अजीब है यह पिछड़ेपन से भरा फैशन

March 2003

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आजकल के युवक−युवतियाँ शरीर के विभिन्न भागों में रंग−बिरंगी आकृतियाँ बनवाकर इस प्रकार के हाव−भाव प्रदर्शित करते हैं, मानो वे बहुत प्रगतिशील हों, जबकि कभी यही चित्र प्रतिगामिता के लक्षण माने जाते थे और ग्रामीण परंपरा से संबद्ध थे। पेट−पीठ और हाथ−पैरों पर चित्रित इन तस्वीरों को ‘टैटू’ या ‘गोदना’ कहते हैं।

गोदना ग्रामीण परिवेश की देन है। ग्रामवासी महिला और पुरुष प्रायः अपने नामों को हाथ में गोदवा लिया करते थे और जब कभी कहीं परिचय देने की आवश्यकता पड़ती, वहाँ अपने हाथ को आगे बढ़ा देते। सामने वाला व्यक्ति उसे पढ़कर उसका नाम जान लेता। इस प्रकार गोदना का विकास गाँवों में परिचय देने के प्रयोजन से हुआ। बाद में नाम के साथ−साथ दूसरे हाथ में अनेक प्रकार की आकृतियाँ भी शौकवश बनवाई जाने लगीं। इस तरह यह प्रवृत्ति प्रथा बन गई। यह वर्षों पूर्व की बात है। शिक्षा के विकास के साथ−साथ यह परिपाटी गाँवों में अब अपनी अंतिम साँसें गिन रही हैं। जिन दिनों यह परंपरा पूरे रौ में थी, उन दिनों इसे वनस्पतियों के रसों से लिखा जाता था। वह लिखावट इतनी अमिट होती कि बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक ज्यों−की−त्यों बनी रहती। इससे स्वास्थ्य संबंधी कोई संकट खड़ा नहीं होता था, इसलिए भी ऐसा तब लोग बढ़−चढ़कर करते थे।

आज स्थिति दूसरी है। तब से अब तक हम प्रगति के कई सोपान पार कर चुके हैं। उसके साथ ‘गोदना’ ने भी विकसित होकर टैटू का रूप ले लिया है और गाँव से हटकर शहरों में अपने पैर पसार चुका है। यहाँ यह फैशन का प्रतीक बन गया है और केवल हाथ ही में नहीं, वरन् पाँव, पेट, पीठ तथा गाल में गोदवाया जाने लगा है। गोदवाने के तरीके में भी प्रगति हुई है। गाँवों में तो इसे अनाड़ी ग्रामीण जैसे−तैसे गोद देते थे, किंतु शहरों में इसके लिए अब अन्य पार्लरों की तरह ‘टैटू पार्लर’ भी खुल चुके हैं। वहाँ इसे बनाने के दो तरीके हैं। एक में तो कलाकार इसे रंग और ब्रुश के माध्यम से हाथ से बनाते हैं, जो कई रंगों का आकर्षक एवं मनमोहक डिजाइन वाला होता है। दूसरे में एक विशेष प्रकार के प्लास्टिक पेपर द्वारा इसे शरीर में बनाया जाता है।

यहाँ टैटूज का गुणगान नहीं किया जा रहा है, न ही उन्हें प्रगतिशीलता का प्रतीक बताया जा रहा है। कहा मात्र यह जा रहा है कि फैशन की अंधी दौड़ में कोई कार्य बिना विचारे किया गया हो तो वह हानिकारक हो सकता है और स्वास्थ्य को उससे क्षति पहुँच सकती है। अब यही बात आधुनिक टैटूज के बारे में कही जा रही है और ऐसी आशंका प्रकट की जा रही है कि उनसे कई प्रकार के लीवर संबंधी रोग हो सकते हैं। यह संभावना व्यक्त की है राबर्ट हैली नामक चिकित्सा विज्ञानी से। ‘मेडिसिन’ नामक चिकित्सा विज्ञान की अमेरिकी पत्रिका में इस संबंध में उनने विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि अधुनातन टैटूज से हिपेटाइटिस−सी का संक्रमण हो सकता है।

यदि यह संक्रमण हुआ तो उससे लीवर सीरोसिस हो सकता है। बाद की अवस्था में इसके लीवर कैंसर में परिवर्तित होने की संभाव्यता बढ़ जाती है, इसलिए वे युवा वर्ग को सावधान करते हुए कहते हैं कि उन्हें आँख मूँदकर ऐसे किसी फैशन को अपना नहीं लेना चाहिए, जो खतरनाक हो। वे कहते हैं कि जिस स्थान पर टैटू बनाया गया हो, उस स्थान का प्रयोग यदि इंजेक्शन लगाने में, रक्त लेने या देने में किया गया तो उससे स्वास्थ्य संबंधी गंभीर खतरा पैदा हो सकता है और संक्रमण भीतर पहुँच सकता है। शोध के दौरान देखा गया है कि जिनके शरीर में एक से अधिक टैटूज हैं एवं जो लाल, पीले, नारंगी रंग के हैं, उन्हें हिपेटाइटिस−सी का खतरा ज्यादा होता है। इनकी तुलना में काले रंग का टैटू कम खतरनाक है। वे यह भी कहते हैं कि उक्त रोग से संक्रमित होने पर यह आवश्यक नहीं कि व्याधि का लक्षण तुरंत प्रकट हो जाए। यह संभव है कि वर्षों तक वह अप्रकट स्थिति में पड़ा रहे और व्यक्ति एकदम स्वस्थ प्रतीत हो। लीवर में दर्द के रूप में उसका प्रथम लक्षण सामने आता है और फिर आदमी बीमार बनता जाता है। अतएव हर युवा को टैटू से परहेज करना चाहिए।

टैटू फैशनजन्य है, पर कब वह रोगजन्य बन जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। उसे प्रगतिशीलता का प्रतीक मानने वालों को उससे सावधान रहना चाहिए। कहीं वह गंभीर स्वास्थ्य−संकट का कारण न बन जाए, इसका भी ध्यान रखना चाहिए।


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