रकार समझाकर ही लिखी गई हैं फिर भी उनमें अपूर्णता का दोष तो रहेगा ही।

यह आवश्यक नहीं कि पंच कोशों के अन्तर्गत आने वाली सभी साधनाएं करने पर जीवनोद्देश्य प्राप्त हो। जिस साधक की जिस कोश में वर्तमान स्थिति हे वह उसी कोश की सीमा में बताई गई साधनाएं करके अपने बन्धन खोल सकता है। इस पुस्तक में चौबीस से अधिक साधनाएं बताई गई हैं। इनके अतिरिक्त अनेकों और साधना है, छोटे से जीवन में उन सबका साधन मनुष्य नहीं कर सकता, करना आवश्यक भी नहीं है।

आयुर्वेद में हजारों औषधियों का वर्णन है। वे सभी निरोगता दूर करके स्वस्थ बनाने के एक ही उद्देश्य के लिए बताई गई है, फिर भी कोई ऐसा नहीं करता कि जितनी भी औषधियों का वर्णन है उन सब का सेवन करे। बुद्धिमान लोग देखते हैं कि रोगी की क्या बीमारी है, उसकी आयु स्थिति एवं प्रकृति क्या है, तब यह निर्णय किया जाता है कि कौन औषधि किस अनुपात से दी जाय। कई बार थोड़ी थोड़ी करके कई औषधियों को मिश्रण करके देना होता है। साधना के सम्बन्ध में भी यही बात है। अपनी मनोभूमि के अनुसार साधना का चुनाव होना बड़ी आवश्यक है। जो लोग सबको एक ही लकड़ी से हांकते हैं, सब धान बाईस पसेरी तोलते हैं वे भारी भूल करते हैं।

रोगी अपने आप अपने लिए औषधि का निर्णय नहीं कर सकता। कोई वैद्य या डॉक्टर बीमार पड़ता है तो वह भी किसी कुशल चिकित्सक से ही अपना इलाज कराता है कारण यह कि अपने आपको समझना सब के लिए बड़ा कठिन है। अक्सर लोग दूसरों की बुराई किया करते हैं पर अपनी गलतियां उनको नहीं सूझती। दूसरों की आंख हमें दिखाई पड़ती है पर अपनी आंख को आप नहीं देख सकते। अपनी आंख की बात जाननी हो तो किसी दूसरे से पूछना पड़ेगा या दर्पण की मदद लेनी पड़ेगी। यही बात अपनी मनोभूमि को परखने और उसके उपयुक्त उपचार ढूंढ़ने के बारे में है। इसमें किसी दूसरे अनुभवी मनुष्य की सहायता आवश्यक है। इस आवश्यक सहायता का सुव्यवस्था का नाम ही ‘‘गुरु का वरण’’ है। अच्छा पथ प्रदर्शक मिल जाना आधी सफलता मिल जाने के बराबर है।

इन साधनाओं का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है। स्त्री, पुरुष, बाल वृद्ध की स्थिति भेद से साधना विधियों में अन्तर होता है परन्तु ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है कि गायत्री साधना से अमुक वर्ग को वंचित रखा जाय। माता के सभी पुत्र हैं। उसे अपने सभी बालकों पर समान ममता है सभी का वह भरपूर दुलार करती है और सभी की अपना पय पान कराना चाहती है। कोई माता ऐसा नहीं करती कि अपने पुत्र को तो पय पान कराये और कन्या जन्मे तो उसे दुत्कार दे। ऐसा दुर्व्यवहार न मनुष्यों में होता है और न पक्षियों में, फिर परम दिव्य सत्ता ऐसा पक्षपात, भेदभाव करेगी इसकी कल्पना भी नहीं की जानी चाहिए पूर्व काल में अनेक ब्रह्मवादिनी, परम योगिनी महिलाएं हुई हैं। वे वेदोक्त कार्यों में सदैव पुुुरुषों का वामांग बनकर समान रूप से भाग लेती रहती हैं। माता के सभी पुत्र बिना किसी भेद भाव से उसकी उपासना कर सकते हैं और प्रसन्नता पूर्वक उसका स्नेह एवं आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।

आधुनिक परिस्थितियों में जो साधनाएं सध सकें उन्हें ही अपनाना उचित है। अब पूर्व काल के सतयुग आदि युगों की सी स्थिति नहीं है इसलिए वैसे योग साधन भी नहीं हो सकते और उन साधनाओं के फलस्वरूप वैसी सिद्धियां भी नहीं मिल सकतीं जैसी कि उन युगों में मिलती थीं। अणिमा, लघिमा, महिमा आदि जिन सिद्धियों का योग ग्रन्थों में वर्णन है वे पूर्व युगों की ही हैं। शरीरों का अत्यन्त छोटा कर लेना, अत्यन्त बड़ा बना लेना, अदृश्य हो जाना शरीर बदल लेना, आकाश में उड़ना, पानी पर चलना जैसी शरीर सम्बन्धी सिद्धियां आकाश तत्व प्रधान शरीर और युग में होती थी।

त्रेता में बिना यंत्रों के आत्मिक शक्ति से वे सब काम होते थे जो आज वैज्ञानिक यंत्रों द्वारा होते हैं। विमान, रेडियो, विद्युत, दूर दर्शन, दूर श्रवण अत्यंत भारी चीजों का उठाना जैसे कामों के लिए आज तो वैज्ञानिक यंत्रों की आवश्यकता होती है पर त्रेता में यह सब कार्य मंत्र बल से, प्राण शक्ति से, हो जाते थे। रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, हनुमान नल नील आदि के चरित्र पढ़ने से पता चलता है कि वे प्रकृति की उन विज्ञान भूत सूक्ष्म शक्तियों से मन माना काम लेते थे जिनका आज बहुमूल्य यंत्रों द्वारा भी बहुत थोड़ा उपयोग संभव हो सकता है।

महाभारत में दिव्य अस्त्र शस्त्रों का वर्णन मिलता है। शब्दबेधी बाण, अग्नि अस्त्र, वरुण अस्त्र, वायु अस्त्र, सम्मोहन अस्त्र, चक्र सुदर्शन आदि का प्रयोग उस महायुद्ध में हुआ था। उस काल में मनुष्यों और पशु पक्षियों में विचारों का आदान प्रकार सम्भव रहा। पशु पक्षी और मनुष्य की वाणी में, उच्चारण में अन्तर था पर दोनों के शरीर में अग्नि तत्व तथा जल तत्व की सूक्ष्मता पर्याप्त मात्रा में रहने से एक दूसरे से अपने विचारों से भली भांति आदान प्रदान कर लेते थे। त्रेता तथा द्वापर की अनेक ऐसी कथाएं उपलब्ध है जिनमें मनुष्यों तथा पशु पक्षियों का संभाषण का विस्तृत उल्लेख है।

इस युग में प्रकृति का अन्तराल पहले की भांति सूक्ष्म नहीं रहा, सृष्टि का बालक पन समाप्त हो गया और वृद्धावस्था आ रही है। इन दिनों जल तत्व और पृथ्वी तत्व की मिश्रित सधि चल रही है। जल तत्व का गुण मन है। ऊंचे उसे हुए अध्यात्मिक महापुरुषों का आज मनोबल विकसित पाया जाता है, उसमें विचार शक्ति, इच्छा शक्ति, प्रेरणा शक्ति अब भी पर्याप्त है इस मनोबल द्वारा वे अपना तथा दूसरों का बहुत कुछ हित साधन कर सकते हैं। इस युग में बुद्ध ईसा, मुहम्मद गांधी कार्ल मार्क्स, लेनिन आदि महा पुरुषों ने अपनी प्रचंड प्रेरणा शक्ति से संसार को बहुत हद तक प्रभावित किया है।

मैस्मरेजम मनोबल का ही एक खेल है। दूसरों को अपने विचार देना, उनके विचार जानना या किसी के विचार परिवर्तन करना यह मनोबल की सिद्धियां हैं। और भी कितनी ही छोटी मोटी सिद्धियां इन दिनों हो सकती हैं जिनका इस पुस्तक में यंत्र तंत्र वर्णन किया है। कोई सिद्ध पुरुष कभी कभी ऐसे भी मिल जाते हैं जिन्हें पूर्व युगों की भांति सिद्धियां प्राप्त होती हैं पर अब उनकी संख्या नहीं के बराबर है। जल तत्व घट रहा है इसलिए अध्यात्मिक पुरुष प्रयत्न करके मनोबल ही सम्पादित कर पाते हैं। धीरे धीरे यह भी कम होता जायगा और जब पृथ्वी तत्व की जड़ता व्यापक हो जायगी तो केवल शरीर बल ही लोगों की विशेषता रह जायगी। आगे चलकर जो शारीरिक दृष्टि से शक्तिशाली होगी उसे ही तत्कालीन सिद्ध पुरुष माना जायगा।

कई व्यक्ति योग साधना द्वारा ऐसे चमत्कार प्राप्त करने की फिराक में रहते हैं कि वे लोगों को आश्चर्य में डाल कर उन पर अपनी महत्ता की छाप जमा सकें। इसी उधेड़ बुन में वे इधर उधर फिरते हैं और धूर्तों के चंगुल में पड़कर अपना बहुत-सा समय और धन बर्बाद करते हैं। हमने स्वयं चमत्कारी सिद्धों की खोज में अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग लगाया है। एक दो अज्ञात रहने वाले महापुरुषों के अतिरिक्त हमें सभी चमत्कारी लोगों में धूर्तता मिली जिसका वर्णन हम अपनी ‘‘योग के नाम पर मायाचार’’ पुस्तक में विस्तार पूर्वक कर चुके हैं।

अपने पाठकों को हमारी सलाह है कि वे चमत्कारी बनने की बालक्रीड़ा में न उलझें क्योंकि पहले तो वर्तमान युग ही ऐसी सिद्धियों के अनुकूल नहीं हैं फिर कदाचित बहुत परिश्रम से कुछ मिले भी तो बहुमूल्य परिश्रम की तुलना में वह अत्यन्त तुच्छ होगा। बाजीगर कैसे कैसे खेल दिखाते हैं, सरकस वाले लोगों को हैरत में डाल देते हैं, पर इससे वे क्षणिक कौतूहल और मनोरंजन के अतिरिक्त और क्या कर पाते हैं। यह सब बच्चों की सी बात हैं। इस ओर किसी बुद्धिमान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती।

गायत्री की पंच मुखी योग साधना का वर्णन इस पुस्तक में किया गया है। इन साधनाओं से साधक की अन्तःचेतनाओं का परिष्कार होता है। उस आत्म विकास के कारण सर्वतोमुखी स्वस्थता प्राप्त होती है। मन और शरीर के विकार दूर होते हैं। इच्छा, रुचि, भावना, आकांक्षा, बुद्धि, विवेक, गुण, स्वभाव, विचार धारा, कार्य प्रणाली आदि में ऐसा अद्भुत सतोगुणी परिवर्तन होता है जिसके कारण जीवन की सभी दिखाएं आनन्द से परिपूर्ण हो जाती हैं। उसे स्वास्थ धन, विद्या, चतुरता एवं सहयोग की कमी नहीं रहती। इन वस्तुओं को उचित मात्रा में उपलब्ध करके वह प्रतिष्ठा, कीर्ति, प्रीति तथा शान्ति के साथ जीवन बिताता है। इसके अतिरिक्त आन्तरिक जीवन में उसे आत्म ज्ञान, आत्म दर्शन, आत्म अनुभव, आत्म लाभ, आत्म कल्याण की अमूल्य सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इनकी तुलना में समस्त चमत्कार, कौतूहल, आश्चर्यजनक कृत्य मिलकर तराजू के पासंग के बराबर भी महत्व नहीं रखते। गायत्री के उपासक पंच मुखी माता की उपासना श्रद्धा पूर्वक करें तो उन्हें आशा जनक लाभ होते हैं। चमत्कारी बाबा वे भले ही न कहलावें पर गृहस्थ रह कर भी वे अपने आप में ऐसा परिवर्तन पा सकते हैं जो अनेक चमत्कारों की तुलना में उनके लिए अधिक मंगलमय होंगे।

‘‘सद्बुद्धि’’ मानव जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। जिसके पास यह सम्पदा होगी उसे कभी किसी बात की कमी न रहेगी। वस्तुओं का अभाव तथा परिस्थितियों की कठिनाई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, जिसके पास कि सद्बुद्धि है। गायत्री सद्बुद्धि का महामन्त्र है। इस मंत्र द्वारा साधक को उस दिव्य शक्ति की प्राप्ति होती है, जो संसार के समस्त सौभाग्यों की जननी है।





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