गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

अन्नमय कोश की साधना

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गायत्री के पांच मुखों में, आत्मा के पांच कोशों में प्रथम कोश का नाम अन्नमय कोश है। अन्न का सात्विक अर्थ है—पृथ्वी का रस। पृथ्वी से जल, अनाज, फल, तरकारी, घास आदि पैदा होते हैं। उन्हीं से दूध, घी, मांस आदि भी बनते हैं। यह सब अन्न कहे जाते हैं। इन्हीं के द्वारा रज, वीर्य बनते हैं और उन्हीं से इस शरीर का निर्माण होता है। अन्न द्वारा ही देह बढ़ती और पुष्ट होती है तथा अन्त में अन्न रूपी पृथ्वी में ही भस्म होकर या सड़गल कर मिल जाती है। अन्न से उत्पन्न होने वाली और उसी में मिल जाने वाला यह देह इसी प्रधानता के कारण ‘अन्नमय कोश’ कहा जाता है।

यहां एक बात ध्यान रखने की है कि हाड़-मांस का जो पुतला दिखाई देता है वह अन्नमय कोश की आधीनता में है पर उसे ही अन्नमय कोश न समझ लेना चाहिए। मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है पर अन्नमय कोश नष्ट नहीं होता। वह जीव के साथ रहता है। बिना शरीर के भी जीव भूतयोनि में या स्वर्ग नरक में उन भूख, प्यास, सर्दी गर्मी, चोट, दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार उसे उन्हें उन इन्द्रिय भोगों की चाह रहती है जो शरीर द्वारा ही भोगे जाने सम्भव हैं। भूतों की इच्छाएं वैसी ही आहार विहार की रहती हैं जैसी कि शरीर धारी मनुष्यों की होती है। इससे प्रकट है कि अन्नमय कोश, शरीर का संचालक, कारण, उत्पादक, उपभोक्ता आदि तो है पर उससे प्रथक भी है। इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है।

रोग हो जाने पर डॉक्टर, वैद्य, उपचार, औषधि, इंजेक्शन, शल्य क्रिया आदि द्वारा उसे ठीक करते हैं। चिकित्सा पद्धतियों की पहुंच स्थूल शरीर तक ही है। इसलिए वह केवल उन्हीं रोगों को दूर कर पाते हैं जो कि हाड़, मांस, त्वचा आदि के विकारों के कारण उत्पन्न होते हैं। परन्तु कितने ही रोग ऐसे भी हैं जो अन्नमय कोश की विकृति के कारण उत्पन्न होते हैं, उन्हें शारीरिक चिकित्सक लोग ठीक करने में प्रायः असमर्थ ही रहते हैं।

अन्नमय कोश की स्थिति के अनुसार शरीर का ढांचा और रंग रूप बनता है, उसी के अनुसार इन्द्रियों की शक्तियां होती हैं। बालक जन्म से ही कितनी ही शारीरिक त्रुटियां अपूर्णताएं या विशेषताएं लेकर आता है। किसी को देह आरम्भ से ही मोटी किसी की जनम से ही पतली होती है। आंखों की दृष्टि, वाणी की विशेषता, मस्तिष्क का भोंड़ा या तीव्र होना, किसी विशेष अंश का निर्बल या न्यून होना अन्नमय कोश की स्थिति के अनुरूप होता है। माता-पिता के रज वीर्य का भी उसमें थोड़ा प्रभाव होता है पर विशेषता अपने कोश की ही रहती है। कितने ही बालक माता पिता की अपेक्षा अनेक बातों में बहुत भिन्न पाये जाते हैं।

शरीर अन्न से बनता और बढ़ता है। पर अन्न के भीतर जो सूक्ष्म जीवन तत्व रहता है वह अन्नमय कोश को बनाता है। जैसे शरीर में पांच कोश हैं वैसे ही अन्न में तीन कोश हैं स्थूल, सूक्ष्म, कारण। स्थूल में स्वाद और भार, सूक्ष्म में प्रभाव और गुण तथा कारण के कोश में अन्न का संस्कार रहता है। जिह्वा से केवल भोजन का स्वाद मालूम होता है। पेट उसके बोझ का अनुभव करता है, रस में उसकी मादकता, उष्णता आदि प्रकट होती है। अन्नमय कोश पर उसका संस्कार जमता है। मांस आदि अनेक अभक्ष पदार्थ ऐसे हैं जो जीभ को स्वादिष्ट लगते हैं, देह को मोटा बनाने में भी सहायक होते हैं पर उनमें सूक्ष्म संस्कार ऐसा होता है जो अन्नमय कोश को विकृत कर देता है और उसका परिणाम अदृश्य रूप से आकस्मिक रोगों के रूप में तथा जन्म जन्मान्तरों तक कुरूपता एवं शारीरिक अपूर्णता के रूप में चलता है। इसलिए आत्म विद्या के ज्ञाता सदा सात्विक सुसंस्कारी अन्न पर जोर देते हैं ताकि स्थूल शरीर में बीमारी, कुरूपता, अपूर्णता, आलस्य एवं कमजोरी की बढ़ोतरी न हो जो लोग अभक्ष खाते हैं वे अब नहीं तो भविष्य में, ऐसी आंतरिक विकृति में ग्रस्त हो जायेंगे जो उनको शारीरिक सुख से वंचित रखे रहेगी।

कितने ही शारीरिक विकारों की जड़ अन्नमय कोश में होती है। उनका निवारण दवादारू से नहीं योगिक साधनाओं से हो सकता है। जैसे संयम, चिकित्सा, शल्य क्रिया, व्यायाम, मालिश, विश्राम एवं उत्तम आहार विहार, जल वायु द्वारा शारीरिक स्वास्थ्य में बहुत कुछ अन्तर हो सकता है वैसे ही कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिनके द्वारा अन्नमय कोश को परिमार्जित एवं परिपुष्ट किया जा सकता है और विविध विधि शारीरिक अपूर्णताओं से छुटकारा पाया जा सकता है। ऐसी पद्धतियों में

   1—  उपवास,
   2—  आसन,
   3—  तत्व शुद्धि,
   4—  तपश्चर्या

यह चार मुख्य हैं। इन चारों पर इस प्रकरण में कुछ प्रकाश डालेंगे।





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