गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

तन्मात्रा साधना

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यह बात प्रकट है कि हमारा शरीर एवं समस्त संसार पंच तत्वों का बना हुआ है। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन पांच तत्वों की मात्रा में अन्तर होने के कारण विविध आकार प्रकार और गुण धर्म की वस्तुएं बन जाती हैं।

इन पांच तत्वों की जो सूक्ष्म शक्तियां हैं उनकी इन्द्रिय जन्य अनुभूति को ‘तन्मात्रा’ कहते हैं। शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं। यह पांच तत्वों से बने हुये पदार्थों के संसर्ग में आने पर जैसा अनुभव करती हैं उस अनुभव को ‘‘तन्मात्रा’’ नाम से पुकारते हैं। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श, यह पांच तन्मात्राएं हैं।

आकाश की तन्मात्रा—‘शब्द’ है यह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय है। अग्नि तत्व की तन्मात्रा ‘रूप’ है। यह अग्नि प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आंखें ही देखती हैं। जल तत्व की तन्मात्रा ‘रस’ है। रस का जल प्रधान इन्द्रिय जिव्हा द्वारा अनुभव होता है, षट् रसों का, खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कडुए, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है। पृथ्वी तत्व की तन्मात्रा ‘गंध’ है गंध को, पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है। इसी प्रकार वायु की तन्मात्रा स्पर्श का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तंतु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उनके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।

इन्द्रियों में तन्मात्राओं को अनुभव करने की शक्ति न हो तो संसार का और शरीर का सम्बन्ध ही टूट जाय। जीव को संसार में जीवन यापन की सुविधा भले ही हो, पर किसी प्रकार का आनन्द शेष न रहेगा। संसार के विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण प्रतीत होते हैं उनका एक मात्र कारण ‘‘तन्मात्रा’’ शक्ति है। कल्पना कीजिए कि हम संसार के किसी पदार्थ का रूप न देख सकें तो सर्वत्र अन्धकार प्रतीत होगा, शब्द सुन न सकें तो सर्वत्र मौन एवं नीरवता ही रहेगी, स्वाद न चख सकें तो खाने में कोई अन्तर न रहेगा। गंध का अनुभव न हो तो हानिकर सड़ांद और उपयोगी उपवन में क्या फर्क किया जा सकेगा। त्वचा की शक्ति न हो तो सर्दी, गर्मी, स्नान, वायु सेवन, कोमल शय्या, काम सेवन आदि से कोई प्रयोजन न रह जायेगा।

परमात्मा ने पंच तत्वों में तन्मात्राएं उत्पन्न करके और उनके अनुभव के लिए शरीर में ज्ञानेन्द्रियां बनाकर शरीर और संसार को आपस में घनिष्ठ आकर्षण के साथ संबद्ध कर दिया है यदि पंच तत्व केवल स्थूल ही होते, उनमें तन्मात्राएं न होतीं तो इन्द्रियों को संसार के किसी पदार्थ में कुछ आनन्द न आता। सब कुछ नीरस, निरर्थक और बेकार सा दीख पड़ता और यदि तत्वों में तन्मात्राएं होती तो पर शरीर में ज्ञानेन्द्रियां न होती तो जैसे वायु में फिरते रहने वाले कीटाणु केवल जीवन धारण ही करते हैं उन्हें संसार में किसी प्रकार की रसानुभूति नहीं होती, इसी प्रकार मानव जीवन भी नीरस हो जाता। इन्द्रियों की संवेदना शक्ति और तत्वों की तन्मात्राएं मिलकर प्राणी को ऐसे अनेक शारीरिक और मानसिक रस अनुभव कराती हैं जिनके लोभ से वह जीवन धारण किये रहता है। इस संसार को छोड़ना नहीं चाहता। उसकी यह चाहना ही जन्म मरण के चक्र में, भव बन्धन में बंधे रहने के लिए बाध्य करती है।

आत्मा की ओर न मुड़कर, आत्म कल्याण में प्रवृत्त न होकर सांसारिक वस्तुओं को संग्रह करने की, उनका स्वामी बनने की, उनके सम्पर्क की रसानुभूति को चखते रहने की लालसा में मनुष्य डूबा रहता है। रंग बिरंगे खिलौने से खेलने में जैसे बच्चे बेतरह तन्मय हो जाते हैं और खाना पीना सभी भूलकर खेल में लगे रहते हैं उसी प्रकार तन्मात्राओं के खिलौने मन में ऐसे बस जाते हैं, इतने सुहावने लगते हैं कि उनसे खेलना छोड़ने की इच्छा नहीं होती। कई दृष्टियों से कष्टकर जीवन व्यतीत करते हुए भी लोग करने को तैयार नहीं होते, मृत्यु का नाम सुनते ही कांपते हां, इसका एक मात्र कारण यही है कि सांसारिक पदार्थों की तन्मात्राओं में जो मोहक आकर्षण है वह कष्ट और अभाव की तुलना में मोहक और सरस है। कष्ट सहते हुए भी, उनके कारण खिन्न रहते हुए भी प्राणी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं होता।

पांच इन्द्रियों के खूंटे से, पांच तन्मात्राओं के रस्सों से, जीव बंधा हुआ है। यह रस्से बड़े ही आकर्षक हैं इन रसों में चमकीला रंगीन रेशम और सुनहरी कलाबत्त लगा हुआ है। खूंटे चांदी सोने के बने हुए हैं उनमें हीरे जवाहरात जगमगा रहे हैं। जीव रूपी घोड़ा इन खूंटों से, इन रस्सों से बंधा है। वह बंधन के दुख को भूल जाता है और रस्सों तथा खूंटों की सुन्दरता को देखकर छुटकारे की इच्छा करना तक छोड़ देता है। उसे वह बन्धन भी अच्छा लगता है। दिन भर गाड़ी में जुतने और चाबुक खाने के कष्टों को भी इन चमकीले रस्सों और खूंटों की तुलना में कुछ नहीं समझता। इसी बाल बुद्धि को अदूर दर्शिता को, वास्तविकता न समझने को, शास्त्रों में अविद्या, माया, भ्रान्ति आदि नामों से पुकारा गया है। और इस भूल से बचने के लिए अनेक प्रकार की धार्मिक कथा, गाथाओं उपासनाओं एवं साधनाओं का विधान किया गया है।

इन्द्रियों तथा तन्मात्राओं के मिश्रण से जो खुजली उत्पन्न होती है उसे ही खुजाने के लिए मनुष्य के विविध विचार और कार्य होते हैं। वह दिन रात इसी खाज को खुजाने के गोरख धन्धे में लगा रहता है। मन को वश में करने एवं एकाग्र करने में सबसे बड़ी बाधा यह खुजली है जो दूसरी ओर चित्त को जाने ही नहीं देती। खुजाने में जो मजा आता है उसकी तुलना में और सब बातें हलकी मालूम देती हैं। इसलिए एकाग्रता की साधना पर से मन अक्सर उचट जाता है।

तन्मात्राओं की रसानुभूति घोड़े की रस्सी अथवा खुजली के समान है, बहुत ही हल्की छोटी और महत्वहीन वस्तु है यह भावना अन्तःभूमि में जमाने के लिए, मनोमय कोश की सुव्यवस्था के लिए ‘तन्मात्राओं की साधना’ के अभ्यास बताये गये हैं। इन साधनाओं से अन्तःकरण यह अनुभव कर लेता है कि—‘तन्मात्राएं’ अमात्म वस्तु हैं। यह जड़ पंच तत्वों की सूक्ष्म प्रक्रिया मात्र हैं। यह मनोमय कोश में खुजली की तरह चिपट जाती हैं और एक निरर्थक का झमेला, गोरखधन्धा फंसा कर हमें लक्ष प्राप्ति से वंचित कर देती हैं। इसलिए इनकी वास्तविकता, व्यर्थता, एवं तुच्छता को भली प्रकार समझ लेना चाहिए।

आगे चलकर पांचों तन्मात्राओं की छोटी छोटी सरल साधनाएं बताई जायेंगी। जिनकी साधना करने से बुद्धि यह अनुभव कर लेती है, कि शब्द रूप, रस, गंध स्पर्श का जीवन को चलाने में केवल उतना ही उपयोगी है जितना मशीन के पुर्जों में तेल का। इनमें आसक्त होने की आवश्यकता नहीं है।

दूसरी बात यह भी है कि मन स्वयं एक इन्द्रिय है। उसका लगाव सदा तन्मात्राओं की ओर रहता है। मन का विषय ही रसानुभूति है। साधनात्मक रसानुभूति में उसे लगा दिया जाय तो अपने विषय में लगता भी है और उसे जो सूक्ष्म परिश्रम करना पड़ता है उसके कारण अति सूक्ष्म मनः शक्तियों का जागरण होने से अनेक प्रकार के मानसिक लाभ भी होते हैं।

अब पंच तन्मात्राओं की संक्षिप्त साधनाएं लिखी जाती हैं—





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