गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

तपश्चर्या

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तप का अर्थ है
—उष्णता, गति, क्रियाशीलता, घर्षण, संघर्ष, तितीक्षा, कष्ट सहना। किसी वस्तु को निर्दोष, पवित्र एवं लाभदायक बनाना होता है तो उसे तपाया जाता है। सोना तपने से खरा हो जाता है। डॉक्टर अपने औजारों को पहले गरम कर लेते हैं तब उनसे आपरेशन करते हैं। चाकू को शान पर न घिसा जाय तो वह काटने की शक्ति खो बैठेगा। हीरा खराद पर न चढ़ाया जाय तो उसमें चमक और सुन्दरता पैदा न होगी।

व्यायाम का कष्ट साध्य श्रम किये बिना कोई मनुष्य पहलवान नहीं बन सकता। अध्ययन का कठोर श्रम किये बिना विद्वान बनना सम्भव नहीं। माता बच्चे को गर्भ में रखने एवं पालन पोषण का कष्ट सहे बिना मातृत्व का सुख लाभ नहीं कर सकती। कपड़ों को धूप में न सुखाया जाय तो उनमें बदबू आने लगेगी। कोठी में बन्द रखा हुआ अन्न धूप में न डाला जाय तो घुन जायगा। ईंट यदि भट्टे में न पके तो उसमें मजबूती नहीं आ सकती। बिना पका भोजन प्राण रक्षा नहीं कर सकता।

प्राचीन काल में पार्वती ने तप करके मन चाहा फल पाया था, भागीरथ ने तप करके गंगा को भू-लोक पर बुलाया था, ध्रुव के तप ने भगवान को द्रवित कर दिखा दिया था, तपस्वी लोग कठोर तपश्चर्याएं करके सिद्धियां प्राप्त करते थे, रावण, कुम्भकरण, मेघनाद, हिरण्य कश्यप, भस्मासुर आदि ने भी तप के प्रभाव से विलक्षण वरदान पाए थे। आज भी जिस किसी को कुछ प्राप्त हुआ है। वह तप के ही प्रभाव से प्राप्त हुआ है।

ईश्वर तपस्वी पर प्रसन्न होता है और उसे ही अभीष्ट आशीर्वाद देता है। जो धनी, सम्पन्न, समृद्ध, सुन्दर स्वस्थ, विद्वान, प्रतिभाशाली, नेता, अधिकारी आदि के रूप में चमक रहे हैं उनकी चमक अब के या पिछले तप के ऊपर ही अवलम्बित है। यदि वे नया तप नहीं करते और पुरानी तपश्चर्या की पूंजी को खा रहे हैं तो उनकी चमक पूर्व पूंजी चुकते ही धुंधली हो जायगी।

जो लोग आज गिरे हुए हैं उनके उठने का एक मात्र मार्ग है तप। बिना तप के कोई भी सिद्धि, कोई भी सफलता नहीं मिल सकती न सांसारिक न आत्मिक। कल्याण की ताली तप की तिजोरी में रखी हुई है। जो उस खोलेगा वही अभीष्ट वस्तु पावेगा।

दोनों हथेलियों को रगड़ा जाय तो वे गरम हो जाती हैं। दो लकड़ियों को घिसा जाय तो अग्नि पैदा हो जायगी। गति उष्णता क्रिया, तेजी, यह रगड़ का ही परिणाम है। मशीन को चलाने के लिए उसके किसी भी भाग में धक्का या दचका लगाना पड़ेगा अन्यथा कीमती से कीमती मशीन भी बन्द पड़ी ही रहेगी।

शरीर को झटका लगाने के लिए व्यायाम या परिश्रम करना आवश्यक है आत्मा में तेजस्विता, सामर्थ्य एवं चैतन्यता उत्पन्न करने के लिए तप करना होता है। बर्तन मांजे बिना, मकान को झाड़े बिना, अशुद्धि और मलीनता पैदा हो जाती है तपश्चर्या छोड़ देने पर आत्मा भी अशक्त, निस्तेज एवं विकार निस्तेज एवं विकार ग्रस्त हो जाती है। आलसी और आराम तलब शरीर में अन्नमय कोश की स्वस्थता स्थिर नहीं रह सकती, इसलिए उपवास, आसन, तत्व शुद्धि के साथ ही तपश्चर्या को प्रथम कोश की सुव्यवस्था का आवश्यक अंग बताया गया है।

प्राचीन काल में तपश्चर्या को बड़ा महत्व दिया जाता था। जो व्यक्ति जितना परिश्रमी, कष्टसहिष्णुता, साहसी, पुरुषार्थी एवं क्रियाशील होता था उसकी उतनी प्रतिष्ठा होती थी। धनी, अमीर, राजा महाराजा सभी के बालक गुरुकुलों में भेजे जाते थे ताकि वे कठोर जीवन की तपश्चर्या की शिक्षा प्राप्त करके अपने को इतना सुदृढ़ बनालें कि आपत्तियों से लड़ना और सम्पत्ति को प्राप्त करना सुगम हो सके।

आज तप के कष्ट सहिष्णुता के महत्व को लोग भूल गये हैं, और आरामतलबी, आलस्य, नजाकत को अमीरी का चिन्ह मानने लगे। फलस्वरूप पुरुषार्थ घटता जाता है, योग्यता द्वारा उपार्जन करने की अपेक्षा, लोग छल धूर्तता एवं अन्याय द्वारा बड़े बनने का प्रयत्न कर रहे हैं।

गायत्री साधकों को तपस्वी होना चाहिए। अस्वाद व्रत, उपवास, ऋतु प्रभावों का सहना, तितीक्षा, कर्षण, आत्म कल्प प्रदातव्य, निष्कासन, साधन, ब्रह्मचर्य, चांद्रायण, मौन, अर्जन आदि तपश्चर्या की विधि गायत्री महाविज्ञान के प्रथम खण्ड में सविस्तार लिख चुके हैं। उसकी पुनरुक्ति करने की आवश्यकता नहीं। यहां तो इतना कहना पर्याप्त होगा कि अन्नमय कोश को स्वस्थ रखना है तो शरीर और मन का कार्य व्यस्त रखना चाहिए। श्रम, कर्तव्य परायणता जागरूकता और पुरुषार्थ को सदा साथ रखना चाहिए। समय को बहुमूल्य सम्पत्ति समझ कर एक क्षण का भी निरर्थक न जाने देना चाहिए।

परोपकार, लोक सेवा, सत्कार्य के लिए दान, यज्ञ भावना से किया जाने वाला परमार्थ मद्य जीवन प्रत्यक्ष तप है। दूसरों के लाभ के लिए अपने स्वार्थों का बलिदान करना तपस्वी का जीवन प्रधान चिन्ह है। आज की स्थिति में प्राचीन काल की भांति अब तप नहीं किए जा सकते। अब शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं रह गई है कि भागीरथ, पर्वती या रावण के जैसे उग्र तप किये जा सकें। दीर्घ काल तक निराहार रहना या बिना विश्राम किए लम्बे समय तक साधना रत रहना आज सम्भव नहीं है। वैसा करने से शरीर तुरन्त पीड़ा ग्रस्त हो जायगा और प्राण संकट सामने आ जायगा।

सतयुग में लम्बे समय तक दान तप होते थे क्योंकि उस समय शरीर में वायु तत्व प्रधान था। त्रेता में शरीरों में अग्नितत्व की प्रधानता थी। द्वापर में जल तत्व अधिक था उन युगों में जो साधनाएं हो सकती थीं आज नहीं हो सकतीं क्योंकि आज कलयुग में मानव देहियों में पृथ्वीतत्व प्रधान है। पृथ्वी तत्व अन्य सभी तत्वों से स्थूल है इसलिए आधुनिक काल के शरीर उन तपस्याओं को नहीं कर सकते जो सतयुग त्रेता आदि में आसानी से होती थीं।

कुछ समय पूर्व तक नेति, धोति, वास्ति, न्योली, वज्रोली, कपालभाति आदि क्रियाएं आसानी से हो जाती थीं। उनके करने वाले अनेक योगी देखे जाते थे। पर अब युग प्रभाव से उन की साधना कठिन हो गई है। कोई विरले ही हठयोग में सफल हो पाते हैं। जो किसी प्रकार इन क्रियाओं को करने भी लगते हैं वे उनसे वह लाभ नहीं उठा पाते जो इन क्रियाओं से होना चाहिए।

अधिकांश हठयोगी तो इन कठिन साधनाओं के कारण किन्हीं कष्ट साध्य रोगों में ग्रसित हो जाते हैं। रक्त पित्त, अन्त्र दाह, मूत्राघात, कफ, अनिद्रा, जैसे रोगों से ग्रसित होते हुए हमने अनेक हठ योगी देखे हैं। इसलिए वर्तमान काल की शारीरिक स्थितियों का ध्यान रखते हुए तपश्चर्या में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। आज तो समाज सेवा, ज्ञान प्रचार, स्वाध्याय, दान, इन्द्रिय संयम आदि के आधार पर ही हमारी तप साधना होनी चाहिए।






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