गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

नाद साधना

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‘शब्द’ को ब्रह्म कहा है क्योंकि ईश्वर और जीव को एक शृंखला में बांधने का काम शब्द द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पंच तत्वों में सबसे पहले आकाश बना आकाश की तन्मात्रा शब्द है। अन्य समस्त पदार्थों की भांति शब्द भी दो प्रकार का है सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म शब्द को विचार कहते हैं और स्थूल शब्द को नाद।

ब्रह्म लोक से हमारे लिए ईश्वरीय शब्द प्रवाह सदैव प्रवाहित होता है। ईश्वर हमारे साथ वार्तालाप करना चाहता है पर हममें से बहुत कम लोग ऐसे हैं जो उसे सुनना चाहते हैं या सुनने की इच्छा करते हैं। ईश्वर निरन्तर एक ऐसी विचारधारा प्रेरित करता है जो हमारे लिए अतीव कल्याणकारी होती है, उसको यदि सुना और समझना जा सके तथा उसके अनुसार मार्ग निर्धारित किया जा सके तो निस्संदेह जीवनोद्देश्य की ओर द्रुत गति से अग्रसर हुआ जा सकता है। यह विचार धारा हमारी आत्मा से टकराती है।

हमारा अन्तःकरण एक रेडियो है जिसकी ओर यदि अभिमुख हुआ जाय, अपनी वृत्तियों को अन्तर्मुख बनाकर आत्मा में प्रस्फुटित होने वाली दिव्य विचार लहरियों का चुना जाय, तो ईश्वरीय वाणी हमें प्रत्यक्ष सुनाई पड़ सकती है। इसी को आकाशवाणी कहते हैं। हमें क्या करना चाहिए क्या नहीं? हमारे लिए क्या उचित है क्या अनुचित? इसका प्रत्यक्ष संदेश ईश्वर की ओर से प्राप्त होता है। अन्तःकरण की पुकार, आत्मा का आदेश, ईश्वरीय संदेश आकाशवाणी तत्वज्ञान आदि नामों से इसी विचारधारा को पुकारते हैं। अपनी आत्मा के यंत्र को स्वच्छ करके जो इस दिव्य संकेत को सुनने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं वे आत्मदर्शी एवं ईश्वर परायण कहलाते हैं।

ईश्वर उनके लिए बिलकुल समीप होता है वे ईश्वर की बातें सुनते हैं और अपनी उससे कहते हैं। इस दिव्य मिलन के लिए हाड़ मांस के स्थूल नेत्र या कानों का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मा की समीपता में बैठा हुआ अन्तःकरण अपनी दिव्य इन्द्रियों की सहायता से इस कार्य को आसानी से पूरा कर लेता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म ब्रह्म शब्द दिव्य विचार तब तक धुंधले रूप में सुनाई पड़ता है जब तक कषाय कल्मष आत्मा में बने रहते हैं जितनी जितनी आन्तरिक पवित्रता बढ़ती जाती है उतना ही यह दिव्य संदेश बिलकुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। आरम्भ में अपने लिए कर्तव्य का बोध होता है, पाप पुण्य का संकेत होता है, बुरा कार्य करते समय अन्तर में भय, घृणा, लज्जा, संकोच, आदि का होना तथा उत्तम कार्य करते समय आत्म संतोष, प्रसन्नता, उत्साह होना इसी स्थिति का बोधक है।

यह दिव्य सन्देश आगे चलकर भूत, भविष्य, वर्तमान की सभी घटनाओं को प्रकट करता है, किस के लिए क्या भवतव्य बन रहा है और भविष्य में किसके लिए क्या घटना घटित होने वाली है यह सब कुछ उसे प्रगट हो जाता है। और भी ऊंची स्थिति पर पहुंचने पर उसके लिए सृष्टि के सब रहस्य खुल जाते हैं, कोई ऐसी बात नहीं होती जो उससे छिपी हो, परन्तु जैसे ही इतना बड़ा ज्ञान उसे मिलता है वैसे ही वह उसका उपयोग करने में अत्यन्त सावधान हो जाता है। बाल बुद्धि के लोगों के हाथों में यह दिव्य ज्ञान पड़ जाय तो वे उसे बाजीगरी की खिलवाड़ खड़ी करने में ही नष्ट करदे पर अधिकारी पुरुष अपनी इस शक्ति का किसी को परिचय तक नहीं होने देते और उसे भौतिक बखेड़ों से पूर्णतया बचा कर अपनी तथा दूसरों की आत्मोन्नति में लगाते हैं।

शब्द ब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार सन्देश की अपेक्षा कुछ सूक्ष्म हैं वह है नाद। प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों के द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया कलाप चलता है। यह प्रारंभिक शब्द ‘ॐ’ है। यह ‘ॐ’ ध्वनि जैसे जैसे अन्य तत्वों के क्षेत्रों में होकर गुजरती है वैसे ही वैसे उसकी ध्वनि में अन्तर जाता है। वंशी के छिद्र में हवा फूंकते हैं तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है पर आगे के छिद्रों में से जिस छिद्र में जितनी हवा निकाली जाती है उसी के अनुसार भिन्न भिन्न स्वरों की ध्वनियां उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार ॐ ध्वनि भी विभिन्न तत्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर लहरियों में परिणत हो जाती है। इन स्वर लहरियों का सुनना ही नाद योग है।

पंच तत्वों से प्रति ध्वनित हुई ॐकार की स्वर लहरियों को सुनने की नाद योग साधना कई दृष्टियों से बड़ी महत्वपूर्ण है। प्रथम तो इस दिव्य संगीत से सुनने में इतना आनन्द आता है जितना किसी मधुर से मधुर वाद्य या गायन को सुनने में नहीं आता दूसरे इस नाद श्रवण से मानसिक तन्तुओं का प्रस्फुटन होता है। सर्प जब संगीत सुनता है तो उसकी नाड़ियों में एक विद्युत लहर प्रवाहित हो उठती है, मृग का मस्तिष्क मधुर संगीत सुन कर इतना उल्लासित हो जाता है कि उसे तन बदल का होश नहीं रहता, योरोप में गौऐं दुहते समय मधुर बाजे बजाये जाते हैं जिससे उनका स्नायु समूह उत्तेजित होकर अधिक मात्रा में दूध उत्पन्न करता है। नाद का दिव्य संगीत सुनकर मानव मस्तिष्क में भी ऐसी स्फुरणा होती है जिसके कारण अनेक गुप्त मानसिक शक्तियां विकसित होती हैं, इस प्रकार भौतिक और आत्मिक दोनों ही दिशाओं में प्रगति होती है।

तीसरा लाभ एकाग्रता है। एक वस्तु पर—नाद पर ध्यान एकाग्र होने से मन की बिखरी हुई शक्तियां एकत्रित होती है और इस प्रकार मन को वश में करने तथा निश्चित कार्य पर उसे पूरी तरह लगा देने की साधना सफल हो जाती है। यह सफलता कितनी शानदार है इसे प्रत्येक आध्यात्म मार्ग का जिज्ञासु भली प्रकार जानता है। आतिशी कांच द्वारा एक दो इंच जगह की सूर्य किरणें एकत्रित कर देने से अग्नि उत्पन्न हो जाती है। मानव प्राणी के सुविस्तृत शरीर में बिखरी हुई अनन्त दिव्य शक्तियों का एकीकरण ऐसी महान शक्ति उत्पन्न करता है जिसके द्वारा इस संसार को हिलाया जा सकता है और अपने लिए आकाश में मार्ग बनाया जा सकता है।

नाद की स्वर लहरियों को पकड़ते पकड़ते साधक ॐ की रस्सी को पकड़ता हुआ उस उद्गम ब्रह्म तक पहुंच जाता है जो आत्मा का अभीष्ट स्थान है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति, दूसरे शब्दों में मुक्ति, निर्वाण, परमपद आदि नामों से पुकारी जाती है। नाद के आधार पर मनोलय करता हुआ साधक योग की अंतिम सीढ़ी तक पहुंचता है और अभीष्ट लक्ष को प्राप्त कर लेता है। नाद का अभ्यास किस प्रकार करना चाहिए अब इस पर कुछ प्रकाश डालते हैं—

अभ्यास के लिए ऐसा स्थान तलाश कीजिए जो एकांत हो और जहां बाहर की अधिक आवाज न आती हों। तीक्ष्ण प्रकाश इस अभ्यास में बाधक है। इसलिए कोई अंधेरी कोठरी ढूंढ़नी चाहिए। एक पहर रात जाने के बाद से लेकर सूर्योदय से पूर्व तक का समय इसके लिए बहुत ही अच्छा है। यदि इस समय की व्यवस्था न हो सके तो प्रातः 9 बजे तक और शाम को दिन छिपे बाद का कोई समय नियत किया जा सकता है। नित्य नियमित समय पर अभ्यास करना चाहिए। अपने नियत कमरे में एक आसन या आराम कुर्सी बिछाकर बैठो। यदि आसन पर बैठो तो पीठ पीछे कोई मसन्द, या कपड़े की गठरी आदि रख लो। यह भी न हो तो अपना आसन एक कोने में लगाओ। जिस प्रकार शरीर को आराम मिले, उस तरह बैठ जाओ और अपने शरीर को ढीला छोड़ने का प्रयत्न करो।

भावना करो कि मेरा शरीर रुई का ढेर मात्र है और मैं इस समय इसे पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ रहा हूं। थोड़ी देर में शरीर बिलकुल ढीला हो जायगा और अपना भार अपने आप न सहकर इधर उधर को ढुलने लगेगा। आराम कुर्सी, मसन्द या दीवार का सहारा ले लेने से शरीर ठीक प्रकार अपने स्थान पर बना रहेगा। साफ रुई की मुलायम सी दो डाटें बना कर उन्हें कानों से इस प्रकार लगा लो कि बाहर की कोई आवाज भीतर प्रवेश न कर सके। उंगलियों से कान के छेद बन्द करके भी काम चल सकता है। अब बाहर की कोई आवाज तुम्हें सुनाई न पड़ेगी। यदि पड़े भी तो उस ओर से ध्यान हटा कर अपने मूर्धा स्थान पर ले आओ। और वहां जो शब्द हो रहे हैं, उन्हें ध्यान पूर्वक सुनने का प्रयत्न करो।

आरम्भ में शायद कुछ भी सुनाई न पड़े, पर दो चार दिन के प्रयत्न के बाद जैसे जैसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय निर्मल होती जायगी, वैसे ही वैसे शब्दों की स्पष्टता बढ़ती जायगी। पहले पहल कई प्रकार के शब्द सुनाई देते हैं। शरीर में जो रक्त प्रवाह हो रहा है। उसकी आवाज रेल की तरह धक् धक् धक् धक् सुनाई पड़ती है। वायु के आने जाने की आवाज बादल गरजने जैसी होती है, रसों के पकने और उनके आगे की ओर गति करने की आवाज चटकने की सी होती है। यह तीन प्रकार के शब्द शरीर की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार दो प्रकार के शब्द मानसिक क्रियाओं के हैं। मन में जो चंचलता की लहरें उठती हैं वे मानस तन्तुओं पर टकरा कर ऐसे शब्द करती हैं, मानो टीम के ऊपर मेह बरस रहा हो। और जब मस्तिष्क बाह्य ज्ञान को ग्रहण करके अपने में धारण करता है, तो ऐसा मालूम होता है मानों कोई प्राणी सांस ले रहा हो। यह पांचों शब्द शरीर और मन के है। कुछ ही दिन के अभ्यास से साधारणतः दो तीन सप्ताह के प्रयत्न से यह सब शब्द स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ते हैं। इन शब्दों के सुनने से सूक्ष्म इन्द्रियां निर्मल होती जाती हैं और गुप्त शक्तियों को ग्रहण करने की उनकी योग्यता बढ़ती जाती है।

जब नाद श्रवण करने की योग्यता बढ़ती जाती है, तो बंशी या सीटी से मिलती जुलती अनेक प्रकार की शब्दावलियां सुनाई पड़ती हैं, यह सूक्ष्म लोक में होने वाली क्रियाओं की परिचायक हैं। बहुत दिनों से बिछड़े हुए बच्चे को यदि उसकी माता की गोद में पहुंचाया जाता है, तो वह आनन्द से विभोर हो जाता है, ऐसा ही आनन्द सुनने वाले को आता है, जिन सूक्ष्म शब्द ध्वनियों को आज वह सुन रहा है।

वास्तव में वह उसी तत्व के निकट से आ रही है, जहां से कि आत्मा और परमात्मा का विलगाव हुआ है और जहां पहुंच कर दोनों फिर एक हो सकते हैं। धीरे धीरे यह शब्द स्पष्ट होने लगते हैं और अभ्यासी को उनके सुनने में अद्भुत आनन्द आने लगता है। कभी-कभी तो वह उन शब्दों में मस्त होकर आनन्द से विह्वल हो जाता है और अपने तन मन की सुध भूल जाता है। अन्तिम शब्द ॐ का है, यह बहुत ही सूक्ष्म है। इसकी ध्वनि घटा ध्वनि के समान होती है। घड़ियाल में हथौड़ी मार देने पर जैसे वह कुछ देर तक झन-झनाती रहती है, उसी प्रकार ‘ॐ’ का घन्टा शब्द सुनाई पड़ता है।

ॐकार ध्वनि जब सुनाई पड़ने लगती है तो निन्द्रा, तन्द्रा या बेहोशी जैसी दशा उत्पन्न होने लगती है। साधक तन मन की सुध भूल जाता है और समाधि सुख का—तुरीय अवस्था का, आनन्द लेने लगता है। उस स्थिति से ऊपर बढ़ने वाली आत्मा परमात्मा में प्रवेश करती जाती है और अन्ततः पूर्णतया परमात्म अवस्था को प्राप्त कर लेती है।

अनहद नाद का शुद्ध रूप है अनाहत नाद। आहत नाद वे होते हैं जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होने हैं। वाणी के आकाश तत्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘आहत’ कहे जाते हैं। बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अन्तराल से जो ध्वनियां उत्पन्न होती हैं उन्हें अनाहत या अनहद कहते हैं। इन शब्दों को सुनने को साधना को सुरत कहते हैं।

अनाहत या अनहद शब्द प्रमुखतः दश होते हैं जिनके नाम
1—  संहारक
2—  पालक
3—  सृजक
4—  सहस्रदल
5—  आनन्द मंडल
6—  चिदानन्द
7—  सच्चिदानन्द
8—  अखंड
9—  अगम
10—अलख है।

इनकी ध्वनियां क्रमशः पायजेब की झंकार सी, सागर की लहर की, मृदंग की, शंख की, तुरही की, मुरली की, बीन सी, सिंह गर्जन की, नफीरी की, बुलबुल की सी होती है।

जैसे अनेक रेडियो स्टेशनों से एक ही समय में अनेक प्रोग्राम ब्राडकास्ट होते रहते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार के अनाहत शब्द भी प्रस्फुटित होते रहते हैं। उनके कारण, उपयोग और रहस्य अनेक प्रकार हैं। 64 अनाहत अब तक गिने गये हैं पर उन्हें सुनना हर किसी के लिए संभव नहीं। जिनकी आत्मिक शक्ति जितनी ऊंची होगी वे उतने ही सूक्ष्म शब्दों को सुनेंगे। पर उपरोक्त दश शब्द सामान्य आत्म बल वाले भी आसानी से सुन सकते हैं।

यह अनहद सूक्ष्म लोकों की दिव्य भावना है। सूक्ष्म जगत में किस स्थान पर क्या हो रहा है, किस प्रयोजन के लिए कहां क्या आयोजन हो रहा है, इस प्रकार के गुप्त रहस्य इन शब्दों द्वारा जाने जा सकते हैं। कौन साधक किस ध्वनि को अधिक स्पष्ट और किस ध्वनि को मन्द सुनेगा यह उसकी अपनी मनोभूमि की विशेषता पर निर्भर है।

अनहद नाद एक बिना तार की दैवी संदेश प्रणाली है। साधक इसे जानकर सब कुछ जान सकता है। इन शब्दों में ‘ॐ’ ध्वनि आत्म कल्याण कारक और शेष धुनियां विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की जननी हैं। इस पुस्तक में उनका विस्तृत वर्णन नहीं हो सकता। गायत्री योग द्वारा आनन्दमय कोश के जागरण के लिए जितनी जानकारी की आवश्यकता है वह इन पृष्ठों पर दे दी गई है।





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