गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

स्वर संयम से दीर्घ जीवन

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प्रत्येक प्राणी का पूर्ण आयु प्राप्त करना, दीर्घजीवी होना उसकी श्वांस क्रिया पर अवलम्बित हैं। पूर्व कर्मों के अनुसार जीवित रहने के लिये परमात्मा एक नियत संख्या में श्वांस प्रदान करता है वह श्वांस समाप्त होने पर प्राणान्त हो जाता है। इस खजाने को जो प्राणी जितनी होशियारी से खर्च करेगा, वह उतने ही अधिक काल तक जीवित रह सकेगा और जो इन्हें जितना व्यर्थ गंवाएगा उतनी ही शीघ्र उसकी मृत्यु हो जायगी। सामान्यतः हर एक मनुष्य दिन रात में 21600 श्वांस लेता है। इससे कम श्वांस लेने वाला दीर्घ जीवी होता है क्योंकि अपने धन का जितना कम व्यय होगा, उतने ही अधिक काल तक वह संचित रहेगा। हमारी श्वांस की पूंजी की भी यही दशा है। विश्व के समस्त प्राणियों में जो जीव जितनी कम श्वांस लेता है,  वह उतना ही अधिक काल तक जीवित रहता है। नीचे की तालिका से इसका स्पष्टीकरण हो जाता है।

    नाम प्राणी    —     श्वांस की गति प्रति मिनट     —      पूर्ण आयु

    खरगोश                             38 बार                                 8 वर्ष
    बन्दर                                32 बार                               10 वर्ष
    कुत्ता                                29 बार                               12 वर्ष
    घोड़ा                                 19 बार                               25 वर्ष
    मनुष्य                              13 बार                             120 वर्ष
    सांप                                   8 बार                            1000 वर्ष
    कछुआ                               5 बार                            2000 वर्ष

साधारण काम काज करने में 12 बार दौड़ धूप करने में 18 बार और मैथुन करते समय छत्तीस बार प्रति मिनट के हिसाब से श्वांस चलती है, इसलिए विषयी और लम्पट मनुष्य की आयु घट जाती है और प्राणायाम करने वाले योगा अभ्यासी दीर्घकाल तक जीवित रहते हैं। यहां यह न सोचना चाहिए कि चुपचाप बैठे रहने से कम सांसें चलती हैं, इसलिये निष्क्रिय बैठे रहने से आयु बढ़ जायगी। ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि निकम्मे बैठे रहने से शरीर के अन्य अंग निर्बल, अशक्त और बीमार हो जायेंगे, तदनुसार उनकी श्वांस का वेग बहुत बढ़ जायगा इसलिये शारीरिक अंगों को स्वस्थ रखने के लिए परिश्रम करना आवश्यक है। किन्तु शक्ति से बाहर परिश्रम भी नहीं करना चाहिये।

सांस सदा पूरी और गहरी लेनी चाहिए तथा झुककर कभी न बैठना चाहिए। नाभि तक पूरा श्वांस लेने पर एक प्रकार से कुम्भक हो जाता है और श्वासों की संख्या घट जाती है। मेरु दण्ड के भीतर एक प्रकार का तरल जीवन तत्व प्रवाहित होता रहता है जो सुषुम्ना को बलवान बनाये रखता है, तदनुसार मस्तिष्क की पुष्टि होती रहती है यदि मेरु दण्ड को झुका हुआ रखा जाय तो उस तरल तत्व का प्रवाह रुक जाता है और निर्बल सुषुम्ना मस्तिष्क का पोषण करने से वंचित रह जाती है।

सोते समय चित्त होकर न लेटना चाहिये इससे सुषुम्ना स्वर चल कर विघ्न पैदा होने की संभावना रहती है। ऐसी दशा में अशुभ तथा भयानक स्वप्न दिखाई पड़ते हैं। इसलिये भोजनोपरांत प्रथम बांए फिर दाहिने करवट लेटना चाहिये। भोजन के बाद कम से कम 15 मिनट आराम किये बिना सफल करना भी उचित नहीं है।

शीतलता से अग्नि मन्द पड़ जाती है और उष्णता से तीव्र होती है। वह प्रभाव हमारी जठराग्नि पर भी पड़ता है। सूर्य स्वर में पाचन शक्ति की वृद्धि रहती है, अतएव इसी स्वर में भोजन करना उत्तम है। इस नियम को सब लोग जानते हैं कि भोजन के उपरान्त बांए करवट लेटने से दक्षिण स्वर चलता है, जिसके पाचन शक्ति प्रदीप्त होती है।

इड़ा पिंगला और सुषुम्ना की गति विधि पर ध्यान रखने से वायु तत्व पर अपना अधिकार होता है। वायु के माध्यम से कितनी ही ऐसी बातें जानी जा सकती हैं जिन्हें साधारण लोग नहीं जानते। मकड़ी को वर्षा से बहुत पहले पता लग जाता है कि अब मेघ बरसने वाला है तदनुसार वह अपनी रक्षा का प्रबंध पहले से ही कर लेती है कारण यह है कि वायु के साथ वर्षा का सूक्ष्म संयोग मिला रहता है। उसे मनुष्य नहीं समझ पाता पर मकड़ी की चेतना यह अनुभव कर लेती है कि इतने समय बाद इतने वेग से, इतना पानी बरसने वाला है मकड़ी में जैसी सूक्ष्म वायु परीक्षण चेतना होती है उससे भी अधिक प्रबुद्ध चेतना स्वर योगी को मिल जाती है। वह वर्षा गर्मी ही नहीं वरन् उससे सूक्ष्म बातें, भविष्य की संभावनाएं, परिवर्तन-शीलताएं, विलक्षणताएं अपनी दिव्य दृष्टि से जान लेता है।

कई स्वर ज्ञाता, ज्योतिषियों की भांति इस विद्या द्वारा भविष्य वक्ताओं जैसा व्यवसाय करते हैं। स्वर के आधार पर ही एक मूक प्रश्न, तेजी मंदी, खोई वस्तु का पता, शुभ अशुभ मुहूर्त आदि बातें बताते हैं। असफल होने की आशंका वाले दुस्साहस पूर्ण कार्य करने वाले लोग भी स्वर का आश्रय लेकर अपना काम करते हैं। चोर डाकू आदि इस संबंध में विशेष ध्यान रखते हैं। व्यापार, राजद्वार चिकित्सा आदि जोखिम और जिम्मेदारी के कामों में भी स्वर विद्या के नियमों का ध्यान रखा जाता है। इस संबंध में अखंड ज्योति प्रेस से स्वर योग में दिव्य ज्ञान पुस्तक अलग से छप चुकी है। इसके अतिरिक्त और भी अन्यत्र ग्रन्थ उपलब्ध है। उस सुविस्तृत ज्ञान का विवेचन यहां नहीं हो सकता। इस समय तो हमें केवल यह विचार करना है कि स्वर साधना से विज्ञानमय कोश की सुव्यवस्था में हमें किस प्रकार सहायता मिल सकती है।






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