गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

नौ प्राणायाम

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(1) लोम विलोम, प्राणायाम — सिद्धासन, पद्मासन या स्वस्तिकासन पर मूल बन्ध लगाकर बैठें। मेरुदंड को सीधा रखें। भीतर भरी हुई सांस बाहर निकाल दें। अब बांई नासिक से सांस खींचिए। और जालन्धर बन्ध लगाकर उड्डियान बन्ध लगाकर दाहिने नथुने से धीरे-धीरे वायु निकाल दीजिए। फिर एक सेकिण्ड बिना वायु के रहिए तत्पश्चात् दाहिने नथुने से सांस खींचिए। फिर कुछ देर भीतर सांस रोककर बांए नथुने से उसे बाहर निकाल दीजिए। इस प्रकार दो प्राणायाम हो जाते हैं।

पुनः एक सेकिण्ड बाह्य कुम्भक करके पहले की भांति दुहराना चाहिए। इस प्रकार आरम्भ में 10 प्राणायाम करने चाहिए और प्रतिदिन एक एक बढ़ाने हुए अन्त में उन्हें 40 तक पहुंचा देना चाहिए। दाहिने नथुने से रेचक या पूरक करना हो सांस छोड़नी या खींचनी हो तो दाहिने हाथ की अनामिका और कनिष्ठिका उंगलियों से बांये नथुने को बन्द करलें। इसी प्रकार जब बांए नथुने से वायु ग्रहण करनी या छोड़नी हो तो दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिने नथुने को बन्द करें।

(2) सूर्य भेदन प्राणायाम — दाहिने नथुने से वायु खींचिए, यथा शक्ति कुंभक कीजिए और दाहिने नथुने से बाहर निकाल दीजिए। इस प्रकार इस क्रिया को बार बार करें। यही सूर्य भेदन प्राणायाम है। अनुलोम विलोम प्राणायाम में दोनों नथुनों से पूरक और रेचक होता है परन्तु इसमें एक ही नथुने (दाहिने से पूरक और बाएं से रेचक) होता है।

इस प्राणायाम से शरीर में उष्णता बढ़ती है इसलिए यह शीत प्रकृति वालों के लिए अथवा शीत ऋतु में विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।

(3) उज्जयी प्राणायाम — सिर को कुछ झुकालें। कंठ से वायु खींचने का घर्षण शब्द करते हुए पूरक करें। चार पांच सैकिण्ड कुंभक करें। इसके पश्चात् बायें नथुने से वायु बाहर निकाल दें। इस प्राणायाम में रेचक पूरक और कुंभक तीनों ही थोड़ी मात्रा में होते हैं। इसमें बंधो का प्रयोग करना आवश्यक नहीं है। चलते फिरते बैठते उठते या सोते हुए यह उज्जयी प्राणायाम आसानी से किया जा सकता है। रोगी लोग शैया पर पड़े पड़े इसे कर सकते हैं पेट के रोगों के लिए यह उपयोगी है। इससे भी उष्णता बढ़ती है।

(4) शीतकारी प्राणायाम — दोनों नथुने बन्द करके जिव्हा और होठों द्वारा वायु खींचे। यथा शक्ति रोके रहें और फिर धीरे धीरे दोनों नथुनों से वायु को बाहर निकाल दें।

दांतों के बीच जिव्हा को बाहर होट तक निकाल कर होटों को फुलाकर मुख से सीत्कार करते हुए श्वांस खींचने की क्रिया प्रधान होने के कारण इसे शीतकारी प्राणायाम कहते हैं। इस प्राणायाम में जिव्हा के सहारे वायु भीतर प्रवेश करती है। यह प्राणायाम शीतल है। इसलिए उष्ण प्रकृति के लिये अथवा ग्रीष्म ऋतु में यह विशेष उपयोगी है। यह शरीर को निर्विष बनाता है। कहते हैं काकभुसुण्डि जी ने इसी प्राणायाम से सिद्धि प्राप्त की थी।

(5) शीतली प्राणायाम — दोनों नथुने बन्द कर लीजिये। होठों को कौए की चोंच की तरह बनाकर जिव्हा को उसमें थोड़ा बाहर निकाल दीजिये। फिर मुख द्वारा धीरे धीरे वायु भीतर खींचिये यथा शक्ति कुंभक करके दोनों नथुनों से धीरे-धीरे वायु बाहर निकाल दीजिये यह शीतली प्राणायाम कहलाता है। यह भी शीतल प्रकृति का है। रूप लावण्य को बढ़ाता है।

(6) भस्त्रिका प्राणायाम — पद्मासन लगाकर बांई नासिका से वेग पूर्वक जल्दी जल्दी दस बार लगातार पूरक रेचक कीजिये। कुंभक करने की आवश्यकता नहीं है। फिर ग्यारहवीं बार उसी नासिका से लम्बा पूरक कीजिये। यथा शक्ति कुंभक करने के उपरान्त दाहिने नथुने से धीरे धीरे वायु को बाहर निकाल दीजिये। इसी क्रिया को दाहिने नथुने से दोहराइये। यही भस्त्रिका प्राणायाम है आरम्भ में इसे पांच पांच बार से अधिक नहीं करना चाहिये।

यह सम शीतोष्ण है। ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि तीनों का यह भेदन करता है। इसके द्वारा सुषुम्ना में से प्राण तत्व की विहंगम गति ऊर्ध्व प्रदेश की ओर बढ़ती है। इसी से अग्नि तत्व प्रदीप्त होता है इसे आरम्भ में अधिक संख्या में या अधिक वेग से नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से फुफ्फुस कोष पर आघात पहुंचने का भय रहता है।

(7) भ्रामरी प्राणायाम — पद्मासन लगाकर नेत्र बंद करके बैठिए। भ्रकुटी के मध्य भाग में ध्यान कीजिए। जालंधर बन्ध लगाइये। फिर नाक द्वारा, भ्रमर नाद के समान गुंजन स्वर करते हुए पूरक कीजिए। पश्चात् तीन सेकिंड कुंभक करके धीरे धीरे भ्रमर गुंजन ध्वनि के साथ रेचक करिए। यही भ्रामरी प्राणायाम है।

कोई योगी दोनों नासापुटों से वायु खींचने और छोड़ने के पक्ष में है और कोई लोम विलोम प्राणायाम की भांति दाहिने बांये नथुनों से इसे करने को अच्छा बताते हैं।

कुंभक को अवस्था में रुकी हुई वायु का मस्तिष्क में बांई ओर से दाहिनी ओर लगातार कई बार घुमाकर तब रेचक करते हैं इस वायु को भ्रमण कराने की क्रिया के कारण तथा भ्रमर नाद जैसी ध्वनि होने के कारण इस प्राणायाम का नाम भ्रामरी रखा गया है। यह मन की एकाग्रता एवं प्राण की स्थिरता के लिये लाभदायक है।

(8) मूर्छा प्राणायाम — दोनों हाथों के अंगूठे दोनों कानों में, दोनों तर्जनी दोनों आंखों पर दोनों मध्यमा नासिका पुटों पर और अनामिकाएं तथा कनिष्टकाएं मुख पर रखकर मूलबन्ध तक जालंधर बन्ध की आरम्भ से अन्त तक स्थिर रख करके बाएं नथुने से पूरक करे। यथा शक्ति कुंभक करके दाहिने नथुने से रेचक करे। यह मूर्छा प्राणायाम हुआ।

इस प्राणायाम में रेचक करते समय बन्द नेत्रों से भ्रू मध्य भाग में ध्यान करने पर पंच तत्वों के रंग दिखाई पड़ते हैं। शरीर में जो तत्व अधिक होगा उसी का रंग अधिक दृष्टिगोचर होगा। पृथ्वी का रंग पीला, जल का सफेद, अग्नि लाल, वायु का हरा और आकाश का नीला होता है। इन वर्णों की चिन्दियां सी तथा बादल से उड़ते परलक्षित होते हैं। इन तत्वों का शोधन करने से नादनुसंधान तथा समाधि में सुविधा होती है।

(9) प्लाविनी प्राणायाम — पद्मासन से बैठिए, दोनों भुजाओं को ऊपर की ओर लम्बी तथा सीधी रखिए अब दोनों नथुनों से परक कीजिए और सीधे लेट जाइए। लेटते हुए, दोनों हाथों को समेट कर तकिए की तरह सिर के नीचे लगा लीजिए। कुम्भक कीजिए और जब तक कुम्भक रहे तब तक भावना कीजिए मेरी देह रुई के समान हलकी है। फिर बैठ कर पूर्व स्थिति में आ जाइए और धीरे धीरे दोनों नथुनों से वायु को बाहर निकाल दीजिए। यह प्लाविनी प्राणायाम है। इससे दोनों ऋद्धियों और सिद्धियों का मार्ग प्रशस्त होता है।

किस प्राण को, किस मात्रा में, किस प्रयोजन के लिये, किस प्रकार जागृत किया जाय इसका निर्णय करना इतना सुगम नहीं है कि उसे एक सांस में बताया जा सके। कारण यह है कि साधक की आन्तरिक स्थिति, सांसारिक परिस्थिति, शरीर का गठन, आयु, मनोभूमि, संस्कार, आदि के आधार पर ही यह विचार किया जा सकता है कि उसके लिये वर्तमान स्थिति में किस प्रकार की साधना उपयोगी एवं आवश्यक है। यह निर्णय किसी अनुभवी परामर्श दाता की सलाह से करना चाहिए।

प्राणमय कोश को सुव्यवस्थित करने के लिए साधारणतः बन्ध मुद्रा तथा प्राणायाम की क्रियाएं ही प्रयुक्त होती हैं। इन्हीं में हेर फेर करके दस प्राणों का उन्नायक विधान बनाया जाता है। फिर भी कई बार ऐसे उपाय प्रयुक्त होते हैं। जिनमें इन साधनों में से किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती और प्राण विद्या की सांगोपांग सफलता मिल जाती है।

गायत्री का द्वितीय मुख प्राणमय कोश है। इस कोश को अनुकूल बना लेना ही वेदमाता को प्रसन्न करके उनके दूसरे मुख से आशीर्वाद प्राप्त कर लेना है। प्राणमय कोश को शुद्ध एवं प्रबुद्ध करना मानो एक प्रकार से गायत्री माता की प्राणमयी उपासना है। इसे ही आत्मोन्नति की द्वितीय भूमिका कहा जाता है।





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