गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

पंच मुखी साधना का उद्देश्य

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मोटी दृष्टि से देखने में एक शरीर के अन्दर एक जीव मालूम पड़ता है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि एक ही आवरण में पांच चैतन्य सत्ताएं मौजूद हैं। देखा जाता है कि मनुष्य में अनेक परस्पर विरोधी तत्व विद्यमान रहते हैं। जब जो तत्व प्रबल होता है उसके आधार पर वह अपनी दृष्टि के अनुसार पूर्ण तत्परता से काम करता है।

देखा जाता है कि एक मनुष्य बड़ा लोभी है, खाने और पहनने में बड़ी कंजूसी करता है, पैसे को दांत से दबा कर पकड़ता है परन्तु वही व्यक्ति अपने लड़के लड़कियों की विवाह शादी का अवसर आने पर इतनी फिजूल खर्ची करता है कि धन को होली की तरह फूंक देता है। यह परस्पर विरोधी बातें एक ही व्यक्ति में समय समय पर प्रकटित होती हैं।

एक समय में एक व्यक्ति बड़ा दयालु होता है दूसरों के साथ बड़ी उदारता एवं सज्जनता का व्यवहार करता है परन्तु दूसरे समय में किसी के प्रति इतना अनुदार एवं दुर्जन बन जाता है कि इन दो प्रकार की भिन्नताओं में संगति बिठाना कठिन हो जाता है। एक ही व्यक्ति बहुत संयमी एवं सदाचार होता है पर कभी कभी उसका वह व्यक्तित्व प्रबल हो जाता है जिसके कारण वह दुराचार में लिप्त हो जाता है। इसी प्रकार आस्तिकता नास्तिकता, सुधारकता रूढ़िवादिता, दयालुता-निष्ठुरता, सदाचार-दुराचार, सत्य-असत्य, लोभ-त्याग, मूर्खता-बुद्धिमत्ता, निष्कपटता-वंचकता के परस्पर विरोधी रूप समय समय पर मनुष्यों में प्रकट होते रहते हैं।

इन विसंगतियों को देखकर अक्सर ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि अमुक व्यक्ति वास्तव में एक प्रकार का है, दूसरा रूप तो उसने धोखा देने के लिए बनाया है। प्रायः बुराई के आधार पर मनुष्य का वास्तविक रूप माना जाता है। और उसमें जो अच्छाई थी उसे ढोंग कह दिया जाता है। कोई व्यक्ति दानी भी है और चोर भी तो आमतौर पर उसे सब लोग चोर मानेंगे और यह खयाल करेंगे कि दान का ढोंग तो उसने दूसरों को भ्रम में डालने के लिए रचा है। परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। कोई व्यक्ति केवल मात्र आडंबर के लिए अपना समय, श्रम, धन, आदि अधिक मात्रा में खर्च नहीं कर सकता। जब किसी दशा में विशेष तत्परता एवं श्रद्धा होती है तभी उसके लिए अधिक त्याग एवं श्रम किया जाना सम्भव है।

बात यह है कि एक ही शरीर में कई व्यक्तित्वों का निवास होता है। एक घोंसले में कई बच्चे साथ साथ रहते हैं परन्तु बाहर से घोंसला एक ही दिखाई पड़ता है, गूलर के फल के भीतर कितने भुनगे उड़ते रहते हैं पर बाहर से उनकी प्रतीति नहीं होती उसी प्रकार इस देही के अन्दर कई प्रकृतियों स्वभावों और रुचियों के अलग अलग व्यक्तित्व रहते हैं। एक घर में रहने वाले कई व्यक्तियों की प्रकृति, रुचि और कार्य प्रणाली अलग-अलग होती है इसी तरह मनुष्य की अन्तरंग प्रवृत्तियां भी अनेक दिशाओं में चलती रहती हैं।

सिर एक है पर उसमें नाक, कान, आंख, मुख, त्वचा की पांच इन्द्रियां अपना अपना अलग काम करती रहती हैं। हाथ एक है पर उसमें पांच उंगलियां लगी रहती हैं पांचों का काम अलग अलग है। वीणा एक है पर उसमें कई तार होते हैं। इन तारों की संतुलित झंकार से ही कोई स्वर लहरी बजती है। हाथ की पांचों उंगलियों के सम्मिलित प्रयत्न से कोई काम पूरा हो सकता है। सिर में यदि पांचों ज्ञानेन्द्रिय जुड़ी न हों तो मस्तक का कोई मूल्य न रह जाय। तब खोपड़ी भी चूतड़ की तरह एक साधारण अंग मात्र रह जायगी। विसंगतियों का एकीकरण ही जीवन है, इन भिन्नताओं के कारण ही जीवन में चेतना, क्रियाशीलता, विचारकता, मंथन और प्रगति का संचार होता है।

सूक्ष्म दर्शी ऋषियों ने अपने योग बल से जाना कि मनुष्य के शरीर में पांच प्रकार के व्यक्तित्व पांच चेतना, पांच तत्व विद्यमान हैं। इन्हें पांच कोश कहते हैं। शरीर पांच तत्वों का बना है। इन तत्वों की सूक्ष्म चेतना ही पंच कोश कहलाती है। यह पांचों पृथक पृथक होते हुए भी एक ही मूल केन्द्र से जुड़े हुए हैं। गायत्री के पांच मुखों का अलंकार इसी आधार पर है। मानव प्राणी की पांच प्रकृतियां हैं, यही गायत्री के पांच मुख हैं। यह पांचों मुख एक ही गर्दन पर जुड़े हुए हैं इसका तात्पर्य है कि पांचों कोश एक ही आत्मा से सम्बन्धित हैं।

महाभारत को आध्यात्मिक गूढ़ रहस्य के अनुसार पांच पांडव-शरीरस्थ पांच कोश ही है। पांचों की एक ही स्त्री द्रोपदी है। पांच कोशों की केन्द्रीय शक्ति एक आत्मा है। पांचों पांडवों की अलग अलग प्रकृति हैं, पांच कोशों की प्रवृत्ति भी अलग अलग हैं। इस पृथकता को जब एक रूपता में संतुलित समस्वरता में ढाल लिया जाता है तो उनकी शक्ति अजय हो जाती है। पांचों पांडवों की एक पत्नी, एक निष्ठा, एक श्रद्धा, एक आकांक्षा हो जाती है तो उनका रथ हांकने के लिए स्वयं भगवान को आना पड़ता है और अन्त में उन्हें ही विजय श्री मिलती है।

पांच कोशों को मनुष्य की पंचधा प्रकृति भी कहते हैं।

1— शरीराध्यास
2— गुण
3— विचार
4— अनुभव
5— सत्

इन पांच चेतनाओं को ही अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश कहा जाता है। यही गायत्री के पांच मुख हैं।

साधारण तथा इन पांचों में एकस्वरता नहीं होती। कोई किधर को चलता है कोई किधर को। स्वास्थ्य, योग्यता, बुद्धि, रुचि और लक्ष्य में एकता न होने के कारण मनुष्य ऐसे विलक्षण कार्य करता रहता है जो किसी एक दिशा में उसे नहीं चलने देते। किसी रथ में पांच घोड़े जुते हों, वे पांचों अपनी इच्छानुसार अपनी इच्छित दिशा में रथ को खींचें तो उस रथ की बड़ी दुर्दशा होगी। कभी वह एक फर्लांग पूरब को चलेगा तो कभी एक मील उत्तर को जायगा कोई घोड़ा उसे पश्चिम को घसीटेगा तो काई उत्तर की ओर खींचेगा। इस प्रकार रथ किसी निश्चित लक्ष पर न पहुंच सकेगा, घोड़ों की शक्तियां आपस में एक दूसरे के प्रयत्न को रोकने में खर्च होती रहेंगी और इस खींच तान में रथ बेतरह टूटता फूटता रहेगा।

यदि घोड़े एक निर्धारित दिशा में चलते, सबकी शक्ति मिलकर एक शक्ति बनती तो बड़ी तेजी से, बड़ी आसानी से वह रथ निर्दिष्ट स्थान तक पहुंच जाता। वीणा के तार बिखरे हुए हों तो उनको बजाने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता पर यदि वे एक स्वर केन्द्र पर मिला लिये जायं और निर्धारित लहरी में उन्हें बजाया जाय तो हृदय को प्रफुल्लित करने वाला मधुर संगीत निकलेगा। जीवन में परस्पर विरोधी, इच्छाएं, आकांक्षाएं, रुचियां, प्रकृतियां, प्रवृत्तियां, भावनाएं, मान्यताएं, इस प्रकार क्रियाशील रहती हैं जिससे प्रतीत होता है कि एक ही देह में पांच आदमी बैठे हैं और पांचों अपनी अपनी मर्जी चला रहे हैं, जब जिसकी बन आती है तब वह अपनी ढपली पर अपना राग बजाता है।

अध्यात्म विद्या के ज्ञाताओं ने इस पृथकता को विसंगति को, एक स्थान पर केन्द्रित करने, एक सूत्र में सम्बन्धित करने के लिए पंच कोशों की, पंचमुखी गायत्री साधना का संविधान प्रस्तुत किया है। गायत्री के चित्र में पांच मुख दिखाये गये हैं। पांचों की दिशाएं, आकृतियां, चेष्टाएं देखने में अलग मालूम पड़ती हैं परन्तु वे एक ही मूल केन्द्र से सम्बद्ध होने के कारण एक स्वरता धारण किये हुए हैं। यही आदर्श गायत्री साधक का होना चाहिए उसकी दिनचर्या, श्रमशीलता, योग्यता, विचार धारा, अभिरुचि एवं आकांक्षा एक ही निर्धारित लक्ष्य से संलग्न रहनी चाहिए। पांडव पांच होते हुए भी एक थे। एक ही ‘पांडव’ शब्द कह देने से युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव पांचों का बोध हो जाता है। ऐसी ही एकता हमारे भीतरी भाग में रहनी चाहिए।

डाक्टर जानते हैं कि रक्त में विजातीय पदार्थों का प्रवेश हो जाय तो अनेक रोग घेर लेते हैं। ओझा लोग जानते हैं कि देह में भूत घुस आवे, एक शरीर में दो सत्ताएं प्रवेश कर जायं तो मनुष्य रोगी या उन्माद ग्रस्त हो जाता है। घर में विरोधी स्वभाव की बहुएं आ जायं तो परिवार में भारी क्लेश और कलह उत्पन्न हो जाता है। जब तक परस्पर विरोधी तत्व मनोभूमि में काम करते रहेंगे, उनकी दिशाएं पृथक पृथक रहेंगी तब तक कोई व्यक्ति चैन से नहीं बैठ सकता, उसके अन्तस्तल में घोर अशान्ति घुसी रहेगी। आमतौर से लोग इसी अशांति में ग्रसित रहते हैं और पर्याप्त साधन सम्पन्न होते हुए भी मनुष्य जन्म जैसे अमूल्य सौभाग्य से कुछ लाभ नहीं उठा पाते। आन्तरिक विरोधों से उत्पन्न हुई गुत्थियां ही उनके लिए एक समस्या बन जाती हैं और मृत्यु समय तक वे सुलझ नहीं पातीं।

गायत्री की पंच मुखी साधना का उद्देश्य आन्तरिक विरोधों को मिटाकर उनमें समस्वरता की स्थापना करना है। अन्तर में सत् असत् की रस्साकशी होती रहती है, देवासुर संग्राम, राम रावण युद्ध, महाभारत होता रहता है। यह कलह तभी शांत हो सकता है जब एक पक्ष अशक्त हो जाय। असुर का-असत् का, पक्ष ग्रहण करके यदि सत् को पूर्णतया कुचलने का प्रयत्न किया जाय तो यह सम्भव भी नहीं क्योंकि असुरता स्वयं एक विपत्ति होने के कारण अपने आप अनेक संकट उत्पन्न कर लेती है। दूसरे सत् की स्थिति आत्मा में इतनी सुदृढ़ है कि उसे पूर्णतया कुचलना सम्भव नहीं है इसलिए आन्तरिक संघर्षों की समाप्ति का एक ही उपाय है कि—सत् का समर्थन एवं पोषण करके उसे इतना प्रबल कर लिया जाय कि असत को उससे संघर्ष का साहस ही न हो। लड़ाकू बकरा जब अपने सामने सिंह को खड़ा देखे गो तो उसे लड़ने की हिम्मत ही न होगी। आसुरी तत्व तभी तक प्रबल रहते हैं जब तक कि दैवी तत्व कमजोर होते हैं जब साधन द्वारा सतोगुण को पर्याप्त मात्रा में बढ़ा लिया जाता है तो फिर असुरता अपने हथियार डाल देती है और शान्ति का शासन स्थापित हो जाता है।

पंच कोशों की जो साधना पीछे बताई गई हैं वे मनुष्य की पांच महा शक्तियों को विनाशकारी मार्ग पर जाने से रोकती हैं उन्हें नियंत्रण में लाकर उपयोगी दशा में लगाती हैं। सरकस वाले खूंखार शेर चीतों को जंगल में से पकड़ लाते हैं और उन्हें इस प्रकार सधाते हैं कि वे जानवर किसी प्रकार का नुकसान पहुंचाना तो दूर, उलटे उन सधाने वालों का प्रचुर धन तथा यश देने के माध्यम बन जाते हैं। पांच कोश-पांच शेर हैं, इन्हें सधाने के लिए सरकस वालों की तरह गायत्री साधकों को भी अटूट साहस, अविचल धैर्य एवं सतत् प्रयत्न शीलता को अपनाना होता है। इस साधना का प्रारम्भ काफी कठिनाइयों और निराशाओं से भरा हुआ होता है परन्तु धीरे धीरे सफलता मिलने लगती और गायत्री साधक जब इन पांच महा सिंहों को, पंच कोशों को, वश में कर लेता है तो उसे अनन्त ऐश्वर्य एवं अक्षय कीर्ति का लाभ होता है। सरकस के शेरों की अपेक्षा इन आत्मिक सिंहों की महत्ता अनेक गुनी है, इसीलिए उनके सध जाने पर सरकस वालों की अपेक्षा लाभ भी असंख्य गुने हैं। कायर इस साधना की कल्पना मात्र से डर जाते हैं पर वीरों के लिए आपत्तियों से भरा हुआ परम पुरुषार्थ ही आनन्द दायक होता है।

कोशों के असंतुलित, अविकसित, अनियंत्रित रहने से मानव अन्तःकरण की विषम स्थिति रहती है। उसमें परस्पर विरोधी विचार धाराएं भावनाएं और रुचियां उभरती और दबती रहती हैं। गायत्री साधना से इनमें एकता उत्पन्न होती है और अन्तर के समस्त संकल्प विकल्पों की उधेड़बुन समाप्त होकर एक सुव्यवस्थित गतिशीलता का आविर्भाव होता है। यह व्यवस्थित गतिशीलता जिस दिशा में भी चलेगी उसी दिशा में आशा जनक सफलता मिलेगी।

योग साधन का सबसे बड़ा लाभ मानसिक स्थिति का परिमार्जित हो जाना है। परिमार्जित मनोभूमि एक प्रकार का कल्प वृक्ष है जिसके कारण वह सभी वस्तुएं प्राप्त की जाती हैं जो मानव जीवन के लिए उपयोगी, आवश्यक, लाभदायक एवं आनन्द वर्धक हैं। पांच व्यक्तित्वों को एक व्यक्तित्व में सुसंयुक्त कर देना एक ऐसा महत्वपूर्ण कार्य है जिसके द्वारा अपनी शक्ति पांच गुनी हो जाती है। चूंकि यह केन्द्रीकरण सतोगुण के आधार पर किया जाता है इसलिए सात्विक आत्मबल की प्रचंड अभिवृद्धि से पंचमुखी गायत्री साधना का साधक महामानव, महापुरुष, महा आत्मा बन जाता है।

कीट पतंगों की तरह सभी जीते हैं। आहार, निद्रा, भय, मैथुन की तुच्छ क्रियाओं में संलग्न रह कर सांसे पूरी कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है, इस रीति से तो पशु पक्षी भी जी लेते हैं। इस दृष्टि से तो अन्य जीव, मनुष्य से कहीं अच्छे हैं। उन्हें ईर्ष्या द्वेष, मत्सर, छल, दम्भ, काम, क्रोध, कुढन, असन्तोष, शोक, वियोग, चिन्ता आदि की आन्तरिक अग्नियों में तो हर घड़ी झुलसते रहना नहीं पड़ता। वे अनेक प्रकार के पापों की गठरी तो अपने ऊपर जमा नहीं करते रहते। मनुष्य इन सब बातों में अन्य जीव जन्तुओं की अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहता है। मरते मरते अन्य जीव जन्तु अपने मृत शरीर से दूसरों का कुछ भला कर जाते हैं पर मनुष्य वह भी नहीं कर पाता।

मानव जीवन की जो प्रशंसा और महत्ता है वह उस आत्मिक विशेषताओं के कारण है। यदि वह विशेषताएं आज स्वस्थ रूप में विकसित हों तो ही मनुष्य सच्चे अर्थों में मानव जीवन का लाभ प्राप्त कर सकता है। योग साधना का उद्देश्य व्यक्ति का पूर्ण विकास करना है। उसके भीतर जो अद्भुत शक्तियां छिपी पउ़ी हैं उनको योग द्वारा इतनी उन्नत दशा तक पहुंचाया जाता है कि मनुष्य में देवत्व की गुण आने लगें।

भारतीय जीवन की आदि काल से यह विशेषता रही है कि उसमें उद्देश्यमय, आदर्शयुक्त, परमार्थक जीवन को ही प्रधानता दी गई है। इस देश में उस व्यक्ति को मनुष्य माना जाता रहा है जो उद्देश्यमय आदर्श जीवन जीता है। अज्ञान, अशक्ति और अभाव से संघर्ष करने का व्रत करने वाले ही द्विज कहे जाते हैं। जो द्विज नहीं है अर्थात् जिसने परमार्थिक जीवन का व्रत नहीं लिया है उस स्वार्थी, लोभी, विषयी मनुष्य को शूद्र बताकर निन्दा की है। और कई प्रकार से उसका अर्थ सामाजिक बहिष्कार किया गया है। आज तो व्यापक रूप से शूद्रता फैली हुई है। गुण और स्वभाव की दृष्टि से आज चाण्डालत्व और शूद्रता का विशेष प्रसार हो रहा है।

भारतीय संस्कृति की यह अद्भुत महानता है कि वह अपने हर अनुयायी को यह प्रेरणा देती है कि पशु पक्षियों, कीट पतंगों जैसा शिशनोदर परायण तुच्छ जीवन न जिये वरन् अपना प्रत्येक क्षण महान् आदर्शों की पूर्ति में लगावे। अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को, शरीर निर्वाह की जरूरतों को, कम से कम रखें जिससे उनको कमाने में कम से कम समय और मन देकर बचे हुए अवकाश, बुद्धिबल एवं उत्साह को महानता के सम्पादन में लगाया जा सके।

इस सांस्कृतिक प्रेरणा को ऋतम्भरा प्रज्ञा एवं सद्बुद्धि नाम से पुकारा गया है। इसी को गायत्री कहते हैं। गायत्री मन्त्र में परमात्मा से सद्बुद्धि प्रदान करने की प्रार्थना की गई है। यह सद्बुद्धि प्राचीन काल में अधिकांश भारतवासियों को प्राप्त थी, इसी से इस भूमि को पुण्य भूमि, तपो भूमि, स्वर्गादपि गरीयसी, आदि नामों से सम्बोधन किया जाता था और यहां जन्म लेने के लिए देवता भी इच्छा करते थे जीवन मुक्त आत्माएं ललचा ललचा कर इस देश में अवतार लेने के लिए मुक्ति धाम से वापिस लौट आती थीं। ऋतम्भरा बुद्धि ने ही इस देश को महान मानवों से पाट रखा था। विद्या में, बुद्धि में, बल में, पराक्रम में, विज्ञान में, धन में, स्वास्थ में, सौन्दर्य में, यह देश भरा पूरा था। कारण कि सद्बुद्धि ने भारतवासियों की अन्तः भूमिका को ऐसा परिमार्जित कर दिया था कि उसमें भौतिक एवं आत्मिक शक्तियों का अक्षय भंडार उद्भव होना स्वभाविक ही था।

सद्बुद्धि उन सब कठिनाइयों को नष्ट करती है जो हमारी उन्नति एवं सुख शान्ति में रोड़ा बनती है। सद्बुद्धि उन सब सुविधाओं को बढ़ाती है जो हमें सुसम्पन्न बनाने के लिए आवश्यक हैं। सद्बुद्धि का एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण वैज्ञानिक आधार गायत्री है इस महामन्त्र के एक एक अक्षर में जो गूढ़ ज्ञान भरा हुआ है वह इतना उज्ज्वल है कि उसके प्रकाश में अज्ञान का सारा अन्धकार दूर हो जाता है। इन 24 अक्षरों में ऐसा अद्भुत ज्ञान भंडार भरा हुआ है जिसमें दर्शन, धर्म, नीति, विज्ञान, शिक्षा, शिल्प आदि सभी कुछ पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। इस ज्ञान का अवगाहन करने पर तुच्छ मानव, महामानव बन सकता है।

गायत्री के अक्षरों में ज्ञान भण्डार तो भरा ही हुआ है इसके अतिरिक्त इस महामन्त्र की रचना भी ऐसे विलक्षण ढंग से हुई है कि उसका उच्चारण एवं साधन करने से शरीर और मन के सूक्ष्म केन्द्रों में छिपी हुई अत्यन्त महत्वपूर्ण शक्तियां जागृत होती हैं। जिनके कारण दैवी वरदान की तरह सद्बुद्धि प्राप्त होती है। सद्बुद्धि द्वारा अनेक लाभ उठाना तो सरल है, पर असद् बुद्धि वाले के लिए यह बड़ा कठिन है कि वह अपने आप अपने कुसंस्कारों को हटाकर सुसंस्कारित सद्बुद्धि का स्वामी बन जाय। इस कठिनाई का हल गायत्री महामन्त्र की उपासना द्वारा होता है। जो इस साधना को करते हैं, वे अनुभव करते हैं कि कोई अज्ञात शक्ति रहस्यमय ढंग से उनके मनःक्षेत्र में नवीन ज्ञान, नवीन प्रकाश, नवीन उत्साह, आश्चर्यजनक रीति से बढ़ा रही है।






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