मनोमय कोश की स्थिरता एवं एकाग्रता के लिये जप का साधन बड़ा ही उपयोगी है। इसकी उपयोगिता निर्विवाद है कि सभी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, माला की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। जप करने से मन की प्रवृत्तियों को एक ही हेतु में लगा देना सरल हो जाता है।
कहते हैं कि एक बार एक मनुष्य ने किसी भूत को सिद्ध कर लिया। भूत बड़ा बलवान था उसने कहा मैं तुम्हारे वश में आ गया, ठीक है, जो आज्ञा मिलेगी सो करूंगा, पर मुझ से बेकार नहीं बैठा जाता। यदि मैं बेकार रहा तो आप को ही खा जाऊंगा। यह मेरी शर्त अच्छी तरह समझ लीजिये। उस आदमी ने भूत को बहुत से काम बताये उसने थोड़ी-थोड़ी देर में सब काम कर दिये। भूत की बेकारी से उत्पन्न होने वाला संकट उस सिद्ध को बेतरह परेशान कर रहा था। तब वह दुखी होकर अपने गुरु के पास गया। गुरु ने उस सिद्ध को बताया कि आंगन में एक श्वांस गाढ़ दिया जाय और भूत से कह दिया जाय कि जब तक दूसरा काम न बताया जाया करे तब तक उस बांस पर बार-बार चढ़ें और बारबार उतरे। यह काम मिल जाने पर भूत से काम लेते रहने की भी सुविधा हो गई और सिद्ध के आगे उपस्थित रहने वाला संकट हट गया।
मन ऐसा ही भूत है जो जब भी निरर्थक बैठता है तभी कुछ न कुछ खुराफात करता है। इसलिए यह जब भी काम से छुट्टी पावें तभी इसे जप पर लगा देना चाहिए। जप केवल समय काटने के लिए ही नहीं है वरन् वह एक बड़ा ही उत्पादक एवं निर्माणात्मक मनोवैज्ञानिक श्रम है। निरन्तर पुनरावृत्ति करते रहने से मन में उस प्रकार का अभ्यास एवं संस्कार बन जाता है जिससे वह स्वभावतः उसी ओर चलने लगता है।
पत्थर बार-बार रस्सी की रगड़ लगने से उसमें गड्ढा पड़ जाता है। पिंजड़े में रहने वाला कबूतर, बाहर निकाल देने पर भी लौटकर उसी में वापिस आ जाता है। गाय को जंगल में छोड़ दिया जाय तो भी वह रात को स्वयंमेव लौट आती है। निरन्तर के अभ्यास से मन भी ऐसा अभ्यस्त हो जाता है कि अपने दीर्घ काल तक सेवन किये गये कार्यक्रम में अनायास ही प्रवृत्त हो जाता है।
अनेक निरर्थक कल्पना प्रपंचों में उछलते-कूदते फिरने की अपेक्षा आध्यात्मिक भावना की एक सीमित परिधि में भ्रमण करने के लिए जप की प्रक्रिया बड़ी ही उत्तम है। दीर्घ काल तक निरन्तर जप का अभ्यास करने से मन एक ही दिशा में प्रवृत्त रहने लगता है। आत्मिक क्षेत्र में मन का लगा रहना उस दिशा में एक दिन पूर्ण सफलता प्राप्त होने का सुनिश्चित लक्षण है। मन रूपी भूत बड़ा बलवान है। यह सांसारिक कार्यों को भी बड़ी सफलता पूर्वक करता है और जब आत्मिक क्षेत्र में जुट जाता है तो भगवान के सिंहासन को हिला देने में भी नहीं चूकता मन की उत्पादक, रचनात्मक एवं प्रेरक शक्ति इतनी विलक्षण है कि उसके लिए संसार की कोई वस्तु असम्भव नहीं। भगवान को प्राप्त करना भी उसके लिए बिलकुल सरल है। कठिनाई केवल एक नियत क्षेत्र में जमने की ही है सो जप के व्यवस्थित विधान से वह भी दूर हो जाती है।
हमारा मन कैसा ही उच्छृंखल क्यों न हो पर जब उसको बार-बार किसी भावना पर केन्द्रित किया जाता रहेगा तो कोई कारण नहीं कि कालान्तर से वह उसी प्रकार का न बनने लगे। लगातार प्रयत्न करने से सरकस में खेल दिखाने वाले बन्दर, सिंह, बाघ, रीछ जैसे उद्दण्ड जानवर मालिक की मर्जी का काम करने लगते हैं, उसके इशारे पर नाचते हैं, तो कोई कारण नहीं कि चंचल और कुमार्गगामी मन को वश में करके इच्छानुवर्ती न बनाया जा सके। पहलवान लोग नित्य प्रति अपनी नियत मर्यादा में, गिनती में, डंड बैठक आदि करते हैं उनकी इस क्रिया पद्धति से उनका शरीर दिन-दिन हृष्ट-पुष्ट होता जाता है और एक दिन वे अच्छे बलवान बन जाते हैं। नित्य का जप एक आध्यात्मिक व्यायाम है। जिससे आत्मिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ सूक्ष्म शरीर को पहलवान बनाने में, महत्वपूर्ण सहायता मिलती है।
एक एक बूंद जमा करने से घड़ा भर जाता है चींटी एक एक दाना ले जाकर अपने बिलों में बनो अनाज जमा लेती है। एक एक अक्षर पढ़ने से थोड़े दिनों में विद्वान बना जा सकता है। एक एक कदम चलने से लम्बी मंजिलें पार हो जाती हैं, एक एक पैसा जोड़ने से खजाने जमा हो जाते हैं, एक एक तिनका मिलने से मजबूत रस्सी बन जाती है, जप में भी यही होता है। माला का एक एक दाना फेरने से बहुत कुछ जमा हो जाता है, और इतना जमा हो जाता है कि उससे आत्मा का कल्याण हो जाता है इसीलिए योग ग्रन्थों में जप को यज्ञ बताया गया है। उसकी बड़ी महिमा गाई है और आत्म मार्ग पर चलने की इच्छा करने वाले पथिकों के लिए जप करने का कर्तव्य आवश्यक रूप से निर्धारित किया गया है।
गीता के अध्याय 10 श्लोक 25 में कहा गया है कि ‘‘यज्ञो में जप यज्ञ श्रेष्ठ है।’’ मनुस्मृति में अध्याय 2 श्लोक 86 में बताया गया कि ‘‘होम’’ बलिकर्म, श्राद्ध, अतिथि सेवा, पाक यज्ञ, विधि-यज्ञ, दशपौर्णमासादि यज्ञ सब मिल कर भी जप यज्ञ के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होते।’’ महर्षि भारद्वाज ने गायत्री व्याख्या में कहा है कि ‘‘समस्त यज्ञों में जप यज्ञ अधिक श्रेष्ठ है। अन्य यज्ञों में हिंसा होती है पर जप यज्ञ में नहीं है। जितने कर्म, यज्ञ, दान, तप हैं सब जप यज्ञ की सोलहवीं कला के समान भी नहीं होते। समस्त पुण्य साधनों में जप यज्ञ सर्व श्रेष्ठ हैं।’’ इस प्रकार के अगणित प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध हैं। इन शास्त्र वचनों में जप यज्ञ की उपयोगिता एवं महत्ता का बहुत जोर प्रतिपादन किया गया है। कारण यह है कि जप मन को वश में करने का रामवाण अस्त्र है। और यह सर्व विदित तथ्य है कि मन को वश में करना इतनी बड़ी सफलता है कि उसकी प्राप्ति होने पर जीवन को धन्य माना जा सकता है। समस्त आत्मिक और भौतिक सम्पदाएं संयत मन से ही तो उपलब्ध की जाती हैं।
जप यज्ञ के संबंध में कुछ आवश्यक जानकारियां नीचे दी जाती हैं—
1—जप के लिए प्रातःकाल एवं ब्राह्म मुहूर्त काल सर्वोत्तम है। दो घण्टे रात रहे से सूर्योदय तक ब्राह्म मुहूर्त कहलाता है। सूर्योदय से दो घण्टे दिन चढ़े तक
प्रातः काल होता है। प्रातःकाल से भी ब्राह्म मुहूर्त अधिक श्रेष्ठ है।
2—जप के लिए पवित्र एकान्त स्थान चुनना चाहिए मन्दिर, तीर्थ, बगीचा, जलाशय आदि एकान्त के शुद्ध स्थान जप के लिए अधिक उपयुक्त हैं। घर में
जप करना हो तो भी ऐसी जगह चुननी चाहिए जहां अधिक खटपट न होती हो।
3—संध्या को जप करना हो तो सूर्य अस्त से एक घण्टा उपरान्त तक जप समाप्त कर लेना चाहिए। प्रातःकाल के दो घण्टे और सायंकाल का एक घण्टा
इन तीन घण्टों को छोड़कर रात्रि के अन्य भागों में गायत्री मंत्र नहीं जपा जाता।
4—जप के लिये शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से बैठना चाहिए। साधारणतः स्नान द्वारा ही शरीर की शुद्धि होती है पर किसी विवशता, ऋतु प्रतिकूलता या
अस्वस्थता की दशा में हाथ मुंह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछ कर भी काम चलाया जा सकता है। नित्य धुले वस्त्रों की व्यवस्था न हो सके तो
रेशमी या ऊनी वस्त्रों से काम लेना चाहिए।
5—जप के लिए बिना बिछाये न बैठना चाहिए। कुश का आसन, चटाई आदि घास के बने आसन अधिक उपयुक्त हैं। पशुओं के चमड़े, मृगछाला आदि
आजकल उनकी हिंसा से ही प्राप्त होते हैं इसलिये वे निषिद्ध हैं।
6—पद्मासन से, पालती मारकर, मेरुदंड को सीधा रखते हुए जप के लिए बैठना चाहिए। मुंह प्रातःकाल पूर्व की ओर और सांयकाल पश्चिम की ओर रहे।
7—माला तुलसी की या चंदन की लेनी चाहिये। कम से कम एक माला नित्य जपनी चाहिए। माला पर जहां बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो वहां हाथ
को कपड़े से या गौमुखी से ढक लेना चाहिये।
8—माला जपते समय सुमेरु (माला के प्रारम्भ का सबसे बड़ा केन्द्रीय दाना) को उल्लंघन न करना चाहिये। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों
से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिये।
9—लम्बे सफर में, स्वयं रोगी हो जाने पर, किसी रोगी की सेवा में संलग्न रहने पर, जनन मृत्यु का सूतक लग जाने पर, स्नान आदि पवित्रताओं की
सुविधा नहीं रहती। ऐसी दशा में मानसिक जप चालू रखना चाहिये। मानसिक जप बिस्तर पर पड़े-पड़े, रास्ता चलते या किसी भी पवित्र अपवित्र दशा
में किया जा सकता है।
10—जप इस प्रकार करना चाहिये कि कंठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें परन्तु समीप बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मंत्र को सुन न सके। मल
मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिए साधना के बीच में ही उठना पड़े तो शुद्ध जल से साफ होकर तब दुबारा बैठना चाहिये। जप काल में यथा
संभव मौन रहना उचित है। कोई बात कहना आवश्यक हो तो इशारे से कह देनी चाहिये।
12—जप नियत समय पर, नियत संख्या में, नियत स्थान पर, शान्त चित्त एवं एकाग्र मन से करना चाहिये। पास में जलाशय या जल से भरा पात्र होना
चाहिये। आचमन के पश्चात् जप आरम्भ करना चाहिये। किसी दिन अनिवार्य कारण से जप स्थगित करना पड़े तो दूसरे दिन प्रायश्चित्य स्वरूप एक
माला अधिक जपनी चाहिये।
13—जप के लिए गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है। गुरु द्वारा ग्रहण किया हुआ मंत्र ही सफल होता है। स्वेच्छा पूर्वक मन चाही विधि से, मन चाहा मंत्र, जपने से
विशेष लाभ नहीं होता। इसलिए अपनी स्थिति के अनुकूल आवश्यक विधान किसी अनुभवी पथ प्रदर्शक से मालूम कर लेना चाहिए।
उपरोक्त नियमों के आधार पर किया हुआ गायत्री जप मन को वश में करने एवं मनोमय कोष को सुविकसित करने में बड़ा ही महत्वपूर्ण सिद्ध होता है।