गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

आसन

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मोटे तौर से आसनों को शारीरिक व्यायाम में ही गिना जाता है। उनसे वे सब लाभ मिलते हैं जो व्यायाम द्वारा मिलने चाहिए। साधारण कसरतों से जिन भीतर के अंगों का व्यायाम नहीं हो पाता उनका आसनों द्वारा हो जाता है।

ऋषियों ने आसनों को योग साधन में इसलिए प्रमुख स्थान दिया है कि वे स्वास्थ्य रक्षा के लिए अतीव उपयोगी होने के अतिरिक्त मर्म स्थानों में रहने वाली ‘‘हव्य वहा’’ और ‘‘कव्य वहा’’ तड़ित शक्ति को क्रियाशील रखते हैं। मर्मस्थल वे हैं जो अतीव कोमल हैं और प्रकृति ने उन्हें इतना सुरक्षित बनाया है कि साधारणतः उन तक वाह्य प्रभाव नहीं पहुंचता। आसनों से इनकी रक्षा होती है।

इन मर्मों की सुरक्षा में यदि किसी प्रकार की बाधा पड़ जाय तो जीवन संकट में पड़ सकता है। ऐसे मर्म स्थान उदर और छाती के भीतर विशेष हैं। कंठ कूप, स्कन्ध पुच्छ, मेरु दण्ड और ब्रह्मरंध्र से सम्बन्धित 36 मर्म हैं। इनमें कोई आघात लग जाय, रोग विशेष के कारण विकृति आ जाय रक्ताभिषरण रुक जाय और विष बालुका जमा हो जाय तो देह भीतर ही भीतर घुलने लगती है बाहर से कोई प्रत्यक्ष या विशेष रोग दिखाई नहीं पड़ता पर भीतर ही भीतर देह खोखली होती जाती है। नाड़ी में ज्वर नहीं होता पर मुंह का कडुआपन, शरीर में रोमांच भारीपन, उदासी, हड़फूटन, सिर में हलका सा दर्द, प्यास आदि भीतरी ज्वर जैसे लक्षण दिखाई पड़ते हैं। वैद्य डॉक्टर कुछ समझ नहीं पाते। दवा दारु देते हैं पर कुछ विशेष लाभ नहीं होता।

मर्मों में चोट पहुंचने से आकस्मिक मृत्यु हो सकती है। तांत्रिक अभिचारी, जब मारण प्रयोग करते हैं तो उनका आक्रमण इन मर्म स्थलों पर ही होता है। हानि, शोक, अपमान आदि की कोई मानसिक चोट लगे तो मर्म स्थल क्षत विक्षत हो जाते हैं और उस व्यक्ति के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। मर्म अशक्त हो जायं तो गठिया, गंज, श्वेत कुष्ठ, पथरी, गुर्दे की शिथिलता त्वचा की खुश्की, बहुमूत्र, बवासीर, जैसे न ठीक होने वाले रोग उपज पड़ते हैं।

सिर और धड़ में रहने वाले मर्मों में ‘हव्य वहा’ नामक धन (पॉजिटिव) विद्युत का निवास है और हाथ पैरों में ‘कव्य वहा’ ऋण (निगेटिव) विद्युत की विशेषता है। दोनों का संतुलन बिगड़ जाय तो लकवा, अर्धांग, संधिवात जैसे उपद्रव खड़े हो जाते हैं।

कई बार मोटे तगड़े और स्वस्थ दिखाई पड़ने वाले मनुष्य भी ऐसे मन्द रोगों से ग्रसित हो जाते हैं जो उनकी शारीरिक अच्छी स्थिति को देखते हुए न होने चाहिए थे। इन मार्मिक रोगों का कारण मर्म स्थानों की गड़बड़ी है। कारण यह है साधारण परिश्रमों या कसरतों द्वारा इन मर्म स्थानों का व्यायाम नहीं हो पाता। औषधियों की वहां तक पहुंच नहीं होती, शल्य किया या सूची भेद (इंजेक्शन) भी उनको प्रभावित करने में समर्थ नहीं होते। उस विकट गुत्थी को सुलझाने में केवल ‘योग आसन’ ऐसे तीक्ष्ण अस्त्र हैं जो मर्म शोधन में अपना चमत्कार दिखाते हैं।

ऋषियों ने देखा अच्छा आहार विहार रखते हुए भी, विश्राम व्यायाम की समुचित व्यवस्था रखते हुए भी कई बार अज्ञात सूक्ष्म कारणों से मर्म स्थल विकृत हो जाते हैं और उनमें रहने वाली ‘हव्य वहा’ और ‘कव्य वहा’ तड़ित शक्ति का संतुलन बिगड़ जाने से बीमारी तथा कमजोरी आ घेरती हैं जिससे योग साधना में बाधा पड़ती है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए उन्होंने अपने दीर्घकालीन अनुसंधान और अनुभवों द्वारा ‘आसन’ क्रिया का आविष्कार किया है।

आसनों का सीधा प्रभाव हमारे मर्म स्थलों पर पड़ता है। प्रधान नस नाड़ियों और मांस पेशियों के अतिरिक्त सूक्ष्म ककेरुकाक्षों का भी आसनों द्वारा ऐसा आकुंचन, प्रकुंचन होता है कि उनमें जमे हुए विकार हट जाते हैं, तथा फिर नित्य सफाई होते रहने से नये विकार जमा नहीं होते। मर्म स्थलों की शुद्धि, स्थिरता एवं परिपुष्ट के लिए आसनों का अपने ढंग के सर्वोत्तम उपचार कहा जा सकता है।

आसन अनेक हैं। उनमें से 84 प्रधान हैं। उन सबकी विधि व्यवस्था और उपयोगिता वर्णन करने का यहां अवसर नहीं है। सर्वांगपूर्ण आसन विद्या की शिक्षा इस पुस्तक में नहीं दी जा सकती। सुविधानुसार इस सम्बन्ध में एक विशद ग्रन्थ लिखेंगे। आज तो हमें गायत्री की योग साधना करने की इच्छुकों को कुछ ऐसे सुलभ आसन बताना पर्याप्त होगा। जो साधारणतः उनके सभी मर्म स्थलों की सुरक्षा में सहायक हों।

आठ आसन ऐसे हैं जो सभी मर्मों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं। इनकी उपयोगिता एवं सरलता अन्य आसनों से अधिक है। इनमें से दो चार या अधिक अपने लिए सुविधाजनक हों भोजन से पूर्ण कर लेने चाहिए। उपासना के पश्चात् ही इनको करना चाहिए जिससे रक्त की गति तीव्र हो जाने से उत्पन्न हुई चित्त की चंचलता ध्यान में बाधक न हो।

सर्वांगासन — आसन पर चित्त लेट जाइये और शरीर को बिलकुल ढीला कर दीजिए। हाथ को जमीन से ऐसा मिला रखिए कि हथेलियां जमीन से चिपकी रहें। अब घुटने सीधे कड़े करके दोनों पैर मिले हुए ऊपर को उठाइये और इन्हें पेड़ की तरह सीधे तान दीजिए। शरीर को भी उठाइये और पैरों को ले जाकर सिर के पीछे जमीन से लगाइए। केवल पैर के पंजे जमीन से दूने चाहिए। पैर मुड़ने न पावें बल्कि सीधे तने हुए रहें। हाथ चाहे जमीन पर रखिये चाहे सहारे के लिए कमर से लगा दीजिए। ठोड़ी कण्ठ के गण्डारे से चिपकी रहनी चाहिए।

सिद्ध पद्मासन — पालथी मार कर बैठिये। फिर दोनों हाथ पीठ के पीछे से ले जाकर दाहिने पैर का अंगूठा पकड़िये और बांया हाथ उसी तरह ले जा कर बांए पैर का अंगूठा पकड़िये पीठ को बिलकुल सीधा तान दीजिए और दृष्टि नासिक के अग्रभाग पर जमाइए। ठोड़ी को कण्ठ के मूल में गड़ाये रखिये। बहुतों के हाथ शुरू में ही पीठ के पीछे घूम कर अंगूठा नहीं पकड़ सकते। इस कारण उनकी इन नसों का शुद्ध और पूरे फैलाव में न होना है। इसलिए जब तक दोनों पैरों में अंगूठे न जा सकें तब तक एक ही पैर का अंगूठा पकड़ कर अभ्यास बढ़ाना चाहिए।

पाद हस्तासन — सीधे खड़े हो जाइये। फिर धीरे-धीरे हाथों को नीचे झुकाइये। और नीचे ले जाकर हाथों से पैरों के दोनों अंगूठों को पकड़िये। पैर आपस में मिलें और बिलकुल सीधे रहें, घुटने मुड़ने न पावें। इसके बाद सिर दोनों हाथों के बीच से भीतर की ओर ले जा कर नाक घुटनों से मिलाइये। दाहिने हाथ से बांये पैर और बांये हाथ से दाहिने पैर का अंगूठा पकड़ करके भी किया जाता है। इस आसन को करते समय पेट को भीतर की ओर खूब जोर से खींचना चाहिए।

उत्कटासन — सीधे खड़े हो जाइए। दोनों पैर घुटने एड़ी और पंजे आपस में मिले रहने चाहिए। दोनों हाथ कमर पर रहें। पेट को कुछ भीतर की ओर खींचिए और घुटनों को मोड़ते हुए, शरीर सीधा रखते हुए उसे धीरे-धीरे पीछे की ओर झुकाइए। इस प्रकार बिलकुल उसी प्रकार हो जाइए जैसे कुर्सी पर बैठते हैं। जब कमर झुककर घुटनों के सामने आ जाय तो उसी दशा में स्थिर हो जाना चाहिए।

इसका अभ्यास हो जाने पर एड़ियों को भी जमीन से उठा दीजिए और केवल पंजों के बल स्थिर हूजिए। उसका भी अभ्यास हो जाय तो घुटनों को खोलिए और उन्हें काफी फैला दीजिए। ध्यान रहे घुटनों को इस प्रकार रखिए कि दोनों हाथों की उंगलियां घुटनों के बाहर जमीन को छूती रहें।

पश्चिमोत्तान आसन — पैरों को लम्बे फैला दीजिए। दोनों पैर मिले रहें। घुटने मुड़े न हों बिलकुल सीधे रहें। टांगें जमीन से लगी रहें। इसके बाद टांगों को झुका कर दोनों हाथों से पैरों के दोनों अंगूठों को पकड़िए। ध्यान रहे कि पैर जमीन से जरा भी न उठने पावें। पैरों के अंगूठे पकड़ कर सिर दोनों घुटनों के बीच में करके यह प्रयत्न करना चाहिए कि सिर घुटनों पर या उनके भी आगे रखा जाय।

यदि बन सके तो हाथ की कोहनियों को जमीन से छुआना चाहिए। शुरू में पैर फैलाकर और घुटने सीधे रख कर कमर आगे झुका कर अंगूठे पकड़ने का प्रयत्न करना चाहिए धीरे-धीरे पकड़ने लग जाने पर सिर घुटनों पर रखने का प्रयत्न करना चाहिए।

सर्पासन — पेट के बल आसन पर लेट जाइए। फिर दोनों हाथों के पंजे जमीन पर टेक कर हाथ खड़े कर दीजिए। पंजे नाभि के पास रहें। शरीर पूरी तरह जमीन से चिपटा हो। मूल घुटने यहां तक कि पैरों के पंजों की पीठ तक जमीन से पूरी तरह चिपकी हो। अब क्रमशः सिर, गर्दन, गला, छाती और पेट को धीरे-धीरे जमीन से उठाते जाइए और जितना तान सकें तान दीजिए। दृष्टि सामने रहे। शरीर सांस के फन की तरह तना खड़ा रहे। नाभि के पास तक शरीर जमीन से उठ जाना चाहिए।

धनुषासन — आसन पर लेट जाइए। फिर दोनों पैरों को घुटनों से मोड़ कर पीछे की तरफ ले जाइए और हाथ भी पीछे ले जाकर दोनों पैरों को पकड़ लीजिए, अब धीरे-धीरे सिर और छाती को ऊपर उठाइए साथ ही हाथों को भी ऊपर की ओर खींचते हुए पैरों को ऊपर की ओर तानिए। आगे पीछे शरीर इतना उठा दीजिए कि केवल पेट और पेड़ू जमीन से लगे रह जाएं।

शरीर का बाकी तमाम हिस्सा उठ जाय और शरीर खिंच कर धनुष के आकार का हो जाय। पैर, सिर और छाती के तनाव में टेढ़ापन आ जाय दृष्टि सामने रहे और स ना निकला हुआ मालूम हो।

मयूरासन — घुटनों के सहारे आसन पर बैठ जाइए फिर दोनों हाथ जमीन पर साधारण अन्तर से ऐसे रखिए कि पंजे पीछे (भीतर) की ओर रहें। अब दोनों पैरों को पीछे ले जाकर पंजों के बल हूजिए और हाथों को दोनों कोहनियों नाभि के दोनों तरफ लगाकर छाती और सिर को आगे की ओर दबाते हुए पैरों को जमीन से ऊपर उठाने का प्रयत्न कीजिए।

जब पैर जमीन से उठा कर कोहनियों के समानान्तर आ जायं तो सिर और छाती को भी सीधा कर दीजिए। सारा शरीर हाथों की कोहनियों पर सीधा आकर तुल जाना चाहिए।

यह आठ आसन ऐसे हैं जो अधिक कष्ट साध्य न होते हुए भी मर्मों और संधियों पर प्रभाव डालने वाले हैं। शास्त्रों में इनकी विशेष प्रशंसा है।

इन सब के द्वारा जो लाभ होते हैं उनका सम्मिश्रित लाभ सूर्य नमस्कार से होता है। यह एक ही आसन कई आसनों के मिश्रण से बना है उनका परस्पर ऐसा क्रमवत् तारतम्य है कि अलग अलग आसनों की अपेक्षा यह एक ही आसन अधिक लाभप्रद सिद्ध होता है।

हम गायत्री साधकों को बहुधा सूर्य नमस्कार करने की ही सलाह देते रहते हैं। हमारे अनुभव में सूर्य नमस्कार के लाभ अधिक महत्व पूर्ण रहे हैं। किन्तु जो कर सकते हों वे उपरोक्त आठ आसनों को भी करें। वे बड़े लाभदायक हैं।





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