गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

विज्ञान कोश की वायु साधना

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1— शान्त वातावरण में मेरुदंड सीधा करके बैठ जाइए और नाभि चक्र में शुभ्रे ज्योति मंडल का ध्यान कीजिए। उस ज्योति केन्द्र में समुद्र के ज्वार भाटे की तरह हिलोरें उठती हुई परिलक्षित होंगी।

2— यदि बांया स्वर चल रहा होगा तो उसे ज्योति केन्द्र का वर्ण चन्द्रमा के समान पीला होगा और उसके बांये भाग से निकलने वाली इड़ा नाड़ी में होकर श्वांस प्रवाह का आवागमन होगा। नाभि से नीचे की ओर मूलाधार चक्र (गुदा और लिंग का मध्यवर्ती भाग) में होती हुई मेरुदंड में होकर मस्तिष्क के उपरि भाग की परिक्रमा करती हुई नासिका के बांए नथुने तक इड़ा नाड़ी जाती है। नाभि केन्द्र के वाम भाग को क्रिया शीलता के कारण यह नाड़ी काम करती है और बांया स्वर चलता है। इस तथ्य को भावना के दिव्य नेत्रों द्वारा भली भांति, चित्रवत् परिवेक्षण कीजिए।

3— यदि दाहिना स्वर चल रहा होगा तो नाभि केन्द्र का ज्योति मंडल सूर्य के समान तनिक नीलिमा लिये हुए श्वेत वर्ण का होगा और उसके दाहिने भाग में से निकलने वाले पिंगला नाड़ी में होकर श्वांस प्रश्वांस क्रिया होगी। नाभि से नीचे मूलाधार में होकर मेरुदंड तथा मस्तिष्क में होती हुई दाहिने नथुने तक पिंगला नाड़ी गई है और नाभि चक्र के दाहिने भाग में चैतन्यता होती है और दाहिना स्वर चलता है। इस सूक्ष्म क्रिया को ध्यान शक्ति द्वारा ऐसे मनोयोग पूर्वक निरीक्षण करना चाहिए कि वस्तु स्थिति ध्यान क्षेत्र में चित्र के समान स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगे।

4— जब स्वर संधि होती है तो वह नाभि चक्र स्थिर हो जाता है। उसमें कोई हलचल नहीं होती और न उतनी देर तक वायु का आवागमन होता है। इस संधि काल में एक तीसरी नाड़ी मेरुदंड में अत्यन्त द्रुत वेग से बिजली के समान कोंधती है साधारणतः एक क्षण के सौवें भाग में यह कोंध जाती है, इसे ही सुषुम्ना कहते हैं।

5— सुषुम्ना का जो विद्युत प्रवाह है वही आत्मा की चंचल झांकी है। आरम्भ में यह झांकी एक हलके झटके के समान किंचित प्रकाश की मंद किरण जैसी होती है। साधना से यह चमक अधिक प्रकाशवान और अधिक देर ठहरने वाली होती है। कुछ दिन बाद वर्षा काल में बादलों के मध्य चमकने वाली होती है। कुछ दिन बाद वर्षा काल में बादलों के मध्य चमकने वाली बिजली के समान उसका प्रकाश और विस्तार होने लगता है। सुषुम्ना ज्योति में किन्हीं रंगों की आभा होना, उसका सीधा टेढ़ा तिरछा या वर्तुलाकार होना आत्मिक स्थिति का परिचायक है। तीन गुण, पांच तत्व, संस्कार एवं अन्तःकरण की जैसी स्थिति होती है उसी के अनुरूप सुषुम्ना का रूप ध्यानावस्था में दृष्टिगोचर होता है।

6— इड़ा पिंगला की क्रियाएं जब स्पष्ट दीखने लगें तब उनको साक्षी रूप से अवलोकन किया कीजिए। नाभि चक्र के जिस भाग में ज्वार भाटा आ रहा होगा वही स्वर चल रहा होगा और केन्द्र के उसी आधार पर सूर्य या चन्द्रमा का रंग होगा। यह क्रिया जैसे जैसे हो रही है उसको स्वाभाविक रीति से होते हुए देखते रहना चाहिए। एक सांस के भीतर पूरा प्रवेश होने पर जब वह लौटती है तो उसे ‘‘आभ्यांतर संधि’’ और जब सांस पूरी तरह बाहर निकल कर नई सांस भीतर निकलना आरम्भ करती है तब उसे ‘वाह्य संधि’ कहते हैं। इन कुम्भक कालों में सुषुम्ना की द्रुत गति गामिनी विद्युत आभा का अत्यन्त चपल प्रकाश विशेष सजगता पूर्वक दिव्य नेत्रों से देखना चाहिए।

7— जब इड़ा बदल कर पिंगला में या पिंगला बदल कर इड़ा में जाती है। अर्थात् एक स्वर जब दूसरे में परिवर्तित होता है तब सुषुम्ना की संधि बेला आती है। अपने आप स्वर बदलने के अवसर पर स्वाभाविक सुषुम्ना का प्राप्त होना प्रायः कठिन होता है। इसलिए स्वर विद्या के साधक पिछले पृष्ठों में बताये गये स्वर बदलने के उपायों से वह परिवर्तन करते हैं और महा सुषुम्ना की संधि आने पर आत्म ज्योति का दर्शन करते हैं। यह ज्योति आरम्भ में चंचल और विविध आकृतियों की होती है पर अन्त में स्थिर एवं मंडलाकार हो जाती है। यह स्थिरता ही विज्ञानमय कोश की सफलता है। इसी स्थिति में आत्म साक्षात्कार होता है।

सुषुम्ना में अवस्थित होना, वायु पर अपना अधिकार कर लेना है। इस सफलता के द्वारा लोक लोकान्तरों तक अपनी पहुंच हो जाती है और विश्व ब्रह्माण्ड पर अपना प्रभुत्व अनुभव होता है। प्राचीन काल में स्वर शक्ति द्वारा अणिमा, महिमा, लघिमा आदि सिद्धियां प्राप्त होती थी। आज के युग प्रवाह में वैसा तो नहीं होता पर ऐसे अनुभव होते हैं जिससे मनुष्य शरीर रहते हुए भी मानसिक आवरण में देव तत्व की प्रचुरता हो जाती है। विज्ञानमय कोश के विजयी को भूसुर भूदेव या नरतनु धारी दिव्य आत्मा कह सकते हैं।





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