गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

आत्मानुभूति योग

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1—  किसी शान्त या एकान्त स्थान में जाइये। निर्जन, कोलाहल रहित स्थान इस साधना के लिये चुनना चाहिए। इस प्रकार का स्थान घर का स्वच्छ, हवादार कमरा भी हो सकता है और नदी तट अथवा उपवन भी। हाथ मुंह धोकर साधना के लिये बैठना चाहिये। आराम कुर्सी पर अथवा दीवार, वृक्ष या मसनद के सहारे बैठकर भी यह साधना भली प्रकार होती है।

सुविधा पूर्वक बैठ जाइए। तीन लम्बे-लम्बे सांस लीजिए पेट में भरी हुई वायु को पूर्ण रूप से बाहर निकालना और फिर फेफड़ों में पूरी हवा भरना एक पूरा सांस कहलाता है। तीन पूरे सांस लेने से हृदय और फुफ्फुस की भी उसी प्रकार एक धार्मिक शुद्धि होती है जैसे स्नान करने हाथ पांव धोकर बैठने से शरीर की शुद्धि होती है।

तीन पूरी सांस लेने के बाद शरीर को शिथिल कीजिए। शरीर के हर अंग में से खिंच कर प्राण शक्ति हृदय में एकत्रित हो रही है। ऐसा ध्यान कीजिए। हाथ पांव आदि सभी अंग प्रत्यंग शिथिल, ढीले, निर्जीव निष्प्राण हो गये हैं ऐसी भावना करना चाहिए। मस्तिष्क के सब विचार धाराएं और कल्पनाएं शान्त हो गई हैं और समस्त शरीर के अन्दर एक शान्त नील आकाश व्याप्त हो रहा है। ऐसी शान्त शिथिल अवस्था को प्राप्त करने के लिए कुछ दिन लगातार प्रयत्न करना पड़ता है। अभ्यास से कुछ दिन में अधिक शिथिलता एवं शान्ति अनुभव होती जाती है।

2—  उपरोक्त शिथिलासन के साथ आत्म दर्शन करने को साधना इस योग में प्रथम साधना है। जब यह साधना भली प्रकार अभ्यास में आ जाय तो आगे की सीढ़ी पर पैर रखना चाहिये। दूसरी भूमिका की साधना का अभ्यास नीचे दिया जाता है।

3—  ऊपर खिली हुई शिथिलावस्था में अखिल आकाश में नील वर्ण आकाश का ध्यान कीजिए उस आकाश में बहुत ऊपर सूर्य के समान ज्योति स्वरूप आत्मा को अवस्थित देखिए। ‘‘मैं ही यह प्रकाशवान् आत्मा हूं।’’ ऐसा निश्चित संकल्प कीजिए। अपने शरीर को नीचे भूतल पर निस्पंद अवस्था में पड़ा हुआ देखिए, उसके अंग प्रत्यंगों का निरीक्षण एवं परीक्षण कीजिए। यह हर एक कल पुर्जा मेरा औजार है। मेरा वस्त्र है। यह यंत्र मेरी इच्छानुसार क्रिया करने के लिये प्राप्त हुआ है। इस बात को बार बार मन में दुहराइए। इस निस्पंद शरीर को खोपड़ी का ढक्कन उठा कर ध्यानावस्था में मन और बुद्धि को दो सेवक शक्तियों के रूप में देखिए। वे दोनों हाथ बांधे आपकी इच्छानुसार कार्य करने के लिए नतमस्तक खड़े हैं। इस शरीर और मन बुद्धि को देख कर प्रसन्न हूजिए कि इच्छानुसार कार्य करने के लिए यह मुझे प्राप्त हुए हैं। मैं उनका उपयोग सच्चे आत्म स्वार्थ के लिए ही करूंगा। यह भावनाएं बराबर उस ध्यानावस्था में आपके मन में गूंजती रहनी चाहिए।

4—जब दूसरी भूमिका का ध्यान भली प्रकार होने लगे तो तीसरी भूमिका का ध्यान कीजिए।

अपने को सूर्य की स्थिति में ऊपर आकाश में अवस्थित देखिए। ‘‘मैं समस्त भूमंडल पर अपनी प्रकाश किरणें फेंक रहा हूं। संसार मेरा कर्म क्षेत्र और लीला भूमि है, भूतल की वस्तुओं और शक्तियों को इच्छित प्रयोजन के लिए काम में लाता हूं पर वे मेरे ऊपर प्रभाव नहीं डाल सकतीं। पंच भूतों की गतिविधि के कारण जो हलचलें संसार में हर घड़ी होती हैं वे मेरे लिए एक विनोद और मनोरंजक दृश्य मात्र हैं। मैं किसी भी सांसारिक हानि लाभ से प्रभावित नहीं होता। मैं शुद्ध चैतन्य सत्यस्वरूप, पवित्र, निर्लेप, अविनाशी आत्मा हूं। मैं आत्मा हूं, महान आत्मा हूं। महान् परमात्मा का विशुद्ध स्फुलिंग हूं।’’ यह मंत्र मन ही मन जपिये।

तीसरी भूमिका ध्यान जब अभ्यास के कारण पूर्व रूप से पुष्ट हो जाय और हर घड़ी वही भावना रोम रोम में प्रतिभाषित होने लगे तो समझना चाहिए कि इस साधना की सिद्धावस्था प्राप्त हो गई यही जागृत समाधि या जीवन मुक्त अवस्था कहलाती है।






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