गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

तीन बन्ध

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मूल बन्ध
— प्राणायाम करते समय गुदा के छिद्र को सिकोड़ कर ऊपर की ओर खींचे रखना मूल बन्ध कहलाता है। गुदा को संकुचित करने से अपान स्थिर रहता है। वीर्य का अधः प्रवाह रुक कर स्थिरता आती है। प्राण की अधोगति रुक कर ऊर्ध्वगति होती है। मूलाधार स्थिति कुण्डलिनी में मूलबन्ध से चैतन्यता उत्पन्न होती है। आंतें बलवान होती हैं, मलावरोध नहीं होता, रक्त संचार की गति ठीक रहती है, अपान और कूर्म दोनों पर ही मूल बन्ध का प्रभाव पड़ता है। वे जिन तन्तुओं में बिखरे हुए फैले रहते हैं उनका संकुचन होने से यह बिखरापन एक केन्द्र पर एकत्रित होने लगता है।

जालन्धर बन्ध
— मस्तक को झुका कर ठोड़ी को कण्ठ कूप (कण्ठ में पसलियों के जोड़ पर जो गड्ढा है उसे कण्ठ कूप कहते हैं) में लगाने को जालन्धर बन्ध कहते हैं। जालन्धर बन्ध से श्वास प्रश्वास क्रिया पर अधिकार होता है। ज्ञान तन्तु बलवान होते हैं। हठयोग में बताया गया है कि इस बन्ध के सोलह स्थान की नाड़ियों पर प्रभाव पड़ता है। 1-पादांगुष्ठ, 2-गुल्फ, 3-घुटने, 4-जंघा, 5-सीवनी, 6-लिंग, 7-नाभि, 8-हृदय, 9-ग्रीवा, 10-कण्ठ, 11-लम्बिका, 12-नासिका, 13-भ्रू, 14-कपाल, 15-मूर्धा और 16-ब्रह्म रंध्र, यह सोलह स्थान जालन्धर बन्ध के प्रभाव क्षेत्र हैं। विशुद्ध चक्र के जागरण में जालन्धर बन्ध से बड़ी सहायता मिलती है।

अड्डियान बंध — पेट में स्थिति आंतों को पीठ की ओर खींचने की क्रिया को उड्डियान बन्ध कहते हैं पेट को ऊपर की ओर जितना खींचा जा सके उतना खींच कर उसे पीछे की ओर पीठ से चिपका देने का प्रयत्न इस बन्ध में किया जाता है। इसे मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाला कहा गया है।

जीवनी शक्ति को बढ़ाकर दीर्घायु तक जीवन स्थिर रखने का लाभ उड्डियान से मिलता है। आंतों की निष्क्रियता दूर होती है। अंत्र पुच्छ, जलोधर, पाण्डु, यकृत वृद्धि, बहुमूत्र सरीखे उदर तथा मूत्राशय के रोगों में इस बन्ध से बड़ा लाभ होता है। नाभि स्थित समान और कृकल प्राणों में स्थिरता तथा वात, पित्त, कफ की शुद्धि होती है। सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है और स्वाधिष्ठान चक्र में चेतना आने से वह स्वल्प श्रम से ही जागृति होने योग्य हो जाते हैं।





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