गायत्री महाविज्ञान (तृतीय भाग)

स्पर्श साधना

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  1. बर्फ या कोई अन्य शीतल वस्तु शरीर पर एक मिनट लगा कर फिर उसे हटालें और दो मिनट तक अनुभव करें कि वही ठंडक मिल रही है। सह्य उष्णता का गरम किया हुआ पत्थर का टुकड़ा शरीर से स्पर्श करा कर उसकी अनुभूति कायम रखने की भावना करनी चाहिए। पंखा झल कर हवा करना, चिकना कांच का गोला या रुई की गेंद त्वचा पर स्पर्श करके फिर उस स्पर्श को ध्यान रखना भी इसी प्रकार का अभ्यास है। ब्रुस से रगड़ना, लोहे का गोला उठाना, जैसे अभ्यासों की भी इसी प्रकार ध्यान भावना की जा सकती है।
  2. किसी समतल भूमि पर एक बहुत ही मुलायम गद्दा बिछा कर उस पर चित्त लेटे रहिए कुछ देर इसकी कोमलता का स्पर्श—सुख अनुभव करते रहिए इसके बाद बिना गद्दा की कठोर जमीन या तख्त पर लेट जाइए। कठोर भूमि पर पड़े रह कर कोमल गद्दे के स्पर्श की भावना कीजिए, फिर पलट कर गद्दे पर आ जाइए और उस कठोर भूमि की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न की कल्पना कीजिए। इस प्रकार भिन्न परिस्थिति में भिन्न वातावरण की भावना से तितीक्षा की सिद्धि मिलती है। स्पर्श साधना में सफलता प्राप्त करने पर शारीरिक कष्टों को हंसते हंसते सहने की शक्ति प्राप्त हो जाती है।

स्पर्श साधना से तितीक्षा की सिद्धि मिलती है। सर्दी, गर्मी, वर्षा, चोट, फोड़ा, दर्द आदि से जो शरीर को कष्ट होते हैं उनके कारण त्वचा में जाल की तरह फैले हुए ज्ञान तंतु ही हैं। यह ज्ञान तन्तु छोटे से आघात कष्ट या अनुभव को मस्तिष्क तक पहुंचाते हैं तदनुसार मस्तिष्क को पीड़ा का भान होने लगता है, कोकिन का इंजेक्शन लगाकर इन ज्ञान तन्तुओं को शिथिल कर दिया जाय तो आपरेशन करने में भी उस स्थान पर पीड़ा नहीं होती। कोकिन इंजेक्शन तो शरीर को पीछे से हानि भी पहुंचाता है पर स्पर्श साधना द्वारा प्राप्त हुई ‘‘ज्ञान तन्तु-नियंत्रण शक्ति’’ किसी प्रकार की हानि पहुंचाना तो दूर उलटा नाड़ी संस्थान के अनेक विकारों को दूर करने में सफल होती है साथ ही शारीरिक पीड़ाओं का भान नहीं होने देती।

भीष्मपितामह उत्तरायन सूर्य आने की प्रतीक्षा में कई महीने बाणों से छिदे हुये पड़े रहे थे। तिल तिल शरीर में बाण घुसे पड़े थे, फिर भी उनके कष्ट से चिल्लाना तो दूर वो उपस्थित लोगों को बड़े ही गूढ़ विषयों पर उपदेश देते रहे। ऐसा करना उनके लिए तभी संभव हो सका जब उन्हें तितीक्षा की सिद्धि थी, अन्यथा हजारों बाण छिदे होना तो दूर एक सुई या कांटा लग जाने पर लोग होश हवास भूल जाते हैं।

स्पर्श साधना से चित्त की वृत्तियां एकाग्र होती हैं। मन को वश में होने से जो लाभ मिलते हैं उनके अतिरिक्त तितीक्षा की सिद्धि भी साथ में हो जाती है जिससे कर्मयोग एवं प्रकृति प्रवाह से शरीर को होने वाले कष्टों का दुख भोगने से साधक बच जाता है।

मन को आज्ञानुवर्ती, नियंत्रित, अनुशासित बनाना, जीवन को सफल बनाने की अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्या है। अपना दृष्टिकोण चाहे अध्यात्मिक हो चाहे भौतिक चाहे अपनी प्रवृत्तियां परमार्थ की ओर हों या स्वार्थ की ओर पर मन का नियंत्रण हर स्थिति में आवश्यक है। उच्छृंखल, चंचल या अव्यवस्थित मन से न लोक न परलोक, कुछ भी नहीं मिल सकता। इसलिए मनो निग्रह प्रत्येक व्यक्ति की मानसिक आवश्यकता है।

मानसिक अव्यवस्था दूर करके मनोबल प्राप्त करने के लिए इस प्रकरण में जो साधनाएं बताई गई हैं वे बड़ी उपयोगी, सरल एवं सर्व सुलभ हैं। ध्यान, त्राटक, जप, एवं तन्मात्रा साधन से मन की चंचलता दूर होती है साथ ही अतिरिक्त सिद्धियां भी मिलती हैं। इस प्रकार पाश्चात्य योगियों की मैस्मरेजम के तरीके से की गई मनः साधनाओं की अपेक्षा भारतीय विधि से योग पद्धति से की गई साधना द्विगुणित लाभ दायक होती है।

वश में किया हुआ मन सबसे बड़ा मित्र है। वह सांसारिक और आत्मिक दोनों ही प्रकार के अनेक ऐसे अद्भुत उपहार निरन्तर प्रदान करता रहता है जिन्हें पाकर मानव जीवन धन्य हो जाता है। सुरलोक में ऐसा कल्प वृक्ष बताया जाता है जिसके नीचे बैठकर मन चाही कामनाएं पूरी हो जाती हैं। मर्त्य लोक में, वश में किया हुआ मन ही कल्पवृक्ष है। यह परम सौभाग्य जिसे प्राप्त हो गया उसे अनन्त ऐश्वर्य का आधिपत्य ही प्राप्त हो गया समझिए।

अनियंत्रित मन अनेक विपत्तियों की जड़ है। अग्नि जहां रखी जायगी उसी स्थान को जलावेगी। जिस देह में असंयत मन रहेगा उसमें नित नई विपत्तियां, कठिनाइयां आपदाएं, बुराइयां बरसती रहेंगी, इसलिए अध्यात्म विद्या के विद्वानों ने मन को वश में करने की साधना को बहुत ही महत्वपूर्ण माना है।

गायत्री का तृतीय मुख मनोमय कोश है। इस कोश को सुव्यवस्थित कर लेना मानो तीसरे बन्धन को खोल लेना है, आत्मोन्नति की तीसरी कक्षा को पार कर लेना है।




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