गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

गायत्री मंजरी

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जिस पुस्तक की व्याख्या स्वरूप, यह पुस्तक लिखी गई है, उस ‘गायत्री मंजरी’ को हिन्दी टीका समेत नीचे दिया जा रहा है :—

एकदा तु महादेवं कैलाश गिरि संस्थितम् ।
पप्रच्छ पार्वती वन्द्या वन्द्यं विवुध मण्डलैः ।1।

एक बार कैलाश पर्वत पर विराजमान देवताओं के पूज्य महादेव जी से वन्दनीय पार्वती ने पूंछा।

कतमं योगमासीनो योगेश त्वमुपाससे ।
येन हि परमां सिद्धिं प्राप्नुवान् जगदीश्वर ।2।

हे संसार के स्वामी योगीश्वर महादेव आप किस योग की उपासना करते हैं जिससे आप परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं।

श्रुत्वा तु पार्वती वाचं मधुसिक्तां श्रुति प्रियाम् ।
समुवाच महादेवो विश्व कल्याण कारणः ।3।

कर्ण प्रिय एवं मधुर पार्वती की वाणी को सुनकर विश्व का कल्याण करने वाले महादेव जी बोले।

महद्रहस्यं तद्गुप्तं यत्तु पृष्ठं त्वया प्रिये ।
तथापि कथयिष्यामि स्नेहात्तत्त्वा महं समम् ।4।

फिर भी स्नेह के कारण वह सारा रहस्य में तुमसे कहूंगा।

गायत्री वेद मातास्ति साद्या शक्तिर्मता भुवि ।
जगतां जननी चैव तामुपासेऽहमेव हि ।5।

गायत्री वेद माता है, पृथ्वी पर वह आद्य शक्ति कहलाती है और वह ही संसार की माता है। मैं उसी की उपासना करता हूं।

योगिकानां समस्तानां साधनानां तु हे प्रिये ।
गायत्र्येव मता लोके मूलधारो विदांवरैः ।6।

हे प्रिये समस्त यौगिक साधनाओं की मूलाधार विद्वानों ने गायत्री को ही माना है।

अति रहस्य मय्येषा गायत्री तु दश भुजा ।
लोकेऽति राजते पञ्च धारयन्ति मुखानि तु ।7।

दस भुजाओं वाली अत्यन्त रहस्यमयी यह गायत्री संसार में पांच मुखों को धारण करती हुई अत्यन्त शोभित होती है।

अति गूढ़ानि संश्रुत्वचानानि शिवस्य च ।
अति सबृद्ध जिज्ञासा शिवमूचे तु पार्वती ।8।

शिव के अत्यन्त गूढ वचनों को सुनकर अतिवृद्ध जिज्ञासा वाली पार्वती ने शिव से पूंछा।

पञ्चास्य दशवाहु नामेतेषां प्राण वल्लभ ।
कृत्वां कृपां कृपालोत्वं किं रहस्यं तु में वद ।9।

हे प्राण बल्लभ कृपालु कृपा करके इन पांच मुख और दस भुजाओं का रहस्य मुझे बतलाइये ।

श्रुत्वात्वे तन्महादेवः पार्वती वचनं मृदु ।
तस्याः शंका मया कुर्वन् प्रत्युवाच निजां प्रियाम् ।10।

पार्वती के इन कोमल वचनों को सुन कर महादेवी पार्वती की शंका का समाधान करते हुए अपनी प्रिया पार्वती से बोले।

गायत्र्यास्तु महाशक्तिर्विद्यते याहि भूतल ।
अनन्य भावतोऽह्यस्मिनोतप्रोतोऽस्ति चामनि ।11।

पृथ्वी पर गायत्री को जो महान् शक्ति है वह इस आत्मा में अनन्य भाव से ओत प्रोत हो रही है।

विभिर्ति पंचावरणान् जीवः कोशास्तु ते मताः ।
मुखानि पंच गायत्र्या स्तानेव वेद पार्वति ।12।

जीव पंच आवरणों को धारण करता है वे ही कोश कहलाते हैं। हे पार्वती उन्हीं को गायत्री के पांच मुख समझो।

विज्ञानमयान्नमय प्राणमय मनोमयाः ।
तथानन्दमयश्चैव पंच कोशाः प्रकीर्तिताः ।13।

अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, और आनन्दमय ये पांच कोश कहलाते हैं।

एष्वेव कोश कोशेषु ह्यनन्ता ऋद्धि सिद्धयः ।
गुप्ता आसाद्य या जीवो धन्यत्वमधि गच्छति ।14।

इन्हीं कोश रूपी भण्डारों में अनन्त ऋषि सिद्धियां छिपी हुई हैं जिन्हें पाकर जीव धन्य हो जाता है।

यस्तु योगीश्वरो ह्येतान् पंचकोशान्नु वेधते ।
स भव सागरं तीर्त्वा वन्धनेभ्यो विमुच्यते ।15।

जो योगी इन पांच केशों को बेधता है वह भव सागर को पार कर बन्धनों से छूट जाता है।

गुप्तं रहस्यमेतेषां कोशाणां योऽवगच्छति ।
परमां गतिमाप्नोति से एव नात्र संयः ।16।

जो इन कोशों के गुप्त रहस्य को जानता है वह निश्चय ही परम गति को प्राप्त करता है।

लोकानां तु शरीराणि ह्यन्नादेव भावन्ति नु ।
उपत्यकासु स्वास्थ्यं च निर्भरं वर्तते सदा ।17।

मनुष्यों के शरीर अन्न से बनते हैं। उपत्यिकाओं पर स्वास्थ्य निर्भर रहता है।

आसनेनोप वासेन तत्व शुद्ध्या तपस्यया ।
चैनान्नमय कोशस्य संशुद्धिरभि जायते ।18।

आसन, उपवास, तत्व शुद्धि और तपस्या से अन्नमय कोश की शुद्धि होती है।

ऐश्वर्य पुरुषार्थश्च तेज ओजो यशस्तथा ।
प्राणशक्त्या तु वर्धन्ते लोकानामित्यसंशयम् ।19।

प्राण शक्ति से मनुष्यों का ऐश्वर्य, पुरुषार्थ, तेज, ओज, एवं यश निश्चय से बढ़ते हैं।

पंचभिस्तु महाप्राणैर्लघुप्राणैश्च पंचभिः ।
एतै प्राणमयः कोशों जातो दशभिरुत्तमः ।20।

पांच महा प्राण और पांच लघु प्राण इन दस से उत्तम प्राणमय कोश बना है।

बन्धेन मुद्रयाचैव प्राणायामेन चैव हि ।
एषः प्राणमयः कोशो यतमानं तु सिद्ध यति ।21।

बन्ध मुद्रा और प्राणायाम द्वारा यत्नशील पुरुष को यह प्राणमय कोश सिद्ध होता है।

चेतनाया हि केन्द्रं तु मनुष्याणां मनो मतम् ।
जायते महतीत्वन्तः शक्तिस्तस्मिन् वशंगते ।22।

मनुष्यों में चेतना का केन्द्र मन माना गया है उसके वश में होने से महान अन्तः शक्ति पैदा होती है।

ध्यान त्राटक तन्मात्रा जपानां साधनैर्नंनु ।
भवत्यत्युज्वलः कोशः पार्वत्येश मनोमयः ।23।

ध्यान, त्राटक, तन्मात्रा और जप इनकी साधना करने से हे पार्वती मनोमय कोश अत्यन्त उज्वल हो जाता है। यह निश्चय है।

यथावत् पूर्णतो ज्ञानं संसारस्य च स्वस्य च ।
नूनामित्येब विज्ञानं प्रोक्तं विज्ञान वेतृभिः ।24।

संसार का और अपना ठीक ठीक और पूरा पूरा ज्ञान होने को ही विज्ञान वेत्ताओं ने विज्ञान कहा है।

साधना सोऽहमित्येषा तथा वात्मानुभूतयः ।
स्वराणां संयमश्चैव ग्रन्थिभेदस्तथैव च ।25।

एषां संसिद्धिभिर्नून यतामानस्य ह्यात्मिनि ।
नु विज्ञानमयः कोशः प्रिये याति प्रबुद्धताम् ।26।

सोऽहं की साधना, आत्मानुभूति, स्वरों का संयम और ग्रन्थि भेद इनकी सिद्धि से यत्नशील की आत्मा में हे प्रिये विज्ञानमय कोश प्रबुद्ध होता है।

आनन्दावरणोन्नत्यात्यन्त शान्ति प्रदायिका ।
तुरीयावस्थितिर्लोके साधकं त्वधि गच्छति ।27।

आनन्द आवरण की उन्नति से अत्यन्त शान्ति को देने वाली तुरीयावस्था साधक को संसार में प्राप्त होती है।

नादा विन्दु कलानातु पूर्णा साधनया खलु ।
नन्वानन्द मयः कोशः साधकेहि प्रबुद्ध्यते ।28।

नाद, विन्दु और कला की पूर्ण साधना से साधक में आनन्दमय कोश जाग्रत होता है।

भूलोकस्यास्य गायत्री कामधेनुर्मता बुधैः ।
लाक आश्रयनेनामु सर्वमे बाधि गच्छति ।29।

विद्वानों ने गायत्री को भूलोक की कामधेनु माना है। संसार इसका आश्रय लेकर सब कुछ प्राप्त कर लेता है।

पंचास्यायास्तु गायत्र्याः विद्यां यस्त्वव गच्छति ।
पंचतत्व प्रपंचात्तु सनूनं हि प्रमुच्यते ।30।

पांच मुख वाली गायत्री विद्या को जो जानता है यह निश्चय ही पंच तत्वों के प्रपंच से छूट जाता है।

दशभुजास्तु गायत्र्याः प्रसिद्धा भुवनेषुयाः ।
पंच शूल महा शुलान्येताः संकेतयन्ति हि ।31।

संसार में गायत्री की जो दश भुजाएं प्रसिद्ध हैं ये भुजाएं पांच शूल और पांच महाशूल की ओर संकेत करती हैं।

दशभुजानामेतासां यो रहस्यं तु वेत्तिसः ।
त्रासं शूल महाशूलानां ना नैवावगच्छति ।32।

जो मनुष्य इन दश भुजाओं के रहस्य को जानता है वह शूल और महाशूल के भय को नहीं पाता।

दृष्टिस्तु दोष सन्दुष्टा परेषामवलम्बनम् ।
भयश्च क्षुद्रता सावधानता स्वार्थ युक्तता ।33।
अविवेकस्तथावेश स्तृष्णालस्यं तथै बच ।
एतानि दश शूलानि शूलदानि भवन्ति हि ।34।

दोषयुक्त दृष्टि, परावलम्बन, भय, क्षुद्रता, असावधानी, स्वार्थपरता, अविवेक, आवेश, तृष्णा, ये दुखदायी दस शूल होते हैं।

निजैर्दश भुजैर्नूनं शूलान्येतानि तु दश ।
संहरते हि गायत्री लोक कल्याण कारिणी ।35।

संसार का कल्याण करने वाली गायत्री अपनी दश भुजाओं से इस दश शूलों का संहार करती है।

कलौ युगे मनुष्याणां शरीराणीति पार्वति ।
पृथ्वी तत्व प्रधानानि जानास्येव भवन्तिहि ।36।

हे पार्वती कलियुग में मनुष्यों के शरीर पृथ्वी तत्व प्रधान होते हैं यह तो तुम जानती ही हो।

सूक्ष्मतत्व प्रधानान्य युगोद्भूत नृणामतः ।
सिद्धिनां तपसामेते न भवन्त्यधिकारिणः ।37।

इसलिये अन्य युग में पैदा हुए सूक्ष्म तत्व प्रधान मनुष्यों की सिद्धि और जप के ये अधिकारी नहीं होते।

पंचांग योग संसिद्ध या गायत्र्यास्तु तथापि ते ।
तद्युगानां सर्वश्रेष्ठां सिद्धिं संप्राप्नुवन्त हि ।38।

फिर भी वे गायी के पंचांग योग की सिद्धि द्वारा उन युगों की सर्व श्रेष्ठ सिद्धि को प्राप्त करते हैं।

गायत्र्या वाम मार्गीयं ज्ञेयमत्युच्चसाधकैः ।
उग्रं प्रचण्डम यन्तं वर्तते तंत्र साधनमृ ।39।

उत्कृष्ट साधकों द्वारा जानने योग्य गायत्री का वाम मार्गी तंत्र साधन अत्यन्त उग्र और प्रचण्ड है।

अत एव तु तद्गुप्तं राक्षतं हि विचक्षणैः ।
स्याद्यतो दुरुपयोगो न कुपात्रैः कथंचन ।40।

इसलिये विद्वानों ने इसे गुप्त रखा है जिससे कुपात्रों द्वारा उसका किसी प्रकार दुरुपयोग न हो।

गुरुणैव प्रिये विद्या तत्वं हृदि प्रकाश्यते ।
गुरुं बिना तु सा विद्या सर्वथा निष्फला भवेत् ।41।

हे प्रिये, विद्या का तत्व गुरु के द्वारा ही हृदय में प्रकाशित किया जाता है। बिना गुरु के वह विद्या नितान्त निष्फल हो जाती है।

गायत्री तु परा विद्या तत्फला वाप्त ये गुरुः ।
साधकेन विद्यातव्यो गायत्री तत्व पंडितः ।42।

गायत्री परा विद्या है अतः उसके फल की प्राप्ति के लिये साधक को ऐसा गुरु करना चाहिये जो गायत्री तत्व का ज्ञाता हो।

गायत्री यो बिजानाति सर्व जानाति सननु ।
जानात्यतां न यस्तस्य सर्वा विद्यास्तु निष्फलाः ।43।

जो गायत्री को जानता वह सब कुछ जानता है। जो इसको नहीं जानता उसकी सब विद्या निष्फल है।

गात्र्येव तपो योगयः साधनं ध्यान मुच्यते ।
सिद्धोनां सा मता माता नातः किंचिद्वृहत्तरम् ।44।

गायत्री तप है, योग है, साधन है, ध्यान है और वह ही सिद्धियों की माता मानी गई है। इस गायत्री से बढ़कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है।

गायत्री साधना लोके न कस्यापि कदापि हि ।
याति निष्फलता मेतत् ध्रुवं सत्यं हि भूतले ।।45।।

कभी भी किसी की गायत्री साधना संसार में निष्फल नहीं जाती यह पृथ्वी पर ध्रुव सत्य है।

गुप्तं मुक्तं रहस्यं यत् पार्वती त्वां पति व्रताम् ।
प्राप्स्यन्ति परमां सिद्धि ज्ञास्यन्त्येतत् तु ये जनाः ।।46।।

हे पार्वती तुझ पतिव्रता को जो मैंने यह गुप्त रहस्य कहा है इसे जो लोग जानेंगे वे परम सिद्धि को प्राप्त होंगे।

गायत्री मंजरी के थोड़े से श्लोकों में ही योग शास्त्र का अत्यन्त गम्भीर ज्ञान सूत्र रूप से बता दिया गया है। इसे गायत्री योग के छिपे हुए रत्न भंडार की चाबी कहा जा सकता है। इसके एक एक श्लोक की विस्तृत व्याख्या की जाय तो उस पर विस्तृत प्रकाश पड़ सकता है। गायत्री महाविज्ञान का तीसरा खण्ड इन 46 श्लोकों की विवेचना के रूप में लिखा गया है। अधिक अनुभवी एवं मर्मज्ञ महानुभाव इस सम्बन्ध में और अधिक प्रकाश डालकर योग मार्ग के पथिकों का मार्ग सरल कर सकते हैं।






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