गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

तत्वशुद्धि

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यह सृष्टि पंच तत्वों से बनी हुई है। प्राणियों के शरीर भी इन तत्वों से ही बने हुए हैं। मिट्टी, पानी, हवा, आग और आकाश इन पांच तत्वों का ही यह सब कुछ संप्रसार है। जितनी वस्तुएं दृष्टिगोचर होती हैं या इन्द्रियों द्वारा अनुभव में आती हैं उन सब की उत्पत्ति पंच तत्वों द्वारा हुई है। वस्तुओं का परिवर्तन, उत्पत्ति, विकास तथा विनाश इन तत्वों की मात्रा में परिवर्तन आने से ही होता है।

यह प्रसिद्ध है कि जल वायु का स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है। शीत प्रधान देशों के योरोपियन लोगों का रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य, अफ्रीका के उष्ण प्रदेश वासियों के रंग, रूप, कद, स्वास्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है। पंजाबी, कश्मीरी, बंगाली, मद्रासी, लोगों के शरीर एवं स्वास्थ्य की भिन्नता प्रत्यक्ष है। यह जलवायु का ही अन्तर है।

किन्हीं प्रदेशों में मलेरिया, पीला बुखार, पेचिस, चर्मरोग, फील पांव, कुष्ट आदि रोगों की बाढ़ सी रहती है और किन्हीं स्थानों का जलवायु ऐसा होता है कि वहां जाने पर तपैदिक सरीखे कष्ट साध्य रोग भी अच्छे हो जाते हैं। पशु, पक्षी, घास, अन्न, फल, औषधि आदि के रंग, रूप, स्वास्थ्य, गुण प्रकृति आदि में भी जलवायु के अनुसार अन्तर पड़ता है। इसी प्रकार वर्षा, गर्मी, सर्दी, का तत्व परिवर्तन प्राणियों में अनेक प्रकार सूक्ष्म परिवर्तन कर देता है।

आयुर्वेद शास्त्र में वात, पित्त, कफ का असंतुलन रोगों का कारण बताया गया है।

वात का अर्थ है—वायु,
पित्त का अर्थ है—गर्मी,
कफ का अर्थ है—जल!

पांच तत्वों में पृथ्वी शरीर का स्थिर आधार है। मिट्टी से ही यह देह बनी है और जला देने या गाढ़ देने पर केवल मिट्टी के रूप में ही इसका अस्तित्व बनता है। इसलिए पृथ्वी तत्व तो शरीर का स्थिर आधार होने से वह रोग आदि का कारण नहीं बनता।

दूसरे आकाश का सम्बन्ध मन से, बुद्धि से एवं इन्द्रियों की सूक्ष्म तन्मात्राओं से है। स्थूल शरीर पर जल वायु और गर्मी का ही प्रभाव पड़ता है। और उन्हीं प्रभावों के आधार पर रोग एवं स्वास्थ्य बहुत कुछ निर्भर रहते हैं।

वायु की मात्रा में अन्तर आ जाने से गठिया, लकवा, दर्द, कम्प, अड़कन, गुल्म, हड़फूटन, नाड़ी विक्षेप आदि रोग उत्पन्न होते हैं अग्नि तत्व के विकार से फोड़े-फुन्सी, चेचक ज्वर, रक्त पित्त, हैजा, दस्त, क्षय, श्वास, उपदंश, दाह, रक्त विकार आदि बढ़ते हैं।

जल तत्व की गड़बड़ी से जलोदर, पेचिस, संग्रहणी, बहुमूत्र, प्रमेह, स्वप्नदोष, सोम, प्रदर, जुकाम, खांसी आदि रोग पैदा होते हैं। अग्नि की मात्रा कम हो तो शीत, जुकाम, अड़कन, अपच, शिथिलता सरीखे रोग उठ खड़े होते हैं। इसी प्रकार अन्य तत्वों का घटना बढ़ना अनेक रोग उत्पन्न करता है।

आयुर्वेद के मत से विशेष प्रभावशाली, गतिशील, सक्रिय एवं स्थूल शरीर की स्थिति करने वाले कफ, वात, पित्त, जल, वायु, गर्मी ही है। और दैनिक जीवन में जो उतार चढ़ाव होते रहते हैं उनमें इन तीन का ही प्रधान कारण होता है। फिर भी शेष दो तत्व पृथ्वी और आकाश शरीर पर स्थिर रूप से काफी प्रभाव डालते हैं।

मोटा या पतला होना, लम्बा या ठिगना होना, रूपवान या कुरूप होना, गोरा या काला होना, कोमल या सुदृढ़ होना शरीर में पृथ्वी तत्व की स्थिति से सम्बन्धित है। इसी प्रकार चतुरता, मूर्खता, सदाचार-दुराचार, नीचता-मानता, तीव्र बुद्धि—मन्द बुद्धि, सकन—दूरदर्शिता, खिन्नता प्रसन्नता एवं गुण, कार्य, स्वभाव, इच्छा, आकांक्षा, भावना, आदर्श, लक्ष आदि बातें इस बात पर निर्भर रहती हैं कि शरीर में आकाश तत्व की स्थिति क्या है।

उन्माद, सनक, दिल की धड़कन, अनिद्रा, पागलपन, दुःस्वप्न, मृगी, मूर्छा, घबराहट, निराशा आदि रोगों में भी आकाश ही प्रधान कारण होता है।

रसोई का स्वादिष्ट तथा लाभदायक होना इस बात पर निर्भर है कि उसमें पड़ने वाली चीजें नियत मात्रा में हों। चावल दलिया, दाल, हलुआ, रोटी आदि में अग्नि का प्रयोग कम रहे या अधिक हो जाय तो वह खाने लायक न होगी। इसी प्रकार पानी, नमक, चीनी, घी आदि की मात्रा बहुत कम या अधिक हो जाय तो भोजन का स्वाद, गुण तथा रूप बिगड़ जायगा।

यही दशा शरीर की है। तत्वों की मात्रा में गड़बड़ी पड़ जाने से स्वास्थ्य में निश्चित रूप से खराबी आ जाती है। जल, वायु, सर्दी, गर्मी (ऋतु प्रभाव) के कारण रोगी मनुष्य निरोग और रोगी बन सकता है।

योग साधकों को जान लेना चाहिए कि पंच तत्वों से बने शरीर को सुस्थिर रखने का एक महत्वपूर्ण आधार यह है कि देह में सभी तत्व स्थिर मात्रा में रहें। गायत्री के पांच मुख, शरीर में पांच तत्व बनकर निवास करते हैं। यह पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों को क्रियाशील रखते हैं। लापरवाही, अव्यवस्था, और आहार विहार के असंयम से तत्वों का सन्तुलन बिगाड़ कर रोग ग्रस्त होना एक प्रकार से पंचमुखी गायत्री माता का, देह परमेश्वरी का तिरष्कार करना है।

वेदान्त शास्त्र में इन पंच तत्वों को आत्मा का आवरण एवं बन्धन माना गया है। भगवान शंकराचार्य ने ‘तत्वबोध’ की संकेत पिटिका में पंचीकरण विद्या बताई है। उनका कथन है कि बन्धन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए पहले हमें यह भली भांति जान लेना चाहिए कि यह संसार और कुछ नहीं केवल पंचभूतों के परमाणुओं का इधर उधर उड़ते फिरना, संयुक्त ओर वियुक्त होते रहना मात्र है। जैसे वायु से प्रेरित बादल इधर उड़ते हैं तो उसके संयोग वियोग से आकाश में पर्वत, रीछ, सिंह, पक्षी, घर, वृक्ष, गुफा जैसे नाना प्रकार के कौतूहल पूर्ण चित्र क्षण क्षण में बनते और बिगड़ते रहते हैं उसी प्रकार इस संसार में नाना प्रकार के निर्माण, विकास और ध्वंस होते रहते हैं।

जैसे बादलों के बनने वाले चित्र मिथ्या हैं, भ्रम हैं, भुलावा हैं, स्वप्न हैं, वैसे ही यह संसार माया भ्रम, या स्वप्न है। यह पांच भूतों के उड़ते फिरने का खेल मात्र है। इसी लिये इसे लीलाधर की लीला, नटवर की कला का माया बताया गया है।

कई अदूरदर्शी, व्यक्ति ‘संसार स्वप्न’ है कि उक्ति सुनते ही आग बबूला हो जाते हैं। और वेदान्त शास्त्र पर यह आरोप लगाते हैं कि ‘‘‘इन विचारों के द्वारा लोगों में अकर्मण्यता, निराशा, निरुत्साह, अनिच्छा पैदा होगी और सांसारिक उन्नति की महत्वाकांक्षा शिथिल हो जाने से हमारा समाज या राष्ट्र पिछड़ा रह जायगा।’’ यह आक्षेप बहुत ही उथला और अविवेक पूर्ण है।

वेदान्त विरोधी भी इतना तो जानते ही हैं कि हमें मरना है और मरने पर कोई भी वस्तु साथ नहीं जाती। इतनी जानकारी होते हुए भी वे सांसारिक उन्नति को छोड़ते नहीं। स्वप्न में भी सब काम होते रहते हैं। इसी प्रकार शरीर का निर्माण ही ऐसे ढंग से हुआ है, उसमें पेट की, इन्द्रियों की, मन की क्षुधाएं इतनी प्रबल लगादी गई हैं कि बिना कर्तव्य परायण हुए कोई प्राणी क्षण भर भी चैन से नहीं बैठ सकता। निष्क्रिय व्यक्ति के लिए तो जीवन धारण किये रहना भी असम्भव है।

वेदान्त ने संसार को दार्शनिक विवेचना करते हुए उसे पंच भूतों का अस्थिर परमाणु पुंज स्वप्न बताया है तो इसका फलितार्थ यह होना चाहिए कि हम आत्मिक लाभ के लिए ही सांसारिक वस्तुओं का उपार्जन एवं उपयोग करें। वस्तुओं की मोहकता पर आसक्त होकर उनके संचय, स्वामित्व एवं अनियंत्रित भोगों की मृग तृष्णा में अपने आत्मिक हितों का बलिदान न करें।

कर्तव्य रत रहना तो शरीर का स्वाभाविक धर्म है इसे त्यागना किसी भी जीवित व्यक्ति के लिए संभव नहीं। वेदान्त की यह शिक्षा कि ‘‘यह संसार पंच भूतों की क्रीड़ा स्थली मात्र है’’ पूर्णतया विज्ञान सम्मत है। दार्शनिकों की भांति वैज्ञानिक भी यही बताते हैं कि अणु परमाणुओं के द्रुत गति से परिभ्रमण करने के कारण संसार की गति शीलता है और यह पांच तत्वों से बने हुए 96 जाति के परमाणु ही संसार की असंख्य वस्तुओं देहों, योनियों के उत्पादन एवं विनाश के हेतु हैं।

‘पंचीकरण विद्या’ के अनुसार साधक जब भली प्रकार यह बात हृदयंगम कर लेता है कि यह संसार उड़ते हुए परमाणुओं के संयोग वियोग से क्षण क्षण में बनने बिगड़ने वाली चित्रावली मात्र है तो उसका दृष्टिकोण भौतिक न रहकर आत्मिक हो जाता है। वह वस्तुओं का अनावश्यक मोह न करके उन बुराइयों से बच जाता है जो लोभ और मोह को भड़का कर नाना प्रकार के पाप, तृष्णा, द्वेष, चिन्ता, शोक और अभाव जन्य क्लेशों से जीवन को नारकीय बनाये हुए हैं।

पंचीकरण विद्या के अनुसार यह बताया जाता है कि हमारे शरीर एवं मस्तिष्क के प्रत्येक अंग, प्रत्येक इच्छा, गुण, कर्म, स्वभाव आदि पंच भूतों और तन्मात्राओं से उत्पन्न होते हैं। यह अनात्म तत्व हैं। उन पर अपना स्वामित्व या मोह न होना चाहिए।

देह या मन को अपना मानने का कोई कारण नहीं, यह जड़, नश्वर, परिवर्तन शील, देह भी संसार के अन्य पदार्थों की भांति ही पंच भौतिक है। इसलिए इसको अपने उपयोग की वस्तु, औजार या सवारी समझ कर आनन्द मयी जीवन यात्रा के लिए प्रयुक्त तो करना चाहिए पर देह या मन की अनावश्यक तृष्णाओं के पीछे आत्मा को परेशान न करना चाहिए। इस मान्यता को हृदयंगम कराने के लिए शरीर का विश्लेषण करते हुए तत्वबोध में बताया गया है किस तत्व से शरीर का कौन सा भाग बनता है।

पृथ्वी तत्व की प्रधानता से अस्थि, मांस, त्वचा, नाड़ी, रोम, आदि भारी ठोस पदार्थ बने हैं। जल की प्रधानता से पसीना, मूत्र, कफ, रक्त, शुक्र, आदि प्रवाही पदार्थ बनते हैं। अग्नि तत्व के कारण—भूख, प्यास, श्रम, थकान, निद्रा, कान्ति आदि का अस्तित्व है। वायु तत्व में चलना, फिरता, गति, क्रिया, सिकुड़ना फैलना होता है। आकाश तत्व से—काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय आदि वृत्तियों, इच्छाओं और विचार धाराओं का आविर्भाव हुआ करता है तात्पर्य यह है कि शरीर में जो कुछ भी अंग प्रत्यंग, पदार्थ तथा प्रेरणा है वह पंच तत्वों के आधार पर है।

जब इस प्रपंच संसार को, और पंचावरण शरीर में से ‘अहम्’ की मान्यता हटा कर विश्व व्यापी चैतन्य आत्मा में अपने को परव्याप्त मान लेता है तो वह परिपूर्ण मान्यता ही मुक्ति बन जाती हैं। शरीर और संसार की पंच भौतिक सत्ता को ‘प्रपंच’ शब्द से सम्बोधित किया गया है और वेदान्त शास्त्र के योग साधनों को आदर्श दिया है कि—मैं और मेरा, द्वैत छोड़ कर केवल ‘मैं’ का अद्वैत सीखो। विश्व में जो कुछ है वह मैं आत्मा हूं। मुझसे भिन्न कुछ नहीं।’’ यह मान्यता अद्वैत ब्रह्म को प्राप्त करा देती है।

इसी बात को भक्ति मार्गी दूसरे शब्दों में कहते हैं। ‘‘जो कुछ है तू है। मेरा अलग अपनत्व कुछ नहीं।’’ दोनों ही मान्यताएं बिलकुल एक हैं। भक्ति मार्ग और वेदान्त में शब्दों के फेर के अतिरिक्त वस्तुतः कुछ अन्तर नहीं है।

अन्नमय कोश के परिमार्जन के लिए तीसरा उपाय ‘तत्व शुद्धि’ है। स्थल रूप से शरीर के पंच तत्वों को ठीक रखने के लिए जल, वायु, ऋतु प्रदेश और वातावरण का ध्यान रखना आवश्यक है। सूक्ष्म रूप से पंचीकरण विद्या के अनुसार तत्व ज्ञान प्राप्त करके आत्म तत्व और अनात्म तत्व के अन्तर को समझते हुए प्रपंच से छुटकारा पाना चाहिए। तत्व शुद्धि के दोनों ही पहलू महत्व पूर्ण हैं। जिसे अपना अन्नमय कोश ठीक रखना चाहिए उसे व्यवहारिक जीवन में पंचतत्वों की शुद्धि सम्बन्धी बातों का भी विशेष ध्यान रखना चाहिए।

(1) जल तत्व—जल तत्व जल से शरीर और वस्त्रों की शुद्धि बराबर करता रहे, स्नान करने का उद्देश्य केवल मैल छुड़ाना नहीं है वरन् पानी में रहने वाली ‘विशिवा’ नामक विद्युत से देह को सतेज करना एवं ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि बहुमूल्य तत्वों से शरीर को सींचना भी है। सवेरे शौच जाने से बीस-तीस मिनट पूर्ण एक गिलास पानी पीना चाहिए जिससे रात का अपच धुल जाय और शौच साफ हो।

पानी को सदा घूंट-घूंट कर धीरे-धीरे दूध की तरह पीना चाहिए हर घूंट के साथ यह भावना करते जाना चाहिए कि ‘‘इस अमृत तुल्य जल में जो शीतलता, मधुरता और शक्ति भरी हुई है उसे खींच कर में अपने शरीर में धारण कर रहा हूं।’’ इस भावना के साथ पिया हुआ पानी दूध के समान गुण कारक होता है।

जिन स्थानों का पानी भारी, खारी, तेलिया, उथला तालाबों का तथा हानिकारक हो वहां रहने से अन्नमय कोश में विकार पैदा होता है। कई स्थानों में पानी ऐसा होता है कि वहां फीलपांव, अंडवृद्धि, नासूर, जलोदर, कुष्ठ, खुजली, मलेरिया, जुएं, मच्छर आदि का बड़ा प्रसार होता है। ऐसे स्थानों को छोड़ कर स्वच्छ, हलके, सुपाच्य जल के समीप अपना निवास रखना चाहिए। धनी लोग दूर स्थानों से भी अपने लिए उत्तर जल मंगा सकते हैं।

कभी कभी एनिमा द्वारा पेट में जल चढ़ाकर आंतों की सफाई कर लेनी चाहिए। उससे संचित मलों से विष पेट में से निकल जाते हैं और चित्त बड़ा हलका हो जाता है। प्राचीन काल में वस्ति क्रिया योग का आवश्यक अंग था। अब एनिमा यन्त्र द्वारा यह क्रिया बड़ी सुगम हो गई है।

जल चिकित्सा पद्धति रोग निवारण एवं स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए बड़ी उपयुक्त है। डॉक्टर लुई कूने ने इस विज्ञान पर स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे हैं। उनकी बताई हुई पद्धति से किये गए कटि स्नान, मेहन स्नान, मेरुदण्ड स्नान, गीली चादर का लपेटना, कपड़े को पट्टी, गीली मिट्टी का पलस्तर आदि से रोग निवारण में बड़ी सहायता मिलती है।

(2) अग्नि तत्व—सूर्य के प्रकाश के अधिक संपर्क में रहने का प्रयत्न करना चाहिए। घर में सभी खिड़कियां खुली रखनी चाहिए ताकि धूप और हवा खूब जाती रहे। सवेरे की धूप नंगे शरीर पर लेने का प्रयत्न करना चाहिए। धूप में रख कर तपाये हुए जल का उपयोग करना, भीगे बदन पर धूप लेना उपयोगी है।

सूर्य की सप्त किरणों में अल्ट्रा वायलेट और अल्फा वायलेट किरणें स्वास्थ्य के लिए बड़ी उपयोगी साबित हुई है वे जल के साथ धूप का मिश्रण होने से खिंच आती है। धूप में रख कर रंगीन कांच की बोतलों में पानी, शक्कर, तेल, दूध आदि को सूर्य शक्ति युक्त करके उससे सम्पूर्ण रोगों की चिकित्सा करने की विस्तृत विधि हम अपनी ‘सूर्य चिकित्सा विज्ञान’ पुस्तक में लिख चुके हैं, अग्नि और जल के सम्मिश्रण से भाप बनाकर उसके उपचार से रोगों को किस प्रकार मार भगाया जा सकता है। इसकी विधि ‘‘पंच तत्वों से सम्पूर्ण रोगों की चिकित्सा’’ पुस्तक में लिख चुके हैं।

रविवार को उपवास रखना सूर्य की तेजस्वता एवं बलदायिनी शक्ति का सूक्ष्म आह्वान है। पूरा या आंशिक उपवास शरीर की कान्ति और आत्मिक तेज को बढ़ाने वाला सिद्ध होता है।

(3) वायु तत्व—घनी आबादी के वे मकान जहां धूलि, धुआं, सील की भरमार रहती है और शुद्ध वायु का आवागमन जहां नहीं होता वे स्थान स्वास्थ्य के लिये खतरनाक है। हमारा निवास खुली हवा में होना चाहिए। दिन में वृक्ष और पौधों से औषजन वायु (ऑक्सीजन) निकलती है यह मनुष्य के लिए बड़ी उपयोगी है। जहां तक हो सके वृक्ष पौधों के बीच अपना दैनिक कार्यक्रम करना चाहिए अपने घर आंगन चबूतरे आदि पर फूल पौधे लगाने चाहिए।

प्रातः काल की वायु बड़ी स्वास्थ्य प्रद होती है उसे सेवन करने के लिए तेज चाल से टहलने के लिए जाना चाहिए। दुर्गन्धित, एवं बंद हवा के स्थानों से अपना निवास दूर ही रखना चाहिए। तराई, सील, नमी के स्थानों की वायु ज्वर आदि पैदा करती है। तेज हवा के झोकों से त्वचा फट जाती है। अधिक ठंडी या गर्म हवा से निमोनिया या लू लगना जैसे रोग हो सकते हैं उस प्रकार के प्रतिकूल मौसम से अपनी रक्षा करनी चाहिए।

प्राणायाम द्वारा फेफड़ों का व्यायाम होता है और शुद्ध वायु से रक्त की शुद्धि होती है। इसलिए स्वच्छ वायु के स्थान में बैठकर नित्य प्राणायाम करना चाहिए। प्राणायाम की विधि—प्राणायाम कोश की साधना के प्रकरण में लिखेंगे।

हवन करना—अग्नि तत्व के संयोग से वायु को शुद्ध करता है। जो वस्तु अग्नि में जलाई जाती है वह नष्ट नहीं होती वरन् सूक्ष्म होकर वायु मण्डल में फैल जाती है। भिन्न भिन्न वृक्षों की समिधाओं एवं हवन सामग्रियों में अलग-अलग गुण हैं। उनके द्वारा ऐसा वायु मण्डल रखा जा सकता है जो शररी और मन को स्वस्थ बनाने में सहायक हो। किस समिधा और किन-किन सामग्रियों से किस विधान के साथ हवन करने का क्या परिणाम होता है। इसका विस्तृत विधान बताने के लिए एक स्वतंत्र पुस्तक लिखने का विचार है।

गायत्री साधकों को तो अपने अन्नमय कोश की वायु शुद्धि के लिए एक हवन सामग्री बनाकर रख लेनी चाहिए, जो धूप दानी में थोड़ी-थोड़ी जला कर उससे अपने निवास स्थान की वायु को शुद्ध करते रहना चाहिए।

चन्दन-चूरा; देवदारु, जायफल, इलायची, जावित्री; अगर तगर, कपूर, छारछबीला, नागरमोथा, खस, कचूर-कचरी तथा मेवाएं जौकुट करके थोड़ा घी और शंकर मिलाकर धूप बन जाती है। इस धूप की बड़ी मन मोहक एवं स्वास्थ्य वर्धक गन्ध आती है। बाजार से भी कोई अच्छी अगरबत्ती या धूपबत्ती लेकर काम चलाया जा सकता है। साधना काल में सुगन्ध का ऐसी व्यवस्था कर लेना उत्तम है।

सांस को मुंह से नहीं सदा नाक से ही लेना चाहिए। कपड़े से मुंह ढक कर नहीं सोना चाहिए और किसी के मुंह इतना पास नहीं ले जाना चाहिए कि उसकी छोड़ी हुई सांस अपने भीतर जाय। धूलि, धुआं और दुर्गन्ध भरी अशुद्ध वायु से सदा बचना चाहिए।

(4) पृथ्वी तत्व—शुद्ध मिट्टी में विष निवारण की अद्भुत शक्ति होती है। गन्दे हाथों को मिट्टी से मांजकर शुद्धि किया जाता है। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि जमीन खोद गुफा बना लेते थे और उसमें रहा करते थे। इससे उनके स्वास्थ्य पर बड़ा अच्छा असर पड़ता था।

मिट्टी उनके शरीर के दूषित विकारों को खींच लेती थी, साथ ही भूमि से निकलने वाले वाष्प द्वारा देह का पोषण भी होता रहता था। समाधि लगाने के लिये गुफाएं उपयुक्त स्थान समझी जाती हैं क्योंकि चारों ओर मिट्टी से घिरे होने के कारण शरीर को सांस द्वारा ही बहुत-सा आहार प्राप्त हो जाता है और कई दिन तक भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती या कम भोजन से काम चल जाता है।

छोटे बालक जो प्रकृति के अधिक समीप हैं पृथ्वी के महत्व को जानते हैं। वे भूमि पर खेलना, भूमि पर लेटना, गद्दी तकियों की अपेक्षा अधिक पसन्द करते हैं। पशुओं को देखिये वे अपनी थकान मिटाने के लिए जमीन पर लेट लगाते हैं और लोट-पोट कर पृथ्वी की पोषण शक्ति से फिर ताजगी प्राप्त कर लेते हैं तीर्थ यात्रा एवं धर्म कार्यों के लिए नंगे पैरों चलने का विधान है। तपस्वी लोग भूमि पर शयन करते हैं।

इन प्रथाओं का उद्देश्य धर्म साधना के नाम पर पृथ्वी की पोषक शक्ति द्वारा साधनों को लाभान्वित करना ही है। पक्के मकानों की अपेक्षा मिट्टी की झोंपड़ी में रहने वाले सदा अधिक स्वस्थ रहते हैं।

मिट्टी के उपयोग द्वारा स्वास्थ्य सुधार में हमें बहुत सहायता मिलती है। निर्दोष पवित्र भूमि पर नंगे पावों टहलना चाहिए। जहां छोटी छोटी घास उग रही हो वहां टहलना तो और भी अच्छा है।

पहलवान लोग चाहे वे अमीर ही क्यों न हो रुई के गद्दों पर कसरत करने की अपेक्षा मुलायम मिट्टी के अखाड़ों में ही व्यायाम करते हैं ताकि मिट्टी के अमूल्य गुणों का लाभ उनके शरीर को प्राप्त हो। साबुन के स्थान पर पोतनी या मुल्तानी मिट्टी का उपयोग किया जा सकता है। वह मैल को दूर करेगी, विष को खींचेगी और त्वचा को कोमल, ताजा, चमकीली और प्रफुल्लित कर देती है।

मिट्टी शरीर पर लगाकर स्नान करना एक अच्छा उबटन है। उससे गर्मी के दिनों में उठने वाली मरोड़ियां और फुंसियां दूर हो जाती हैं। सिर के बालों को मुल्तानी मिट्टी से धोने का रिवाज अभी तक मौजूद है इससे सिर का मैल दूर होता है। खुरट जमने बन्द होते हैं। बाल काले मुलायम और चिकने रहते हैं तथा मस्तिष्क में बड़ी तरावट पहुंचती है। हाथ साफ करने और बर्तन मांजने के लिए मिट्टी से अच्छी और कोई चीज नहीं है।

फोड़े, फुन्सी, दाद, खाज, गठिया, दर्द, जहरीले जानवरों के काटने, सूजन, जख्म, गिल्टी, नासूर, दुखती हुई आंखें, कुष्ट, उपदंश, रक्त विकार आदि रोगों पर गीली मिट्टी बांधने से आश्चर्यजनक लाभ होता है। डॉक्टर लुईकु ने अपनी जल चिकित्सा में मिट्टी की पट्टी के अनेक उपचार लिखे हैं। चूल्हे की जल हुई मिट्टी से दांत मांजने, नाक के रोगों में मिट्टी के ढेले पर पानी डाल कर सुंघाने, लू लगने पर पैरों के ऊपर मिट्टी थोप देने की विधि से सब लोग परिचित हैं।

किसी स्थान पर बहुत समय तक मल मूत्र डालते रहें तो डालना बन्द कर देने के बाद भी बहुत समय तक वहां दुर्गन्ध आती रहती है। कारण यह है कि भूमि में शोषण शक्ति है। वह पदार्थों को सोख लेती है और उनका प्रभाव बहुत समय तक अपने धारण किये रहती है।

पृथ्वी की सूक्ष्म शक्ति लोगों के सूक्ष्म विचारों और गुणों को भी सोख कर अपने में धारण कर लेती है। जिस स्थान पर हत्या, व्यभिचार, जुआ, मद्यपान आदि दुष्कर्म होते हैं उन स्थानों का वातावरण ऐसा घातक होता है कि वहां जाने वाले पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।

श्मशान भूमि जहां अनेक मृत शरीर नष्ट हो जाते हैं, अपने में एक भयंकरता छिपाये बैठी रहती है। वहां आने पर एक विलक्षण प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। कई तांत्रिक साधनाएं तो ऐसी हैं जिनके लिए केवल मात्र मरघट का वातावरण ही उपयुक्त होता है।

भूमिगत प्रभाव से गायत्री साधकों को लाभ उठाना चाहिए। जहां सत्पुरुष रहते हैं, जहां स्वाध्याय, सद्विचार, सत्कार्य होते हैं वह स्थान प्रत्यक्ष तीर्थ हैं उन स्थानों का वातावरण साधक की सफलता में बड़ा लाभदायक होता है। जिस स्थानों में किसी समय में कोई अवतार या दिव्य पुरुष रहे हैं उन स्थानों की प्रभाव शक्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करके तीर्थ बनाये गये हैं। जहां कोई सिद्ध पुरुष या तपस्वी बहुत काल तक रहे हैं। वह स्थान सिद्ध पीठ बन जाते हैं और रहने वालों पर अनायास ही अपना प्रभाव डालते हैं।

सूक्ष्म दर्शी महात्माओं ने देखा है कि भगवान कृष्ण की प्रत्यक्ष लीला तरंगें अभी तक ब्रज भूमि में बड़ी प्रभाव पूर्ण स्थिति मौजूद हैं। तीर्थ वासियों के दूषित चित्तों के बावजूद इस भूमि की प्रभाव शक्ति अब भी बनी हुई है और साधक को उसका स्पर्श होते ही शान्ति मिलती है।

कितने ही मुमुक्षु अपनी आत्मिक शान्ति के लिए इस पुण्य भूमि में निवास करने का स्थायी या अल्प कालीन अवसर निकालते हैं। कारण यह है कि क्लेश युक्त वातावरण के स्थानों में जितने श्रम और समय में जितनी सफलता मिलती है उसकी अपेक्षा पुण्य भूमि के वातावरण में कहीं जल्दी और कहीं अधिक लाभ होता है। तीर्थ स्थानों में नंगे पैर भ्रमण करने का भी महात्म्य इसीलिए है कि उन स्थानों की पुण्य तरंगें अपने शरीर से प्रत्यक्ष स्पर्श करके आत्म शान्ति का हेतु बनें।

(5) आकाश तत्व — आकाश तत्व पिछले चार तत्वों की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होने से अधिक शक्तिशाली है। विश्वव्यापी पोल में शून्याकाश में एक शक्ति तत्व भरा हुआ है जिसे अंग्रेजी में ‘ईथर’ कहते हैं। पोले स्थान को खाली नहीं समझना चाहिए जैसे समुद्र में पानी भरा रहता है उसी प्रकार पोल में ‘ईथर’ भरा हुआ है। वह वायु से भी सूक्ष्म होने के कारण प्रत्यक्ष रूप से अनुभव नहीं होता। तो भी उसका अस्तित्व पूर्णतया प्रमाणित है।

रेडियो द्वारा जो गायन, समाचार, भाषण आदि हम सुनते हैं वे ईथर में, आकाश तत्व में, तरंगों के रूप में आते हैं। जैसे पानी से ढेला फेंक देने पर उसकी लहर बनती हैं और वह लहर जलाशय के अंतिम छोर तक चली जाती हैं इसी प्रकार ईथर में आकाश शब्द की तरंगें पैदा होती हैं और वह पलक मारते विश्व भर में फैल जाती हैं। इसी विज्ञान के आधार पर रेडियो यन्त्र का आविष्कार हुआ है।

एक स्थान पर शब्द तरंगों के साथ बिजली की शक्ति मिला कर उन्हें अधिक बलवती करके प्रवाहित कर दिया जाता है। अन्य स्थानों पर जहां रेडियो यन्त्र लगे हैं उन आकाश में बहने वाली तरंगों को पकड़ लिया जाता है और प्रेरित सन्देश सुनाई देने लगते हैं।

वाणी चार प्रकार की होती है।

1—बैखरी-जो मुंह से बोली और कान से सुनी जाती है, जिसे ‘शब्द’ कहते हैं।
2—मध्यमा-जो संकेतों से, मुखाकृति से, भावभंगी से, नेत्रों से कही जाती है इसे ‘भाव’ कहते हैं।
3—पश्यन्ति-जो मन से निकलती है और मन से ही उसे सुन सकता है उसे ‘विचार’ कहते हैं।
4—परा-यह आकांक्षा, इच्छा, निश्चय प्रेरणा, शाप वरदान आदक रूप में अन्तःकरण से निकलती है। इसे संकल्प कहते हैं।

यह चारों ही वाणियां आकाश में तरंग रूप से प्रवाहित होती हैं। जो व्यक्ति जितना प्रभावशाली है उसके शब्द, भाव, विचार और संकल्प आकाश में उतने ही प्रबल होकर प्रवाहित होते रहते हैं।

आकाश असंख्य प्रकृति के असंख्य व्यक्तियों द्वारा असंख्य प्रकार की स्थूल एवं सूक्ष्म शब्दावली प्रेरित होती रहती है। हमारा अपना मन जिस केन्द्र पर स्थिर होता है उसी जाति के असंख्य प्रकार के विचार हमारे मस्तिष्क में धंस जाते हैं और अदृश्य रूप से उन अपने पूर्व निर्धारित विचारों की पुष्टि करना आरम्भ कर देते हैं। यदि हमारा अपना विचार व्यभिचार करने का हो तो असंख्य व्यभिचारियों द्वारा आकाश में प्रेरित किये गये वैसे ही शब्द, भाव, विचार और संकल्प हमारे ऊपर बरस पड़ते हैं और उनके उपाय, सुभाव, मार्ग बताकर उसी ओर उत्साहित कर देते हैं।

हमारे अपने स्वनिर्मित विचारों में एक मौलिक चुम्बकत्व होता है। उसी के अनुरूप आकाशगामी विचार हमारी ओर खिंचते हैं। रेडियो में जिस स्टेशन के मीटर पर सुई करदी जाय उसी के सन्देश सुनाई पड़ते हैं और उसी समय में जो अन्य स्टेशन बोल रहे हैं उनकी वाणी हमारे रेडियो से टकराकर लौट आती है वह सुनाई नहीं देती। उसी प्रकार हमारे अपने स्वनिर्मित मौलिक विचार ही अपने सजातियों को आमन्त्रित करते हैं।

मरी लाश को देख कर एक कौआ चिल्लाता है तो अन्य कौए उसकी आवाज सुनकर जमा हो जाते हैं ऐसे ही अपने विचार भी सजातियों को बुलाकर एक अच्छी खासी सेना जमा कर लेते हैं। फिर उस विचार से सैन्य की प्रबलता के आधार पर उसी दिशा में कार्य भी आरम्भ हो जाता है।

आकाश तत्व की इस विलक्षणता को ध्यान में रखते हुए हमें कुविचारों से विषधर सर्प की भांति सावधान रहना चाहिए। अन्यथा वे अनेक स्वजातियों को बुलाकर हमारे लिये एक संकट उत्पन्न कर देंगे। जब कोई कुविचार मन में आवे तो तत्क्षण उसे मार भगाना चाहिए अन्यथा वह सारे मानस क्षेत्र को वैसे ही खराब कर देगा जैसे विष की थोड़ी-सी बूंदें सारे भोजन को बिगाड़ देती हैं।

मन में सदा उत्तम, उच्च, उदार, सात्विक विचारों को ही स्थान देना चाहिए जिससे उसी जाति के विचार अखिल आकाश में से खिंचकर हमारी ओर चले आवें और सन्मार्ग की ओर हमें प्रेरित करें। उत्तम बातें सोचते रहने, स्वाध्याय मनन, आत्म चिन्तन, परमार्थ और उपासना मया मनोभूमि हमारा बहुत कुछ कल्याण कर सकता है यदि प्रतिकूल कार्य न हो रहे हों तो उच्च विचार धारा से भी सद्गति प्राप्त हो सकती है भले ही उन विचारों के अनुरूप कार्य न हो रहे हों।

संकल्प कभी नष्ट नहीं होते, पूर्व काल में ऋषि-मुनियों के महापुरुषों के जो विचार प्रवचन एवं संकल्प थे वे अब भी आकाश में गूंज रहे हैं। यदि हमारी मनोभूमि अनुकूल हो तो उन दिव्य आत्माओं का पथ-प्रदर्शन एवं सहारा भी हमें अवश्य ही प्राप्त होता रहेगा।

परब्रह्म की ब्रह्मा प्रेरणाएं, शक्तियां, किरणें एवं तरंगें भी आकाश द्वारा ही मानव अन्तःकरण को प्राप्त होती हैं। देव शक्तियां ईश्वर की विविध गुणों वाली किरणें ही तो हैं, आकाश द्वारा मन के माध्यम से उनका अवतरण होता है।

शिवजी ने आकाश वाहिनी गंगा को अपने सिर पर उतारा था, तब वह पृथ्वी पर बही थी। ब्रह्म की सर्व प्रधान दिव्य शक्ति आकाश वाहिनी गायत्री गंगा को साधक सबसे पहले अपने मनःक्षेत्र में उतारता है। यह अवतरण होने पर ही जीवन के अन्य अंगों में वह पतित पावनी पुण्य धारा प्रवाहित होती है।

शरीर में मन या मस्तिष्क आकाश का प्रतिनिधि है। उसी में आकाशगामी परम कल्याण कारक तत्वों का अवतरण होता है। इसलिए साधक को अपना मनःक्षेत्र ऐसा शुद्ध, परिमार्जित स्वस्थ एवं सतेज रखना चाहिए जिससे गायत्री का अवतरण बिना किसी कठिनाई के हो सके।





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