गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

स्वर योग

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विज्ञानमय कोश वायु प्रधान कोश होने के कारण इस स्थिति में वायु संस्थान विशेष रूप से सजग रहता है। इस वायु तत्व पर यदि अधिकार प्राप्त कर लिया जाय तो अनेक प्रकार से अपना हित सम्पादन किया जा सकता है।

स्वर शास्त्र के अनुसार श्वास प्रश्वास के मार्गों को नाड़ी कहते हैं। शरीर में ऐसी नाड़ियों की संख्या 7200 है। इनको नसें न समझना चाहिए, स्पष्टतः यह प्राण वायु के आवागमन-मार्ग हैं। नाभि में इसी प्रकार की एक नाड़ी कुंडली के आकार में है, जिसमें से

1-  इडा,
2-  पिंगला,
3-  सुषुम्ना,
4-  गांधारी,
5-  हस्त जिह्वा,
6-  पूषा,
7-  यशस्वनी,
8-  अलंबुषा,
9-  कुहू   तथा
10-शंखिनी

नामक दस नाड़ियां निकलती हैं और यह शरीर के विभिन्न भागों की ओर चली जाती हैं इसमें से पहली तीन प्रधान हैं। इडा को ‘चन्द्र’ कहते हैं जो बांए नथुने में है। पिंगला को ‘सूर्य’ कहते हैं यह दाहिने नथुने में है। ‘सुषुम्ना’ को 'वायु' कहते हैं जो दोनों नथुनों के मध्य में है। जिस प्रकार संसार में सूर्य और चन्द्र नियमित रूप से अपना अपना काम करते हैं, उसी प्रकार इडा पिंगला भी इस जीवन में अपना अपना कार्य नियमित रूप से करती हैं। इन तीनों के अतिरिक्त अन्य सात प्रमुख नाड़ियों के स्थान इस प्रकार हैं:—

पूषा- नाक में,
हस्त जिह्वा- दाहिनी आंख में,
पूषा- दाहिने कान में,
यशस्विनी- बांए कान में,
अलंबुषा- मुख में,
कुहू- लिंग देश में  और
शंखनी- गुदा में

इस प्रकार शरीर के दसों द्वारों में दस नाड़ियां हैं।

हठयोग में नाभि कन्द अर्थात् कुंडलिनी का स्थान गुदा द्वार से लिंग देश की ओर दो अंगुल हठ कर मूलाधार चक्र में माना गया है। स्वर योग में वह स्थिति माननीय न होगी। स्वर-योग शरीर शास्त्र से संबंध रखता है और शरीर की नाभि, मध्य केन्द्र-गुदा मूल में नहीं, वरन् उदर की टुण्डी में ही हो सकती है। इसलिये यहां नाभि देश का तात्पर्य उदर की टूण्डी मानना ही ठीक है। श्वास क्रिया का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उदर से ही है। इसलिए प्राणायाम द्वारा उदर संस्थान तक प्राण वायु को ले जाकर नाभि केन्द्र से इस प्रकाश घर्षण किया जाता है कि नाभि केन्द्र की सुप्त की शक्तियों का जागरण हो सके।

चन्द्र और सूर्य की अदृश्य रश्मियों का प्रभाव स्वरों पर पड़ता है। सब जानते हैं कि चन्द्रमा का गुण शीतल और सूर्य का उष्ण है। शीतलता से स्थिरता, गंभीरता, विवेक प्रभृति गुण उत्पन्न होते हैं और उष्णता से, तेज, शौर्य चंचलता, उत्साह क्रियाशीलता बल आदि गुणों का आविर्भाव होता है। मनुष्य को सांसारिक जीवन में शान्ति पूर्ण और अशान्ति पूर्ण दोनों ही तरह के काम करने पड़ते हैं किसी भी काम का अन्तिम परिणाम उसके आरम्भ पर निर्भर है, इसलिये विवेकी पुरुष अपने कामों को आरम्भ करते समय यह देख लेते हैं कि हमारे शरीर और मन की स्वाभाविक स्थिति इस प्रकार के काम करने के अनुकूल है कि नहीं। एक विद्यार्थी को रात्रि में उस समय पाठ याद करने के लिए दिया जाय जब कि उसकी स्वाभाविक स्थिति निद्रा चाहती है, तो वह पाठ को अच्छी तरह याद न कर सकेगा। यदि वही पाठ उसे प्रातःकाल की अनुकूल स्थिति में दिया जाय, तो आसानी से सफलता मिल जायगी। ध्यान, भजन, पूजा, मनन, चिन्तन के लिए एकान्त की आवश्यकता है, किन्तु उत्साह भरने और युद्ध के लिए कोलाहल पूर्ण वातावरण की बाजों की घोर ध्वनि की आवश्यकता है। ऐसी उचित स्थितियों में किए कार्य अवश्य ही फलीभूत होते हैं। इसी दृष्टिकोण के आधार पर स्वर योगियों ने आदेश किया है कि विवेक पूर्ण और स्थायी कार्य चन्द्र स्वर में किये जाने चाहिए जैसे—विवाह, दान, मन्दिर, कुंआ, तालाब बनाना, नवीन वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण बनवाना, शान्ति के काम, पुष्टि के काम, शपथ खाना, औषधि देना, रसायन बनाना, मैत्री, व्यापार बीज बोना, दूर की यात्रा, विद्यारम्भ धर्म यज्ञ दीक्षा मन्त्र, विद्याभ्यास योग क्रिया आदि यह सब कार्य ऐसे हैं जिनमें अधिक गम्भीरता और बुद्धि पूर्वक कार्य करने की आवश्यकता है, इसलिये इनका आरम्भ भी ऐसे ही समय में होना चाहिये, जब शरीर के सूक्ष्म-कोश चन्द्रमा की शीतलता को ग्रहण कर रहे हों।

उत्तेजित और आवेश एवं जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनके लिये सूर्य स्वर उत्तम कहा गया है। जैसे—क्रूर कर्म स्त्री भोग, भ्रष्ट कार्य, युद्ध करना देश का ध्वंस करना, विष खिलाना, शिकार खेलना, मद्य पीना, हत्या करना, काठ, पत्थर, पृथ्वी, रत्न, आदि को तोड़ना, तन्त्र विद्या, जुआ, चोरी व्यायाम, नदीपार करना आदि। यहां उपरोक्त कठोर कर्मों का समर्थन या निषेध नहीं है। शास्त्रकार ने तो एक वैज्ञानिक की तरह विश्लेषण कर दिया है कि ऐसे कार्य उस वक्त अच्छे होंगे जब सूर्य की उष्णता के प्रभाव से जीवन तत्व उत्तेजित हो रहा हो। शान्तिपूर्ण मस्तिष्क से भली प्रकार ऐसे कार्यों को कोई व्यक्ति कैसे कर सकेगा?

कुछ क्षण के लिये जब दोनों नाड़ी (सुषुम्ना) चलती है जब प्रायः शरीर संधि अवस्था में होता है। यह संध्या काल है। दिन के उदय और अस्त को भी संध्या काल कहते हैं, इस समय जन्म या मरण काल के समान पारलौकिक भावनाएं मनुष्य में जागृत होती हैं, और संसार की ओर से विरक्ति, उदासीनता एवं अरुचि होने लगती है। स्वर की संध्या से भी मनुष्य का चित्त सांसारिक कार्यों से कुछ उदासीन हो जाता है और अपने वर्तमान अनुचित कार्यों पर पश्चाताप स्वरूप खिन्नता प्रकट करता हुआ, कुछ आत्म चिन्तन की ओर झुकता है। वह क्रिया बहुत ही सूक्ष्म होती है, अल्प काल के लिये आती है इसलिये हम अच्छी तरह पहचान भी नहीं पाते। यदि इस समय परमार्थ चिन्तन और ईश्वराधन का अभ्यास किया जाय तो निस्संदेह उसमें बहुत उन्नति हो सकती है, किन्तु सांसारिक कार्यों के लिये यह स्थिति उपयुक्त नहीं है, इसीलिये सुषुम्ना स्वर में आरम्भ होने वाले कार्यों का परिणाम अच्छा नहीं होता, वे अक्सर अधूरे या असफल रह जाते हैं। सुषुम्ना की दशा में मानसिक विकार दब जाते हैं और गहरे आत्मिक भाव का थोड़ा बहुत उदय होता है, इसलिये इस समय में दिये हुए शाप या वरदान अधिकांश फलीभूत होते हैं क्योंकि उन भावनाओं के साथ आत्म तत्व का बहुत कुछ सम्मिश्रण होता है। इडा शीत ऋतु है तो पिंगला ग्रीष्म ऋतु। जिस प्रकार शीत ऋतु के महीनों में शीत की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार चन्द्र नाड़ी शीतल होती है और ग्रीष्म ऋतु के महीनों में जिस प्रकार गर्मी की प्रधानता रहती है, उसी प्रकार सूर्य नाड़ी में उष्णता एवं उत्तेजना का प्राधान्य होता है।






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