सबने श्रम करना बंद कर दिया और संचित पूँजी से पेट भरने लगे। यह स्थिति देख राजा घबराया और अपने गुरु के पास पहुँचा। उन्होंने स्थिति का विवरण सुनकर कहा, दीक्ष को आचरण में न उतारे तो वह असफल ही रहती है। जिन्हें तुम गुरुभाई मानते हो, वे सब तो आलसी हैं, पर तुम प्रभावी हो। तुम अपनी व्यवस्था नियमानुसार चलाओ, नहीं तो उनके साथ तुम भी पाप के भागी बनोगे।
एक बार एक वृद्ध और एक वृद्धा अपने बालक के लिए भिक्षा माँग रहे थे। पार्वती जी ने उन असहायों को देखा तो करुणार्द्र हो उठीं। शिवजी से बोलीं, आपकी सृष्टि में भी कैसे असहाय लोग हैं। आप उनका दुःख भी दूर नहीं कर सकते? शिवजी ने बहुतेरा समझाया, यह लोग अपनी आँतरिक दुर्बलता के कारण दुखी हुए, असहाय बने हैं। पार्वती जी को संतोष नहीं हुआ तो शिवजी को उनके सम्मुख प्रकट होना पड़ा। उन्होंने तीनों से वरदान माँगने को कहा। सबसे पहले वृद्धा ने कहा, भगवन्, मुझे तो आप बीस वर्ष की नवयौवना बना दें, उसकी आसक्ति काम में जो थी। शिवजी ने कहा, तथास्तु! और वह नवयौवना बन गई। यह देखकर वृद्ध कुँठित हो उठा, बोला, दुष्टे, मैं तो पहले ही जानता था, तू कितनी कुटिल है, मुझे वृद्धावस्था में छोड़कर यह राग−रंग? उसका सारे जीवन का विद्वेष उमड़ उठा। शंकर जी बोले, परेशान क्यों हैं, आप भी वरदान माँग लें। क्षोभ से भरे वृद्ध ने कहा, इसे शूकरी बना दें। शिवजी ने कहा, तथास्तु! और अब बुढ़िया सूअरिया बन गई। यह देखकर बच्चा रोया, भगवन्, मुझे तो मेरी माँ ही वापस कर दीजिए। शिवजी ने कहा, तथास्तु! और शूकरी फिर वृद्धा रूप में प्रकट हो गई। सबको वरदान मिल गया और सब जैसे के तैसे रहे न पार्वती? यह कहकर वे चल पड़े। पार्वती जी ने इतना ही कहा, आपका ही कहना सच निकला। तीनों श्रेष्ठ वस्तुएँ माँग सकते थे, पर माँगते कैसे? जो मन में था, वही बाहर आया।
यदि मन में निकृष्टता भरी पड़ी हो तो स्वयं प्रभु भी आ जाएँ तो भी सहायता नहीं कर सकते। उनका प्रवेश तो निश्छल मन में ही होता है।