गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

कला साधना

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‘कला’ का अर्थ है-किरण। प्रकाश, यों तो अत्यन्त सूक्ष्म है, पर उस सूक्ष्मता का ऐसा समूह जो हमें एक निश्चित प्रकार का अनुभव करावे ‘कला’ कहलाता है। सूर्य से निकल कर अत्यन्त सूक्ष्म प्रकाश तरंगें भूतल पर आती हैं उनका एक समूह ही इस योग्य बन पाता है कि नेत्रों से या यन्त्रों से उसका अनुभव किया जा सके। सूर्य किरणों के सात रंग प्रसिद्ध है। परमाणुओं के अन्तर्गत जो ‘प्रभाणु’ होते हैं उनकी विद्युत तरंगें जब हमारे नेत्रों से टकराती हैं तभी किसी रंग रूप का ज्ञान हमें होता है। रूप को प्रकाशवान् बनाकर प्रकट करने का काम कला द्वारा ही होता है।

कलाएं दो प्रकार की होती हैं 1-आप्ति 2-व्याप्ति। आप्ति किरणें वे हैं जो प्रकृति के अणुओं से प्रस्फुटित होती हैं। व्याप्ति वे हैं जो पुरुष के अन्तराल से आविर्भूत होती हैं इन्हें ‘‘तेजस’’ भी कहते हैं। वस्तुएं पंच तत्वों से बनी हुई होती हैं, इसलिए प्रभाणुओं से निकलने वाली किरणें अपने प्रधानतत्व की विशेषता भी साथ लिए होती है। यह विशेषता रंग द्वारा पहचानी जाती है। किसी वस्तु का प्राकृतिक रंग देखकर यह बताया जा सकता है कि इसमें पंच तत्वों में से कौनसा तत्व, किस मात्रा में विद्यमान है। पंच तत्व चिकित्सा एवं सूर्य किरण चिकित्सा सम्बन्धी अपनी पुस्तकों में हम इस सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डाल चुके हैं।

व्याप्ति कला, किसी मनुष्य के तेजस् में परिलक्षित होती है। यह तेजस् मुख के आस पास प्रकाश मंडल की तरह विशेष रूप से फैला होता है यों तो यह सारे शरीर के आस पास प्रकाशित रहता है। इसे अंग्रेजी में ‘‘औरा’’ और संस्कृत में ‘‘तेजोवलय’’ कहते हैं। देवताओं के चित्रों में उनके मुख के आस पास एक प्रकाश का गोला सा चित्रित होता है यह उनकी कला का ही चिन्ह है। अवतारों के सम्बन्ध में उनकी शक्ति का माप उनकी कथित कलाओं से किया जाता है। परशुरामजी में तीन, रामचन्द्रजी में बारह, कृष्ण में सोलह, कलाएं बताई गई हैं। इसका तात्पर्य है उनमें साधारण मात्रा से इतनी गुनी आत्मिक शक्ति थी।

सूक्ष्म दर्शी लोग किसी व्यक्ति या वस्तु की आंतरिक स्थिति का पता उसके तेजोवलय और रंग रूप, चमक और चैतन्यता को देखकर मालूम कर लेते हैं। ‘कला’ विद्या की जिसे जानकारी है वह भूमि के अन्तर्गत छिपे हुए पदार्थों को वस्तुओं के अन्तर्गत छिपे हुए उनके गुण, प्रभाव एवं महत्वों को आसानी से जान लेता है। किसी मनुष्य में कितनी कलाएं हैं उसमें क्या क्या शारीरिक मानसिक एवं आत्मिक विशेषताएं हैं तथा किन किन गुण, दोषों, योग्यताओं, सामर्थ्यों की उनमें कितनी न्यूनाधिकता है यह सहज ही पता चल जाता है। इस जानकारी के होने से किसी व्यक्ति से समुचित सम्बन्ध रखना सरल हो जाता है।

कला विज्ञान का ज्ञाता अपने शरीर की तात्विक न्यूनाधिकता का पता लगाकर उसे आत्म बल से ही सुधार सकता है और अपनी कलाओं में समुचित संशोधन, परिमार्जन एवं विकास कर सकता है। कला ही सामर्थ्य है। अपनी आत्मिक सामर्थ्य का, आत्मिक उन्नति का, माप कलाओं की परीक्षा करके प्रकट हो जाता है और साधक यह निश्चय कर सकता है कि उसकी उन्नति हो रही है या नहीं, उसे सन्तोष जनक सफलता मिल रही है या नहीं।

सब ओर से चित्त हटा कर नेत्र बन्द करके भृकुटी के मध्य भाग में ध्यान एकत्रित करने से मस्तिष्क में तथा उसके आस-पास रंग बिरंगी धज्जियां चिन्दियां तथा तितलियां भी उड़ती दिखाई पड़ती हैं। इनके रंगों का आधार तत्वों पर निर्भर होता है। पृथ्वी रंग का तत्व पीला, जल का श्वेत, अग्नि का लाल, वायु का हरा आकाश का नीला होता है। जिस रंग की झिलमिल होती हो उसी के आधार पर यह जाना जा सकता है कि इस समय हम में किन तत्वों की अधिकता और किनकी न्यूनता है।

प्रत्येक रंग में अपनी अपनी विशेषता होती है। पीले रंग में क्षमा, गम्भीरता, पाचन, उत्पादन, स्थिरता, वैभव, मजबूती, संजीदगी, भारीपन। श्वेत रंग में-शान्ति, रसिकता कोमलता, शीघ्र प्रभावित होना, तृप्ति, शीतलता, सुन्दरता, वृद्धि, प्रेम। लाल रंग में-गर्मी, उष्णता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अनिष्ठ, शूरता, संघर्ष, दाह, उत्तेजना, कठोरता, वासना, कामुकता, तेज, प्रभाव शीलता, चमक, स्फूर्ति। हरे रंग में—चंचलता, कल्पना, स्वप्न शीतलता, हलकापन, जकड़ना, दर्द, पीला, अपहरण, धूर्तता, गति शीलता, विनोद, प्रति शीलता, विनोद, प्राण पोषण, परिवर्तन। नीले रंग में-विचार शीलता, बुद्धि, सूक्ष्मता, विस्तार, सात्विकता, प्रेरणा, व्यापकता, संशोधन, संवर्धन सिंचन, आकर्षण आदि गुण होते हैं।

जड़ या चेतन किसी भी पदार्थ के प्रकट रंग एवं उससे निकलने वाली सूक्ष्म प्रकाश ज्योति से यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु या प्राणी का गुण, क्रम, स्वभाव एवं प्रभाव कैसा हो सकता है। साधारणतः यह पांच तत्वों की पांच कला हैं जिनके द्वारा यह लाभ हो सकते हैं

1— व्यक्तियों तथा पदार्थों की आन्तरिक स्थिति को समझना
2— अपने शारीरिक तथा मानसिक क्षेत्र में असंतुलित किसी गुण दोष को संतुलित करना
3— दूसरों के शारीरिक तथा मन की विकृतियों का संशोधन करके सुव्यवस्था स्थापित करना
4— तत्व के मूल आधार पर पहुंच कर तत्वों की गति विधि तथा क्रिया पद्धति को जानना
5— तत्वों की गति विधि तथा क्रिया पद्धति को जानना 5—तत्वों पर अधिकार करके सांसारिक पदार्थों का निर्माण, पोषण तथा विनाश करना।

यह उपरोक्त पांच लाभ ऐसे हैं जिनकी व्याख्या की जाय तो वे ऋद्धि सिद्धियों के समान आश्चर्य जनक प्रतीत होंगे। यह पांच भौतिक कलाएं हैं, जिनका उपयोग राजयोगी, हठयोगी, मंत्र योगी तथा तांत्रिक अपने अपने ढंग से करते हैं। और इस तात्विक शक्ति का अपने अपने ढंग से सदुपयोग दुरुपयोग करके भले बुरे परिणाम उपस्थित करते हैं। कला द्वारा सांसारिक भोग वैभव भी मिल सकता है, आत्म कल्याण भी हो सकता है और किसी को शापित, अभिचारित एवं दुख शोक संतप्त भी बनाया जा सकता है। पंच तत्वों की कलाएं ऐसी ही प्रभाव पूर्ण होती हैं।

आत्मिक कलाएं तीन हैं सत, रज, तम। तमोगुणी कलाओं का मध्य केन्द्र शिव है। रावण, हिरण्य कश्यपु, भस्मासुर, कुम्भकरण, मेघनाद आदि असुर इन्हीं तामसिक कलाओं के सिद्ध पुरुष थे। रजोमुखी कलाएं विष्णु से आती हैं। इन्द्र, कुबेर, वरुण, बृहस्पति, ध्रुव, अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर कर्ण आदि में इन राजसिक कलाओं की विशेषता थी। सतोगुणी सिद्धियां ब्रह्म से आविर्भूत होती हैं, व्यास, वशिष्ट, अत्रि, बुद्ध, महावीर, ईसा, गांधी आदि ने सात्विकता के केन्द्र से ही शक्ति प्राप्त की थी।

आत्मिक कलाओं की साधना गायत्री योग के अन्तर्गत ग्रन्थि भेद द्वारा होती हैं। रुद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और ब्रह्म ग्रन्थि खुलने से इन तीनों ही कलाओं का साक्षात्कार साधक को होता है। पूर्वकाल में लोगों के शरीरों में आकाश तत्व अधिक था इसलिए उन्हें इन्हीं साधनाओं से अत्यधिक आश्चर्यमयी सामर्थ्यें प्राप्त हो जाती थीं पर आज के युग में जन समुदाय के शरीरों में पृथ्वी तत्व प्रधान है। इसलिए अणिमा महिमा आदि तो नहीं पर सत, रज, तम की शक्तियों की अधिकता से जब भी आश्चर्य जनक हित साधन हो सकता है।





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