गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

मनोमय कोश

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पंच कोशों में तीसरा मनोमय कोश है। इसे गायत्री का तृतीय मुख भी कहा गया है। मन बड़ा चंचल और वासना मय है। यह सुख प्राप्ति की अनेक कल्पनाएं किया करता है। कल्पनाओं के यह ऐसे रंग बिरंगे चित्र तैयार करता है कि उन्हें देख कर बुद्धि भ्रमित हो जाती है और मनुष्य ऐसे कार्यों को अपना लेता है जो उसके लिए अनावश्यक एवं हानिकर होते हैं, तथा जिनके लिए उसे पीछे पश्चात्ताप करना पड़ता है। अच्छे और प्रशंसनीय कार्य भी मन की कल्पना पर अवलंबित हैं। मनुष्य को नारकीय एवं घृणित पतितावस्था तक पहुंचा देना तथा उसे महा मानव-भूसुर बना देना मन का ही खेल है।

मन में प्रचंड प्रेरक शक्ति है। इस प्रेरक शक्ति से अपने कल्पना चित्रों को वह ऐसा सजीव कर देता है कि मनुष्य बालक की तरह उसे प्राप्त करने के लिए दौड़ने लगता है। रंग बिरंगी तितलियों के पीछे जैसे बच्चे दौड़ते फिरते हैं, तितलियां जिधर जाती हैं उधर ही उन्हें भी जाना पड़ता है। इसी प्रकार मन में जैसी कल्पनाएं, इच्छाएं, वासनाएं, आकांक्षाएं, लालसाएं, तृष्णाएं उठती हैं उसी ओर शरीर चल पड़ता है।

चूंकि सुख की आकांक्षा ही मन के अन्तराल में प्रधान रूप से काम करती है। इसलिए वह जिस बात में भी, जिस जिस दिशा में सुख प्राप्ति की कल्पना कर सकता है उसी के अनुसार एक सुन्दर मनमोहक रंग बिरंगी योजना तैयार कर देता है, मस्तिष्क उसी ओर लपकता है। शरीर उसी दिशा में काम करता है। परन्तु साथ ही मन की चंचलता भी प्रसिद्ध है इसलिए वह नई कल्पनाएं करने में भी पीछे नहीं रहता। कल की योजना पूरी नहीं हो पाई थी कि उससे भी नई एक और तैयार हो गई। पहली को छोड़कर नई में प्रवृत्ति हुई। फिर यही क्रम आगे भी चला। उसे छोड़कर और नया आयोजन किया गया।

इस प्रकार अनेक अधूरी योजनाएं पीछे छूटती जाती है और नई बनती जाती है। अनियंत्रित मन का यही कार्यक्रम है। वह मृग तृष्णाओं में मनुष्य को भटकाता है और असफलताओं की, अधूरे कार्यक्रमों की, अगणित ढेरियां लगाकर जीवन को मरघट जैसा कर्कश बना देता है।

गीता में कहा गया है कि मन की मनुष्य का शत्रु और मन ही मित्र है। बन्धन और मोक्ष का कारण भी यही है। वश में किया हुआ मन अमृत के समान और अनियंत्रित मन को हलाहल विष जैसा अहितकर बताया गया है। कारण यह है कि मन के ऊपर जब कोई नियंत्रण या अनुशासन नहीं होता तो वह सबसे पहले इन्द्रिय भोगों में सुख खोजने के लिए दौड़ता है।

जीभ से तरह तरह के स्वाद चाटने की लपक उसे सताती है। रूप यौवन के क्षेत्र में काम किलोल करने के लिए इन्द्र के परिस्तान का कल्पना जगत में ला खड़ा करता है। नृत्य, गीत वाद्य, मनोरंजन सैर सपाटा, मनोहर दृश्य सुवासित पदार्थ उसे लुभाते हैं और उसके निकट अधिक से अधिक समय बिताना चाहता है। सरकस, थियेटर, सिनेमा, क्लब, खेल आदि के मनोरंजन क्रीड़ा स्थल उसे रुचिकर होते हैं। शरीर को सजाने या आराम देने के लिए बहुमूल्य वस्त्राभूषण, उपचार, मोटर, विमान आदि सवारियां, कोमल पलंग पंखे आदि की व्यवस्था आवश्यक प्रतीत होती है। इन सब भोगों को भोगने एवं वाहवाही लूटने अहंकार की पूर्ति करने, बड़े बनने, का शौक पूरा करने के लिए अधिकाधिक धन की आवश्यकता होती है। उसके लिए अर्थ संचय करना, अर्थ संग्रह की योजना बनाना, मन का प्रधान काम हो जाता है।

असंस्कृत, छुट्टल मन प्रायः इन्द्रिय भोग, अहंकार की तृप्ति और धन संचय के तीन क्षेत्रों में ही सुख ढूंढ़ पाता है। उसके ऊपर कोई अंकुश न होने से वह उचित अनुचित का विचार नहीं करता, और ‘‘जैसे बने वैसे करने’’ की नीति अपनाकर जीवन की गति विधि को कुमार्ग गामी बना देता है। मन की दौड़ स्वच्छन्द हो जाने पर बुद्धि का अंकुश भी नहीं रहता फल स्वरूप एक योजना छोड़ने, दूसरी अपनाने में योजना के गुण दोष ढूंढ़ने की कोई बाधा नहीं रहती।

पाशविक इच्छाओं की पूर्ति के लिए अव्यवस्थित कार्यक्रम बनाते बिगाड़ते रहना और उस अव्यवस्था के कारण जो उलझनें उत्पन्न होती हैं उनमें भटकते हुए ठोकरें खाते रहना, साधारणतः यही एक कार्य प्रणाली सभी स्वच्छंद मन वालों की होती है। इसकी प्रतिक्रिया जीवन भर क्लेश, असफलता, असंतोष, पाप, अनीति, निन्दा और दुर्गति होना ही हो सकती है।

मन को वश में होने का अर्थ है उसका बुद्धि के विवेक के नियन्त्रण में होना। बुद्धि जिस बात में औचित्य अनुभव करे, कल्याण देखे, आत्मा का हित, लाभ और स्वार्थ समझे उसके अनुरूप कल्पना करने, योजना बनाने, प्रेरणा देने का काम करने को मन तैयार हो जाय तो समझना चाहिए कि मन वश में हो गया। कण कण में अनावश्यक दौड़ लगाना, निरर्थक स्मृतियां और कल्पनाओं में भ्रमण करना अनियंत्रित मन का काम है। जब वह वश में हो जाता है तो जिस एक काम पर लगा दिया उस में लग जाता है।

मन की एकाग्रता एवं तन्मयता में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि उस शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती। जितने भी विद्वान, लेखक, कवि, वैज्ञानिक, अन्वेषक, नेता, महापुरुष अब तक हुए हैं। उन्होंने मन की एकाग्रता से ही काम किया है।

सूर्य की किरणें चारों ओर बिखरी पड़ी रहती हैं उनका कोई विशेष उपयोग नहीं होता। पर जब आतिशी शीशे द्वारा उन किरणों को एकत्रित कर दिया जाता है। तो जरा से स्थान की धूप से अग्नि जल उठती है और उस जलती हुई अग्नि से भयंकर दावानल लग सकती है एक दो इंच क्षेत्र में फैली हुई धूप का केन्द्रिय करण भयंकर दावानल के रूप में प्रकट हो सकता है। मन को बिखरी हुई कल्पना, आकांक्षा और प्रेरणा शक्ति भी जब एक केन्द्र बिन्दु पर एकाग्र होती है तो उसके फलितार्थों की कल्पना मात्र से आश्चर्य होता है।

पातंजलि ऋषि ने ‘योग’ की परिभाषा करते हुए कहा है कि ‘‘योगिश्चित्तवृत्ति निरोधः’’ अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना, रोक कर एकान्त करना ही योग है। योग साधना का विशाल कर्मकाण्ड इसलिए है कि चित्त वृत्तियां एक बिन्दु पर केन्द्रित होने लगें तथा आत्मा के आदर्शानुसार उनकी गति उनकी गतिविधि हो। इस कार्य में सफलता मिलते ही आत्मा अपने पिता परमात्मा में सन्निहित समस्त ऋषि सिद्धियों का स्वामी बन जाता है वश में किया हुआ मन ऐसा शक्तिशाली अस्त्र है कि उसे जिस ओर भी प्रयुक्त किया जायगा उसी ओर आश्चर्य जनक चमत्कार उपस्थित हो जायेंगे। संसार के किसी कार्य में उसे लगाया जाय तो उसी दशा में सफलता प्राप्त होगी। धन, ऐश्वर्य नेतृत्व, प्रतिभा, यश, विद्या, स्वास्थ्य, भोग, अन्वेषण आदि जो भी वस्तु अभीष्ट होगी वह वशवर्ती मन के प्रयोग से निश्चय ही प्राप्त होकर रहेगी। उसकी प्राप्ति में संसार की कोई शक्ति बाधक नहीं हो सकती।

सांसारिक उद्देश्य ही नहीं उससे पारमार्थिक आकांक्षाएं भी पूरी होती हैं। समाधि सुख ‘मनोलय’ का ही एक चमत्कार है। एकान्त मन से की हुई उपासना से इष्टदेव का सिंहासन हिल जाता है और उसे गज के लिए गरुड़ को छोड़ कर नंगे पैर भागने वाले भगवान की तरह भागना पड़ता है। अधूरे मन की साधना अधूरी और स्वल्यवीर्य होने से न्यून फल दायक होती है परन्तु एकाग्र वशवर्ती मन तो वह लाभ क्षण भर में प्राप्त कर लेता है जो योगी लोगों को जन्म जन्मान्तरों को तपस्या से मिलता है। सदन कसाई, गणिका, गीध, अजामिल आदि असंख्य पापी जो जीवन भर दुष्कर्म करते रहे, क्षण भर के आर्तनाद से तर गये।

मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म, पर्सनल मेग्नेटिज्म, मेन्टलथेपी, आकल्ट साइंस, मेंटल हीलिंग, स्प्रिचुआलिज्म आदि के चमत्कारों की पाश्चात्य देशों में धूम है। तंत्र क्रिया मंत्र शक्ति, प्राण विन्मिय, सावर विद्या, छाया पुरुष, पिशाच सिद्धि, शव साधन, दृष्टिबंध, अभिबार, घात चौकी सर्प कीलन, जादू आदि चमत्कारी व्यक्तियों से भारतवासी भी चिर परिचित हैं। यह सब खेल-खिलौने एकाग्र मन की प्रचण्ड संकल्प शक्ति के छोटे-छोटे मनोविनोद मात्र हैं।

संकल्प की पूर्ण शक्ति से हमारे पूजनीय पूर्वक परिचित थे जिन्होंने अपने महान आध्यात्मीय गुणों के कारण समस्त भूमण्डल पर चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित किया था और जिन्हें जगद्गुरु कहकर सर्वत्र पूजा जाता है। उनकी संकल्प शक्ति ने भूलोक, स्वर्गलोक, पाताल लोक को पड़ोसी मुहल्लों की तरह सम्बद्ध कर लिया था। उस शक्ति के थोड़े-थोड़े भौतिक चमत्कारों को लेकर अनेकों व्यक्तियों ने रावण जैसी उछल-कूद मचाई थी। परन्तु अधिकांश योगियों ने मन की एकाग्रता से उत्पन्न होने वाली प्रचण्ड शक्ति को स्व, पर कल्याण में ही लगाया था।

अर्जुन को पता था मन को वश में करने से कैसी अद्भुत सिद्धियां मिल सकती हैं। इसलिए उसने गीता में भगवान कृष्ण से पूछा है कि—‘‘हे अच्युत ! मन को वश में करने की विद्या मुझे बताइए, क्योंकि यह वायु को वश में करने के समान कठिन है’’ महत्वपूर्ण वस्तुओं की प्राप्ति स्वभावतः कठिन होती है वश में किया हुआ मन भूलो का कल्प वृक्ष है ऐसे महान पदार्थ को प्राप्त करना कठिन होना भी चाहिए।

अर्जुन ने ठीक ही कहा है कि मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान कठिन है। वायु को तो यंत्रों के द्वारा किसी डिब्बे में बंद भी किया जा सकता है पर मन को वश में करने का तो कोई यंत्र भी नहीं है।

भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दो उपाय मन को वश में करने के बताये हैं

(1) अभ्यास,
(2) वैराग्य।

अभ्यास का अर्थ है—वे योग साधनाएं जो मन को रोकती हैं।
वैराग्य का अर्थ है—व्यवहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना।

विषम विकार, आलस प्रमाद, दुव्यर्य, दुराचार, लोलुपता समय का दुरुपयोग, कार्यक्रम की अव्यवस्था आदि कारणों से सांसारिक अधोगति होती है और लोभ, मोह, क्रोध, तृष्णा आदि से मानसिक अधःपतन होता है।

शारीरिक मानसिक और सामाजिक बुराइयों से बचते हुए सादा, सरल आदर्शवादी शान्तिमय जीवन बिताने की कला वैराग्य कहलाती है। कई आदमी घर छोड़कर भीख-टूक मांगते फिरना, विचित्र वेश बनाना, अव्यवस्थित कार्य क्रम से जहां तहां मारे-मारे फिरना ही वैराग्य समझते हैं और ऐसा ही ऊटपटांग जीवन बनाकर पीछे परेशान होते हैं। वैराग्य का वास्तविक तात्पर्य है रोगों से निवृत्त होना।

बुरी भावनाओं और आदतों से बचने का अभ्यास करने के लिए ऐसे वातावरण में रहना पड़ता है जहां उनसे बचने का अवसर हो। तैरने के लिये पानी का होना आवश्यक है। तैरने का प्रयोजन ही यह है कि पानी में डूबने के खतरे से बचने की योग्यता मिल जाय। पानी से दूर रहकर तैरना नहीं आ सकता। इसी प्रकार राग द्वेष जहां उत्पन्न होते हैं उस क्षेत्र में रहकर उन बुराइयों पर विजय प्राप्त करना ही वैराग्य की सफलता है।

कोई व्यक्ति जंगल में एकान्त वासी रहे तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह वैरागी हो गया क्योंकि जंगल में उसके वैराग्य की परीक्षा नहीं होती। जब तक परीक्षा द्वारा यह नहीं जान लिया गया कि हमने राग उत्पन्न करने वाले अवसर होते हुए भी उन पर विजय प्राप्त करली तब तक यह नहीं समझना चाहिए कि कोई एकान्त वासी वस्तुतः वैरागी ही है। प्रलोभनों को जीतना ही वैराग्य है और यह विजय वहीं हो सकती है जहां वे बुराइयां मौजूद हों। इसलिए गृहस्थ में, सांसारिक जीवन में, सुव्यवस्थित रहकर रागों पर विजय प्राप्त करने का वैराग्य प्राप्त करना चाहिए।

अभ्यास के लिए योग शास्त्रों में ऐसी कितनी ही साधनाओं का वर्णन है जिनके द्वारा मन की चंचलता घुड़दौड़ विषयलोलुपता और ऐषणा प्रवृत्ति को रोककर उसे ऋतम्भरा बुद्धि के, अन्तरात्मा के, आधीन किया जा सकता है। इन साधनाओं को ‘मनोलय’ योग कहते हैं।

मनोलय के अन्तर्गत

1-ध्यान
2-त्राटक
3-जप
4-तन्मात्रा साधन,

यह चार साधन प्रधान रूप से आते हैं। इन चारों का मनोमय कोश की साधना में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।





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