गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

गायत्री का तन्त्रोक्त वाममार्ग

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>


वाम मार्ग का, तंत्र विद्या का आधार प्राणमय कोश है। जितनी शक्ति प्राण में या प्राणमय कोश के अन्तर्गत है केवल उतनी ही ‘‘तंत्रोक्त प्रयोगों’’ द्वारा चरितार्थ हो सकती है। ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार, जीवन मुक्ति, अन्तःकरण का परिमार्जन आदि कार्य तंत्र की पहुंच से बाहर हैं। वाम मार्ग से तो वही भौतिक प्रयोजन सध सकते हैं जो वैज्ञानिक यंत्रों द्वारा सिद्ध हो सकते हैं।

बन्दूक की गोली मारकर या विष का इंजेक्शन देकर किसी मनुष्य का प्राण घात किया जा सकता है। तंत्र द्वारा अभिचार क्रिया करके किसी दूसरे का प्राण लिया जा सकता है। निर्बल प्राण वाले मनुष्य पर तो यह प्रयोग और भी आसानी से हो जाते हैं जैसे छोटी चिड़ियों को मारने के लिए स्टेनगन की जरूरत नहीं पड़ती गुलेल में रख कर फेंकी गई मामूली कंकड़ी के आघात से ही चिड़ियां गिर पड़ती है और पंख फड़फड़ा कर प्राण त्याग कर देती है। इसी प्रकार निर्बल प्राण वाले कमजोर, बीमार, बालक वृद्ध या डरपोक मनुष्यों पर मामूली शक्ति का तांत्रिक भी प्रयोग कर लेता है और उन्हें घातक बीमारी और मृत्यु के मुख में ढकेल देता है।

शराब, चरस, गांजा आदि नशीली चीजों की मात्रा शरीर में अधिक पहुंच जाय तो मस्तिष्क की क्रिया पद्धति विकृत हो जाती है। नशे में मदहोश हुआ मनुष्य ठीक प्रकार सोचने, विचारने, निर्णय करने एवं अपने ऊपर काबू रखने में असमर्थ होता है उसकी विचार धारा, वाणी एवं क्रिया में अस्त व्यस्तता होती है। उन्माद या पागल पन के सब लक्षण उस नशीली चीज की अधिक मात्रा से उत्पन्न हो जाते हैं इसी प्रकार तांत्रिक प्रयोगों द्वारा एक ऐसा सूक्ष्म नशीला प्रभाव किसी के मस्तिष्क में प्रवेश कराया जा सकता है कि उसकी बुद्धि पदच्युत हो जाय और तीव्र प्रयोग की दशा में कपड़े फाड़ने वाला पागल बन जाय अथवा मंद प्रयोग की दश में अपनी बुद्धि की तीव्रता खो बैठे और चतुरता से वंचित होकर वज्र मूर्ख हो जाय।

कुछ विषैली औषधियां ऐसी होती हैं जिन्हें भूल से सेवन कर लिया जाय तो शरीर में भयंकर उपद्रव उठ खड़े होते हैं। कै, दस्त, हिचकी, छींक, बेहोशी, मूर्छा, ज्वर, फोड़े, फुन्सी, रक्त विकार, कोढ़, गठिया, दर्द, अनिद्रा, भ्रम आदि रोग हो जाते हैं। इसी प्रकार तान्त्रिक विधान में ऐसी विधियां भी हैं जिनके द्वारा एक प्रकार का विषैला पदार्थ किसी के शरीर में प्रवेश किया जा सकता है।

विज्ञान ने रेडियो किरणों की शक्ति से अपने आप उड़ने वाला ‘‘रेडार बम’’ नामक यंत्र ऐसा बनाया है जो किसी निर्धारित स्थान पर जाकर गिरता है। कृत्या, घात, मारण आदि के अभिचारों में ऐसी ही सूक्ष्म क्रिया प्राण शक्ति के आधार पर की जाती है, दूरस्थ व्यक्ति पर वह तांत्रिक ‘‘रेडार’’ ऐसा गिरता है कि लक्ष को क्षत विक्षत कर देता है।

युद्ध काल में बम बारी करके खेत, मकान, कारखाने, उद्योग उत्पादन, रेल, मोटरों, सड़कों पुल आदि नष्ट कर दिये जाते हैं। जिससे उस स्थान के मनुष्य साधन हीन हो जाते हैं, उनकी सम्पन्नता और अमीरी उस बमबारी द्वारा नष्ट हो जाती है और वे थोड़े ही समय में असहाय बन जाते हैं। तंत्र द्वारा किसी के सौभाग्य वैभव और सम्पन्नता पर बमबारी करने से उसे इस प्रकार नष्ट किया जा सकता है कि वह हैरत में रह जाय कि उसका सब कुछ इतनी जल्दी इतने आकस्मिक रूप से कैसे नष्ट हो गया या होता जा रहा है।

कूटनीतिक जासूस और व्यवसायी ठग ऐसा छद्म वेश बनाते और ऐसा जाल रचते हैं जिसके आकर्षण, प्रलोभन और कुचक्र में फंस कर समझदार आदमी भी बेवकूफ बन जाता है मैस्मरेजम एवं हिप्नोटिज्म द्वारा किसी के मस्तिष्क को अर्द्ध सम्मोहित करके वशवर्ती बना लिया जाता है फिर उस व्यक्ति को जैसे आदेश दिये जायं तदनुसार ही वह आचरण करता है। मैस्मरेजम तंत्र में वशीभूत मनुष्य उसी प्रकार सोचता है विचारता अनुभव करता है जैसा कि प्रयोक्ता का संकेत होता है। इसकी इच्छा और मनोवृत्ति भी उस समय वैसी ही हो जाती है जैसी कि करने के लिए उसे प्रेरणा दी जा रही है। तंत्र विद्या में मैस्मरेजम से अनेक गुनी प्रचंड शक्ति है उसके द्वारा जिस मनुष्य पर गुप्त रूप से बौद्धिक वशीकरण का जाल फेंका जाता है वह एक प्रकार की सूक्ष्म तन्द्रा में जाकर दूसरे का वशवर्ती हो जाता है उसकी बुद्धि वही सोचती वैसी ही इच्छा करती है, वैसा ही कार्य करती है जैसा कि उससे गुप्त षड़यन्त्र द्वारा कराया जा रहा है। अपनी निज की विचार शीलता से वह प्रायः वंचित हो जाता है।

व्यभिचारी पुरुष किन्हीं सरल स्वभाव स्त्रियों पर इस प्रकार का जादू चलाते हैं और उन्हें पथ भ्रष्ट करने में सफल हो जाते हैं। सीधी साधी, कुल शील का पूरा संकोच और सम्मान करने वाली देवियां, दूसरों के वशीभूत होकर अपनी प्रतिष्ठा, धर्म, लोक लाज आदि को तिलांजलि देकर ऐसा आचरण करती हैं जिसे देख कर हैरत होती है, कि इनकी बुद्धि ऐसे आकस्मिक तरीके से विपरीत हो क्यों गई? परन्तु वस्तुतः वे बेचारी निर्दोष होती हैं। वे बाज के चंगुल में फंसे हुए पक्षी या भेड़िये के मुंह में लगी हुई बकरी की तरह जिधर घसीटी जाती हैं उधर घसिट जाती हैं।

इसी प्रकार दुराचारिणी स्त्रियां किन्हीं पुरुषों पर अपना तांत्रिक प्रभाव डाल कर उनकी नाक में नकेल डाल लेती हैं और मन चाहे नाच नचाती हैं। कई वेश्याओं को इस प्रकार का जादू मालूम होता है वे ऐसे पक्षी फंसा लेती हैं जो अपना सब कुछ खो बैठने से पहले उस चंगुल से छूट नहीं पाते वे उन फंसे हुए पक्षियों का स्वास्थ्य सौन्दर्य और धन अपहरण करके अपने स्वास्थ्य सौन्दर्य और धन को बढ़ाती रहती हैं।

तंत्र द्वारा स्त्री पुरुष आपस में एक दूसरे की शक्ति को चूसते हैं। ऐसे साधन तंत्र प्रक्रिया में मौजूद है जिनके कारण एक पुरुष अपनी सहगामिनी स्त्री की जीवनी शक्ति को, प्राण शक्ति को, चूस कर उसे छूंछ कर सकता है और स्वयं उससे परिपुष्ट हो सकता है। अंडों की प्राण शक्ति चूसकर तगड़े बनने एवं दूसरों के रक्त का इंजेक्शन लेकर अपने शरीर को पुष्ट होने के उदाहरण अनेक होते हैं। पर ऐसे भी उदाहरण होते हैं कि समागम द्वारा साथी की सूक्ष्म प्राण शक्ति को चूस लिया जाय। तांत्रिक प्रधानता के मध्यकालीन युग में बड़े आदमी इसी आधार पर वहुविवाह की ओर अग्रसर हो गये थे। रनवासों में सैकड़ों रानियां रखी जाने लगीं थीं।

इस प्रक्रिया को स्त्रियां भी अपना लेती हैं। जादूगरनी स्त्रियां सुन्दर युवकों का मेंढा बकरा तोता आदि बना लेती थीं ऐसी कथाएं सुनी जाती हैं। तोता बकरा बनाना आज कठिन है पर अब भी ऐसी घटनाएं देखी गई हैं कि वृद्धा तंत्र साधिनी, युवकों को चूसती हैं और वे अनिच्छुक होते हुए भी अपनी प्राण शक्ति खोते रहने के लिए विवश होते हैं। इससे एक पक्ष पुष्ट होता है और दूसरा अपनी स्वभाविक शक्ति से वंचित होकर दिन दिन दुर्बल होता जाता है।

वाम मार्ग के पंच मकरों में, पंचम मकार ‘मैथुन’ है। अन्नमय कोश और प्राणमय कोश के सम्मिलित मंथन से यह महत्वपूर्ण क्रिया होती है। इसमें अगणित गुप्त अन्तरंग शक्तियों के अनुलोम विलोम क्रम से आकर्षण, विकर्षण, घूर्णन, चूर्णन, आकुंचन, विकुंचन, प्रत्यारोहण, अभिवर्द्धन, ऋणीकरण, अत्यावर्तन आदि सूक्ष्म मंथन होते हैं जिनके कारण जोड़े में स्त्री पुरुषों के शरीरों में आपसी महत्वपूर्ण आदान प्रदान होता है। रति क्रिया साधारणतः एक अत्यन्त साधारण शारीरिक क्रिया दिखाई देती है। पर उसका सूक्ष्म महत्व अत्यधिक है, उस महत्व को समझते हुए ही भारतीय धर्म में सर्व साधारण की सुरक्षा का, हितों का ध्यान रखते हुए इस सम्बन्ध में अनेक मर्यादाएं बांधी गई हैं।

मस्तिष्क, हृदय और जननेन्द्रिय शरीर में यह तीन शक्ति पुंज हैं। इन्हीं स्थानों में ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि, रुद्र ग्रन्थि हैं। वाम मार्ग काली तत्व से सम्बन्धित होने के कारण रुद्र ग्रन्थि से जब शक्ति संचय करने के लिए कूर्म प्राण को आधार बनाना होता है तो मैथुन द्वारा सामर्थ्य का भण्डार जमा किया जाता है। जननेन्द्रिय के सूक्ष्म प्रभाव क्षेत्र में मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, वज्र पेरु, तड़ित कच्छप, कुण्डल सर्पिणी, रुद्र ग्रन्थि, समान, कृकल, अपान, कूर्म प्राण, अलम्बुषा, डाकिनी, सुषुम्ना आदि के अवस्थान हैं। इनका आकुंचन, प्रकुंचन जब तंत्र विद्या के आधार पर होता है तो यह शक्ति उत्पन्न होती है और वह शक्ति दोनों ही दिशा में उलटी सीधी चल सकती है। इस विद्या के ज्ञाता जननेन्द्रिय को उचित रीति से प्रयोग करके आशातीत लाभ उठाते हैं परन्तु जो लोग इस विषय में अनभिज्ञ हैं वे स्वास्थ्य और जीवनी शक्ति को खो बैठते हैं। साधारणतः रति क्रिया में क्षय ही अधिक होता है, अधिकांश नर नारी उसमें अपने बल को खोते ही हैं पर तंत्र के गुप्त विधानों द्वारा अन्नमय और प्राणमय कोशों की सुप्त शक्तियां जगाई भी जा सकती हैं।

वाम वार्ग में मैथुन को इन्द्रिय भोग की क्षुद्र सरसता के रूप में नहीं लिया जाता वरन् शक्ति केन्द्रों के जागरण एवं मंथन द्वारा अभीष्ट सिद्धि के लिए उसका उपयोग होता है। सुप्त प्राणों का जागरण एवं एक की सामर्थ्यों का दूसरे शरीर में परिवर्तन, हस्तान्तरण करने के लिए इसको रयि साधना के रूप में प्रयोग होता है। मानव प्राणी के लिए परमात्मा द्वारा दिये हुये अत्यंत महत्वपूर्ण उपहार, इस ‘रयि’ और ‘प्राण’ के पुंज को, ईश्वरीय भाव से परम श्रद्धा के साथ पूजा जाता है। शिव लिंग के साथ शक्ति योनि के तादात्म्य की जो मूर्तियां आमतौर से पूजी जाती हैं उनमें जननेन्द्रिय में स्थिति दिव्य शक्ति के प्रति उच्च कोटि की श्रद्धा का संकेत है। क्षुद्र सरसता के लिए उसका प्रयोग तो हेय ही माना गया है।

चूंकि इस विद्या के सार्वजनिक उद्घाटन से उसका दुरुपयोग होने और अनैतिकता फैलने का पूरा खतरा है। इसलिए इसे अत्यन्त गोपनीय रखा गया है। हमारा प्रयोजन यहां उस महाशक्ति का परिचय कराना मात्र था। उपरोक्त पंक्तियों में तंत्र में सन्निहित शक्तियों के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डालना ही यहां अभीष्ट है।

किसी अस्त्र को आगे की ओर भी चलाया जा सकता है और पीछे की ओर भी। ईख से स्वादिष्ट मिष्ठान्न भी बन सकता है और मदिरा भी। गायत्री महा शक्ति को जहां आत्म कल्याण एवं सात्विक प्रयोजनों के लिए लगाया जाता है वहां उसे तामसिक प्रयोजनों में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। गायत्री का दक्षिण मार्ग भी है और वाम मार्ग भी। दक्षिण मार्ग—वेदोक्त, सतोगुणी, सरल, धर्म पूर्ण एवं परम कल्याण का साधन है। वाम मार्ग तंत्रोक्त, तमोगुणी, दुस्साहस पूर्ण, अनैतिक एवं सांसारिक चमत्कारों को सिद्ध करने वाला है।

गायत्री के दक्षिण मार्ग को शक्ति का स्रोत ब्रह्म का परम सतोगुणी ह्रीं तत्व है। और वाम मार्ग का महत्तत्व क्लीं केन्द्र से अपनी शक्ति प्राप्त करता है। अपने या दूसरे के प्राण का मंथन करके तंत्र की तड़ित शक्ति उत्पन्न की जाती है। रयि और प्राण के मंथन, एवं रतिकर्म के सम्बन्ध में पिछले पृष्ठ पर कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। दूसरा मंथन किसी प्राणी के वध द्वारा होता है प्राणान्त समय में भी प्राणी का प्राण मैथुन की भांति ही उत्तेजित उद्विग्न एवं व्याकुल होता है उस स्थिति में भी तांत्रिक लोग उसकी प्राण शक्ति का बहुत भाग खींच कर अपना शक्ति भण्डार भर लेते हैं। नीति अनीति का ध्यान न रखने वाले तांत्रिक पशु पक्षियों का बलिदान इसी प्रयोजन के लिए करते हैं।

मृत मनुष्यों के शरीरों में कुछ समय तक उप प्राणों का अस्तित्व सूक्ष्म अंश में बना रहता है। तांत्रिक लोग श्मशान भूमि में मरघट जगाने की साधना करते हैं। अघोरी लोग शव साधना करके मृतकों की बची खुची शक्ति चूसते हैं। देखा जाता है कि कई अघोरी मृत बालकों की लाशों को जमीन में से खोद ले जाते हैं, मृतकों की खोपड़ियां संग्रह करते हैं, चिताओं पर भोजन पकाते हैं। यह सब इसलिए किया जाता है कि मरे हुए शरीर के अस्ति भागों के भीतर, विशेषतः खोपड़ी में जहां तहां उप प्राणों की प्रसुप्त चेतना मिल जाती है। दाना दाना बीन कर अनाज की बोरी भर लेने वाले कंजूसों की तरह अघोरी लोग हड्डियों का फास्फोरस मिश्रित ‘द्यु’ तत्व एक बड़ी मात्रा में इकट्ठा कर लेते हैं।

दक्षिण मार्ग, किसान के विधि पूर्वक खेती करके न्यायानुमोदित अन्न उपार्जन करने के समान है। किसान अपने अन्न को बड़ी सावधानी और मितव्ययिता से खर्च करता है क्योंकि उसमें उसका दीर्घकालीन कठोर श्रम लगा है। पर डाकू की स्थिति ऐसी नहीं होती वह दुस्साहस पूर्ण आक्रमण करता है और यदि सफल हुआ तो उस कमाई को होली की तरह फूंकता है। योगी लोग चमत्कार प्रदर्शन में अपनी शक्ति खर्च करते हुए किसान की भांति झिझकते हैं पर तांत्रिक लोग अपने गौरव और बड़प्पन का आतंक जमाने के लिए क्षुद्र स्वार्थों के कारण दूसरों को अनुचित हानि-लाभ पहुंचाते हैं। अघोरी, कापालिक, रक्त बीज, वैतालिक, ब्रह्म राक्षस आदि कई सम्प्रदाय तांत्रिकों के होते हैं उनकी साधना पद्धति एवं कार्य प्रणाली भिन्न भिन्न होती है। स्त्रियों में डाकिनी, शाकिनी, कपाल कुण्डला, सर्प सूत्रा पद्धतियों का प्रचार अधिक पाया जाता है।

बन्दूक से गोली छूटते समय वह पीछे की ओर झटका मारती है। यदि सावधानी के साथ छाती से सटा कर बन्दूक को ठीक प्रकार न रखा गया तो वह ऐसे जोर का झटका देगी कि चलाने वाला औंधे मुंह पीछे की ओर गिर पड़ेगा। कभी-कभी इससे अनाड़ियों के गले की ‘हंसली’ हड्डी तक टूट जाती है। तंत्र द्वारा भी बन्दूक जैसी तेजी के साथ स्फोट होता है उसका झटका सहन करने योग्य स्थिति यदि साधक की न हो तो उसे भयंकर खतरे में पड़ जाना होता है।

तंत्र का शक्ति स्त्रोत दैवी, ईश्वरीय, शक्ति नहीं वरन् भौतिक शक्ति है। प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु अपनी धुरी पर द्रुत गति से भ्रमण करते हैं तब वे उसके घर्षण से जो ऊष्मा पैदा होती है उसका नाम काली या दुर्गा है। इस ऊष्मा को प्राप्त करने के लिये अस्वाभाविक, उलटा, प्रतिगामी मार्ग ग्रहण करना पड़ता है। जल का बहाव रोका जाय तो उस प्रतिरोध से एक शक्ति का उद्भव होता है। तांत्रिक वाम मार्ग पर चलते हैं फल स्वरूप काली शक्ति का प्रतिरोध करके अपने को एक तामसिक, पंच भौतिक बल से सम्पन्न कर लेते हैं। उलटा आहार, उलटा विहार, उलटी दिनचर्या, उलटी गतिविधि सभी कुछ उनका उलटा होता है। अघोरी, कापालिक, रक्तबीज, डाकिनी आदि के सम्पर्क में जो लोग रहे हैं वे जानते हैं कि उनके आचरण कितने उलटे घृणित और वीभत्स होते हैं।

द्रुत गति से एक नियत दशा में दौड़ती हुई रेल, मोटर, नदी, वायु आदि के आगे आकर उसकी गति को रोकना और उस प्रतिरोध से शक्ति प्राप्त करना यह खतरनाक खेल है। हर कोई इसे कर भी नहीं सकता। क्योंकि प्रतिरोध के समय झटका लगता है। प्रतिरोध जितना कड़ा होगा झटका भी उतना ही जबरदस्त लगेगा। तंत्र साधक जानते हैं कि जन कोलाहल से दूर एकांत खण्डहरों श्मशानों में अर्ध रात्रि के समय जब उनकी साधना का मध्यकाल आता है तब कितने रोमांचकारी भय सामने आ उपस्थित होते हैं। गगन चुम्बी राक्षस, विशालकाय सर्प, लाल नेत्रों वाले शूकर और महिष, छुरी से दांतों वाले सिंह साधक के आसपास जिस रोमांचकारी भयंकरता से गर्जन तर्जन करते हुये कुहराम मचाते और आक्रमण करते हैं उनसे न तो डरना और न विचलित होना यह साधारण काम नहीं है। साहस के अभाव में यदि इस प्रतिरोधी प्रतिक्रिया से साधक भयभीत हो जाय तो उसके प्राण संकट में पढ़ सकते हैं ऐसे अवसरों पर कई व्यक्ति पागल, बीमार, गूंगे, बहरे, अन्धे हो जाते हैं कइयों को प्राणों तक से हाथ धोना पड़ता है। इस मार्ग में साहसी और निर्भीक प्रकृति के मनुष्य ही सफलता पाते हैं।

ऐसी कितनी ही घटनाएं हमें मालूम हैं जिन में तंत्र साधकों को खतरे में होकर गुजरना पड़ा है। विशेषतः जब किसी सूक्ष्म प्राण सत्ता को वशीभूत करना होता है तो उसकी प्रतिरोधी प्रतिक्रिया बड़ी विकट होती है। सूक्ष्म जगत रूपी समुद्र में मछलियों की भांति कुछ चैतन्य प्राणधारी स्वतंत्र सत्ताओं का अस्तित्व पाया जाता है। जैसे समुद्र में मछलियां अनेक जाति की होती हैं उसी प्रकार यह सत्ताएं भी अनेक स्वभावों, गुणों शक्तियों से सम्पन्न होती है। इन्हें पितर, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस, देव, दानव, ब्रह्म राक्षस, वैताल, कूष्माण्ड, भैरव, रक्तबीज आदि कहते हैं। उनमें से किसी को सिद्ध करके उसकी शक्ति से अपने प्रयोजनों को साधा जाता है। इनको सिद्ध करते समय वे उलट कर कुचले हुए सर्प की तरह ऐसा आक्रमण करते हैं कि निर्बल साधक के लिए उस चोट को झेलना कठिन होता है। ऐसे खतरों में पड़ कर कई व्यक्ति इतने भयभीत एवं आतंकित होते हमने ऐसे देखे हैं जिनकी छाती की रक्त वाहिनी नाड़ियां फट गईं और मुख नाक तथा मल मार्ग से खून बहने लगा। ऐसे आहात लोगों में से अधिकांश को मृत्यु के मुख में प्रवेश करना पड़ा जो बच्चे उसका शरीर और मस्तिष्क विकार ग्रस्त हो गया।

भूतोन्माद मानसिक भ्रम, आवेश, अज्ञात आत्माओं द्वारा कष्ट दिया जाना, दुःस्वप्न, तांत्रिकों के अभिचारी आक्रमण आदि किसी सूक्ष्म प्रक्रिया द्वारा जो व्यक्ति आक्रान्त हो रहा हो उसे तांत्रिक प्रयोगों द्वारा रोका जा सकता है और उस प्रयोक्ता पर उसी के प्रयोग को उलटा कर उस अत्याचार का मजा चखाया जा सकता है, परन्तु इस प्रकार के कार्य दक्षिण मार्गी गायत्री उपासना से भी हो सकते हैं। अभिचारियों या दुष्टों पर तात्कालिक उलटा आक्रमण करना तो तंत्र द्वारा ही सम्भव है पर हां उनके प्रयत्नों को वेदोक्त साधना से भी निष्फल किया जा सकता है और उनकी शक्ति को छीनकर भविष्य के लिए उन्हें विष रहित सर्प जैसा हत वीर्य बनाया जा सकता है। तंत्र द्वारा किन्हीं स्त्री पुरुषों के काम शक्ति का अपहरण करके उन्हें नपुंसक बना दिया जाता है पर अति असंयम को संयमित दक्षिण मार्ग द्वारा भी यह किया जा सकता है। तंत्र की शक्ति प्रधानतः मारक एवं आक्रमण कारी होती है, पर योग द्वारा शोधन, परिमार्जन संचय एवं रचनात्मक निर्माण कार्य किया जाता है।

तंत्र के चमत्कारी प्रलोभन असाधारण हैं। दूसरों पर आक्रमण करना तो उसके द्वारा बहुत ही सरल है। किसी को बीमारी, पागलपन, बुद्धिभ्रम, उच्चाटन उत्पन्न कर देना प्राण घातक संकट में डाल देना आसान है। सूक्ष्म जगत में भ्रमण करती हुई किसी ‘‘चेतना ग्रन्थि’’ को प्राणवान बङङङङङङ कर उसे प्रेत, पिशाच, बेताल, भैरव, कर्णपिशाचनी, छाया पुरुष आदि के रूप में सेवक की तरह काम लेना, सुदूर देश से अजनबी चीजें मंगा देना, गुप्त स्थानों में गुप्त रखी हुई चीजें या अज्ञात व्यक्तियों के नाम पते बता देना तांत्रिक के लिए सम्भव है। आगे चलकर वेष बदल लेना या किसी वङङङङ का रूप बदल देना भी उनके लिए सम्भव है। इसी प्रकार अनेकों विलक्षणताएं उनमें देखी जाती हैं जिससे लोग बहुत प्रभावित होते हैं और उनकी भेंट पूजा भी खूब होती है परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि इन शक्तियों का स्रोत परमागत ऊष्मा (काली) ही है जो परिवर्तन शील है। यदि थोड़े दिनों साधना बन्द रखी जाय या प्रयोग छोड़ दिया जाय तो उस शक्ति का घट जाना या समाप्त हो जाना अवश्यंभावी है।

तंत्र द्वारा कुछ छोटे मोटे लाभ भी हो सकते हैं। किसी के तांत्रिक आक्रमण को निष्फल करके किसी निर्दोष की हानि को बचा देना ऐसा ही सदुपयोग है। तांत्रिक विधि से ‘शक्तिपात’ करके अपनी उत्तम शक्तियों का कुछ भाग किसी निर्बल मन वाले को देकर उसे ऊंचा उठा देना भी सदुपयोग ही है। और भी कुछ ऐसे ही प्रयोग हैं जिन्हें विशेष परिस्थिति में काम में लाया जाय तो वह भी सदुपयोग ही कहा जायगा। परन्तु असंस्कृत मनुष्य इस तमोगुण प्रधान शक्ति का सदा सदुपयोग ही करेंगे इसका कुछ भरोसा नहीं। स्वार्थ साधन का अवसर हाथ में आने पर उनका लोभ छोड़ना किन्हीं विरलों का ही काम होता है।

तंत्र अपने आप में कोई बुरी चीज नहीं है। वह एक विशुद्ध विज्ञान है। वैज्ञानिक लोग यंत्रों और रासायनिक पदार्थों की सहायता से प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों का उपयोग करते हैं। तांत्रिक अपने अन्तर्जगत को ही ऐसी रासायनिक एवं यांत्रिक स्थिति में ढाल लेता है कि अपने शरीर और मन को एक विशेष प्रकार से संचालित करके प्रकृति की सूक्ष्म शक्तियों का मनमाना उपयोग करे। इस विज्ञान का विद्यार्थी कोमल परमाणुओं वाला होना चाहिये साथ ही साहसी प्रकृति का भी। कठोर बनावट और कमजोर मन वाले इस दिशा में अधिक प्रगति नहीं कर पाते। यही कारण है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियां अधिक आसानी से सफल तांत्रिक बनते देखी गई हैं। छोटी छोटी प्रारम्भिक सिद्धियां तो उन्हें स्वल्प प्रयत्न से ही प्राप्त हो जाती है।

तंत्र एक स्वतंत्र विज्ञान है। विज्ञान का दुरुपयोग भी हो सकता है और सदुपयोग भी। परन्तु इसका आधार गलत और खतरनाक है और शक्ति प्राप्त करने के उद्गम स्रोत अनैतिक अवांछनीय हैं साथ ही प्राप्त सिद्धियां भी अस्थायी हैं। आमतौर से तांत्रिक घाटे में रहता है, उससे संसार का जितना उपकार हो सकता है उससे अधिक अपकार होता है इसलिए चमत्कारी होते हुए भी इस मार्ग को निषिद्ध, एवं गोपनीय ठहराया गया है। अन्य समस्त तंत्र साधनों की अपेक्षा गायत्री का वाम मार्ग अधिक शक्तिशाली है। अन्य सभी विधियों की अपेक्षा इस विधि से मार्ग सुगम पड़ता है फिर भी निषिद्ध वस्तु त्याज्य है सर्व साधारण के लिए तो उससे दूर रहना ही उचित है।

यों तंत्र की कुछ सरल विधियां भी हैं, अनुभवी पथ प्रदर्शक इन कठिनाइयों का मार्ग सरल बना सकते हैं हिंसा अनीति एवं अकर्म से बचकर ऐसे लाभों के लिए साधन कर सकते हैं जो व्यवहारिक जीवन में उपयोगी हों और अनर्थ से बचकर स्वार्थ साधन होता रहे। पर यह लाभ तो दक्षिण मार्गी साधना से भी हो सकते हैं। जल्दबाजी का प्रलोभन छोड़कर यदि धैर्य और सात्विक साधन किये जायं तो उसके भी कम लाभ नहीं हैं। हमने दोनों मार्गों का लम्बे समय तक साधन करके यही पाया है कि दक्षिण मार्ग का राज पथ ही सर्व सुलभ है।

गायत्री द्वारा साधित तंत्र विद्या का क्षेत्र बड़ा विस्तृत है। सर्प विद्या, प्रेत विद्या, भविष्य ज्ञान, अदृश्य वस्तुओं का देखना, परकाया प्रवेश, घातप्रतिघात, दृष्टिबंध, मारण, उन्मादी करण, वशीकरण, विचार संदीप, मोहन मंत्र रूपांतरण विस्मृति, संतान सुयोग, छायापुरुष, भैरवी, अपहरण, आकर्षण अभिकर्षण, आदि अनेकों ऐसे ऐसे कार्य हो सकते हैं जिनको अन्य किसी भी तांत्रिक प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है। परन्तु यह स्पष्ट है कि तंत्र की प्रणाली सर्वोपयोगी नहीं है। उसके अधिकारी कोई विरले ही होते हैं।

दक्षिण मार्गी वेदोक्त, योग सम्मत, गायत्री साधन, किसान द्वारा अन्न उपजाने के समान धर्म संगत, स्थिर लाभ देने वाली और लोक परलोक में सुख शान्ति देने वाली है। पाठकों का वास्तविक हित इसी राजपथ के अवलम्बन में है। दक्षिण मार्ग से, वेदोक्त साधन से, जो लाभ मिलते हैं वे ही आत्मा को शान्ति देने वाले, स्थायी रूप से उन्नति करने वाले एवं कठिनाइयों को हल करने वाले हैं। तंत्र में चमत्कार बहुत हैं वाम मार्ग से आसुरी शक्तियां प्राप्त होती हैं उनकी संहारक एवं आतंकवादी क्षमता बहुत है, परन्तु इससे किसी का भला नहीं हो सकता। तत्कालिक लाभ को ध्यान में रख कर जो लोग तंत्र के फेर में पड़ते हैं वे अन्ततः घाटे में रहते हैं। तंत्र विद्या के अधिकारी वही हो सकते हैं तो तुच्छ स्वार्थी से ऊंचे उठे हुए हैं। परमाणु बम के रहस्य और प्रयोग हर किसी को नहीं बताये जा सकते इसी प्रकार तंत्र की खतरनाक जिम्मेदारी केवल सत्पात्रों को ही सौंपी जा सकती है।





<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118