(प्रस्तुत है वसंत पर्व 1974 की पावन वेला में निस्सृत शक्तिस्वरूपा माताजी की अमृतवाणी परमपूज्य गुरुदेव सूक्ष्मीकरण साधना में थे।)
गायत्री मंत्र हमारे साथ−साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
बेटियों, आत्मीय प्रज्ञा परिजनों! उपासना जीवन की बहुमूल्य निधि है। उस निधि से यदि दूर हट जाते हैं तो हम खोखले रह जाते हैं, निर्जीव हो जाते हैं। उपासना आत्मा की भूख है। आत्मा की भूख जब तक नहीं मिटती, तब तक आत्मा को तृप्ति नहीं होती। दिमाग की भूख बौद्धिक होती है और आत्मा की जो भूख होती है, वह उपासना होती है। उपासना माने भगवान के पास बैठना। समीपता। बड़े व्यक्ति के समीप बैठते हैं तो वही छाया हमारे ऊपर पड़ती है और हमारा भी उतना ही महत्त्व हो जाता है, जितना कि बड़े व्यक्ति का होता है। जिस तरह प्रधानमंत्री का सम्मान होता है और राष्ट्रपति का सम्मान होता है और जो उस समय उनके समीप होते हैं, उन्हें भी उतना ही सम्मान उस समय मिलता है, उससे कम नहीं मिलता। हमारा भगवान उससे भी ऊँची सत्ता है। भगवान हमारे राष्ट्रपति का भी राष्ट्रपति है, प्रधानमंत्री का भी प्रधानमंत्री है। भगवान से जब मनुष्य मिल जाता है तो वह भगवान का ही स्वरूप हो जाता है। उसमें कोई भी अंतर नहीं होता। जैसे कीट और भृंगी की समीपता। जब भृंगी अपनी भाषा में कीट को आवाज देता है तो कीट उसके पास दौड़ता हुआ चला जाता है और उसमें मिल जाता है।
निकटता का लाभ
बेटे, नाला पहले गंदा होता है और जब गंगा में मिल जाता है तो गंगा का स्वरूप हो जाता है। कौन? नाला। गंगा जब गोमुख से निकलती है तो उसका दायरा छोटा होता है। छोटा−सा मुँह होता है, जिसमें से गंगा प्रवाहित होती है। गंगा की विशालता−जैसे−जैसे गंगा प्रवाहित होती है, वह फैलती चली जाती है। अनेक नदी−नाले उसमें आते चले जाते हैं। वे सभी गंगा हो जाते हैं और विशाल गंगा समुद्र में जाकर विलीन हो जाती है। कौन? गंगा। वह गंगा जो एक छोटे−से गोमुख से निकल रही थी। तब उसका कोई अस्तित्व नहीं था, कोई वजूद नहीं था, पर जब वही गंगा विश्वमानव के लिए बहती गई, बहती गई और जाकर समुद्र में समा गई।
भगवान शंकर ने गंगा को अपने सिर पर जटाओं में धारण किया था। भगवान शंकर को गंगा बहुत प्यारी थी। भगवान को भक्त बहुत प्यारा होता है, प्राणों से भी ज्यादा, बशर्ते उसका जीवन समर्पित हो, तब। यदि जीवन समर्पित नहीं है तो वह भक्त कैसे हो सकता है! भक्त वह होता है, जैसे एक सेठ जी थे और एक ब्राह्मण। ब्राह्मण ने अपने कुछ रुपये उस सेठ के यहाँ जमा किए थे। एक दिन ब्राह्मण ने सेठ से कहा कि मेरे रुपये दे दीजिए, मेरी लड़की की शादी है। सेठ ने बहाना बनाया, कैसे रुपये? मेरे पास तुम्हारे कोई रुपये−पैसे नहीं हैं। गरीब ब्राह्मण बहुत दुखी हुआ। यह बात राजा तक पहुँची तो राजा ने कहा, ब्राह्मण देवता कल हमारी सवारी निकलने वाली हैं और आप फलाँ दुकान के सामने हमें मिल जाना।
जहाँ राजा ने बताया था, उसी स्थान पर ब्राह्मण देवता पहुँच गए। राजा की सवारी निकल रही थी। जैसे ही राजा ने उस ब्राह्मण को देखा तो अपने हाथी पर से उतरे और उनके पास आकर प्रणाम करके बोले, “अरे गुरुदेव, आप नीचे नंगे पाँव! आइए−आइए” और उन्होंने अपने समीप उनको बिठा लिया। जब उस सेठ ने ब्राह्मण को राजा के समीप बैठा देखा तो बहुत परेशान हुआ। कुछ आगे चलकर राजा ने ब्राह्मण से कहा, “अब आप उतर जाइए, आपके भाग्य का होगा तो मिल जाएगा। मेरी भूमिका खत्म हो गई।” दूसरे दिन वह सेठ आया और एक हजार रुपये जो उस सेठ के ऊपर ब्राह्मण के थे, उसने वे हजार रुपये तो दिए ही, ऊपर से हजार रुपये और भी दिए। क्यों दिए क्योंकि ब्राह्मण राजा के समीप था और राजा उन्हें ‘गुरु संबोधित कर रहा था।
समीप बैठकर देखें
जिस भगवान को हम अपना पिता कहते हैं, वरन् सर्वशक्तिमान है। उसके समीप जब हम बैठेंगे तो हम सा विश्व के मालिक हो जाएँगे। भगवान ने हमें जो मानव शरीर रूप में जन्म दिया है तो न मालूम क्या−क्या तमन्नाएँ उसने रखी होंगी। भगवान के हाथ नहीं हैं, भगवान के पाँव नहीं हैं, भगवान की आँखें नहीं हैं। भगवान ने मनुष्य को शरीर दिया है और कहा है कि बेटे, तू इस दुनिया के संग्राम में जा और मेरे आँख नहीं हैं, तेरे आँख हैं। मैं कुछ कर नहीं सकता हूँ, तू कर सकता है। शक्ति मैं दूँगा तुझे, तू मेरा काम कर। लेकिन जब वह नाउम्मीद होता है तो पछताता है और व्यक्ति के हाथ तो कुछ लगता ही नहीं है।
बेटे, मैं कह रही थी कि भगवान की भक्ति के लिए−कि भगवान में भक्त अपने को मिला लेता है तो वह भगवान का ही स्वरूप हो जाता है। यही समर्पण है। जब तक समर्पण नहीं किया जाएगा, उसके हाथ कुछ लगने वाला नहीं हैं। जैसे पत्नी समर्पण कर देती है और पति के संपूर्ण वैभव की अधिकारिणी बन जाती है। जिस दिन से आती है अपने पति के घर, अपना सारा−का−सारा पिछला जीवन भूलती हुई चली जाती है। कल जो लड़की सूट−बूट पहने फिरती थी, बाल कटाए फिरती थी, कहना नहीं मानती थी, शादी के बाद दूसरे ही दिन से उसकी कायापलट हो गई। कैसे हो गई? यह हो गया उसके समर्पण से। पति के लिए वह समर्पित हो गई तो क्या हो गया, पति की जो भी संपत्ति थी, उसकी वह स्वामिनी हो गई। डॉक्टर की पत्नी डॉक्टरनी हो जाती है। कहिए, एम0 बी0 बी0 एस0 किया है क्या? नहीं एम0 बी0 बी0 एस0 तो नहीं किया है। तो फिर आप डॉक्टरनी कैसे हो गई? हम डॉक्टर की पत्नी हैं, इसलिए डॉक्टरनी हो गई। सेठ जी की पत्नी हैं, इसलिए सेठानी हो गई और पंडित जी की पत्नी हैं, इसलिए पंडितानी हो गई। कहिए, आपने ज्योतिष पढ़ी है क्या? ज्योतिष तो नहीं पढ़ी है, पर चूँकि हम पंडित की पत्नी हैं, इसलिए पंडितानी हैं।
समर्पण किया जाता है
हम उस परब्रह्म के पुत्र और पुत्रियाँ हैं। यदि हम उसके समीप हो जाएँ तो फिर हम वहीं हो जाएँगे, जैसा कि मैंने आपको अभी बताया है। पहले समर्पण किया जाता है, लिया नहीं जाता है। दो हाथों से दिया जाता है, हजार हाथों से मिलता है। गुरु जी ने कई बार उदाहरण दिया है कि भगवान ने हम से कहा, बेटे, कुछ माँगना है क्या? अपने बच्चों के लिए माँग ले, अपनी पत्नी के लिए माँग ले, तूने इतना तप किया है। वे बराबर इस बात को ठुकराते ही रहे। ठुकराना बड़ा शब्द होता हैं, लेकिन मुझे कहने दीजिए। उन्होंने कहा, भगवान मुझे कुछ नहीं चाहिए। मुझे तो आपकी आज्ञा चाहिए। अपने गुरुदेव से भी उन्होंने कभी कुछ नहीं माँगा। उन्होंने कहा, गुरुदेव आपकी आज्ञा ही मेरे लिए सर्वोपरि है। आप माँगिए तो सही, आप बताइए तो सही, आपने मुझे सब कुछ दिया है। मेरे पास जो कुछ भी है, सब आपका है। मैं तो आपके लिए समर्पित हूँ।
उन्होंने कहा कि बेटे, तू मेरे लिए समर्पित है तो मैं बोल नहीं सकता, तेरे अंदर वाणी है, तेरे हाथ हैं, तेरी अक्ल है, तेरी आँखें हैं। मुझे चाहिए तेरी अक्ल और चाहिए तेरे हाथ और चाहिए मेरी आँखें। जिनके द्वारा मैं समाज में, राष्ट्र में और सारे विश्व में एक हलचल मनुष्य जाति के अंदर पैदा करना चाहता हूँ, यही मुझे चाहिए। उन्होंने कहा, गुरुदेव, ‘तेरा तुझको सौंपता क्या लागता है मोर।’ मुझे क्या आपत्ति है, गुरुदेव, सब कुछ आपका ही है। आपका ही है तो आप नहीं समझते क्या? मैं तो कहूँगी उनका लाखों गुना, करोड़ों गुना अनुदान बरसता रहा और अभी भी बरसता है। पत्नी के लिए माँगा होता, बच्चों के लिए माँगा होता, अपने लिए माँगा होता तो एक सीमित दायरा होता। सीमित होते तो जो आज इतना विशाल से विशालता की ओर बढ़े, वह विशालता नहीं होती।
जब मनु भगवान गंगा जी नहाने गए तो गंगा जी में एक मछली मिली। उन्होंने उस मछली को हाथ पर रख लिया और उसे दुलारने लगे। दुलारने लगे तो उसने कहा, भगवन् मैं इस दायरे में नहीं रहूँगी, मुझको फैलने दीजिए। उन्होंने कहा, बेटी, तू मुझको बहुत प्यारी लगती है, तू चल कमंडल में बैठ जा। कमंडल में डाल दी मछली। मछली ने कहा, गुरुदेव, मेरा दम घुटता है, मैं इसमें नहीं रह सकती, तो उसको तालाब में डाल दिया। तालाब में भी उसने यही कहा, गुरुदेव, मैं नहीं रह सकती तो उन्हें तालाब में से समुद्र में डाल दिया। मत्स्यावतार रूप होने के कारण समुद्र में वह बहुत विशाल हो गई। विशालता−भक्त की विशालता बढ़ती जाती है और उसका हृदय, हृदय एक सरोवर की तरह से, एक समुद्र की तरह से अथाह हो जाता है। पर्वत जैसा वह ऊँचा हो जाता है और समुद्र जैसी उसकी गहराई होती है और गंगा जैसी निर्मलता−स्वच्छता−पवित्रता होती है, उदारता होती है भक्त के अंदर।
बेटे, गाय की तरह से भगवान कहता है कि बच्चों आओ, मेरे बेटे आओ, मेरी बेटियों आओ, मेरे थन में अथाह दूध है, इसको पियो ताकि तुम बलवान हो जाओ। उपासना रूपी दूध को पियो, लेकिन वह अभागा बछड़ा ठुकराता चला जाता है और गाय रँभाती रहती है। गाय का जो दूध है, वह इधर−उधर फैल जाता है और बछड़ा भूखा रह जाता है। बछड़ा माने है आत्मा−जीवात्मा और गाय, वह है हमारा भगवान। भगवान चिल्लाता रहता है और हमारे कानों में सुनाई नहीं पड़ता। हम हैं निर्जीव, हम हैं, आँखों से गूँगे, अपंग हैं, जो कहते हैं कि रास्ता दिखाई ही नहीं पड़ता। वह रास्ता है हमारी उपासना।
उपासना का मर्म
अभी मैंने कहा था कि उपासना माने है भगवान की समीपता। भगवान की समीपता के लिए गाय और बछड़े का उदाहरण मैं अभी आपको सुना रही थी। दूसरा उदाहरण है पतंग और डोरी का। आप अपनी बागडोर को जरा उस भगवान के हाथों में सौंपकर तो देखिए। फिर देखिए कि पतंग कहाँ तक जाती है। पतंग का कोई वजूद नहीं हैं। पतंग में कोई शक्ति नहीं हैं। शक्ति है उस उड़ाने वाले की, उस चलाने वाले की। शक्ति पतंग की नहीं होती। शक्ति कठपुतली की नहीं है, उसके नाच की नहीं है, वह उस नचाने वाले की है, पर पहले कठपुतली अपना समर्पण तो करे। किसी के हाथ में अपने को सौंपे तो, फिर देखिए कमाल। क्या−क्या नाच नचाता है। कौन? वह जिसके हाथ में डोरी सौंपी गई हैं। वह तरह−तरह के नाच नचाता है। कभी राजा बना देता है, कभी रानी बना देता है, कभी क्या बना देता है, कभी क्या बना देता है। कौन बना देता है? जिसके हाथ में डोरी बँधी है। अपने जीवन की डोरी सौंपिए, उस भगवान के हाथों में और फिर पाइएगा अनेक गुना अनुदान।
बेटे, भगवान संकीर्ण नहीं है। मनुष्य संकीर्ण है, उसकी संकीर्णता नहीं जाती। भगवान का नाम ही उदारता है। वह उदारता बरतता है और अपने अनुदान की भक्त के ऊपर वर्षा करने लगता है। मीरा ने कहा था कि भगवान से शादी करूंगी, लेकिन यदि वह कल को धोखा दे जाए और कह दे कि हम तो तलाक देते हैं। अच्छा तो यह तलाक देगा। तब उन्होंने कहा कि मैं भगवान को नौकर रखूँगी। अरे नौकर भी दगा दे जाएगा तो फिर मैं क्या करूंगी? तब उसने कहा कि अच्छा अब उसे मैं खरीदकर लाती हूँ। मीरा ने भगवान को खरीद लिया। भगवान को क्या खरीदा जा सकता है? हाँ, भगवान को खरीदा जा सकता है, यदि भक्त में वे भावनाएँ हों, वे निष्ठाएँ हों और वह श्रद्धा का बीज हो तो मैं कहूँगी कि भगवान को खरीदा जा सकता है। गुरुजी ने अपने गुरुजी को खरीद लिया, भगवान को खरीद लिया। वह पायलट के तरीके से चलता है और बॉडीगार्ड के तरीके से उनके दायें और बायें चलता है। खरीद लिया न।
गिरधर लीनो मोल
भगवान को किस तरीके से खरीदा जा सकता है? उन्होंने मोल ले लिया, किसने? मीरा ने और द्रौपदी ने। जब आर्त्तनाद से भगवान को पुकारा तो भगवान दौड़ते हुए चले आए और भगवान पर जितना था, वे देते चले गए, देते चले गए और दुशासन हारता ही गया। जिस समय जल के भीतर गज और ग्राह की लड़ाई हो रही थी तो जब ‘जौ भर सूँड़ रही जल ऊपर तब हरि नाम पुकारा।’ उसने हृदय से भगवान को पुकारा और भगवान गजराज के लिए दौड़ते हुए आ गए। उन्होंने सवारी की परवाह नहीं की, अपने गरुड़ को छोड़ करके आए। उन्होंने कहा कि मेरे भक्त के ऊपर आपत्ति आई है और मैं यहाँ सिंहासन पर बैठा हूँ। वे दौड़ते हुए चले आए गज की सहायता के लिए।
बेटे, विभीषण और सुग्रीव की कहानी मालूम है न आपको। जब वे भगवान की समीपता में आए और भगवान के सहयोगी, भगवान के मित्र बन गए। विभीषण को लंका का राज्य मिल गया। ऐसा हो सकता था क्या? जब रावण ने भगा दिया था तो उसके लिए संभव था क्या? संभव नहीं था, लेकिन भगवान की समीपता थी न, भगवान का वह काम कर रहा था न, भगवान का स्मरण कर रहा था न, तो भगवान ने कहा यही राजा बनेगा। सुग्रीव वानर था, लेकिन उसने भगवान की कितनी सहायता की। भगवान ने उसको राजा बनाया। किसको? सुग्रीव को।
जीतेंगे पाँडव ही
अर्जुन का रथ भगवान कृष्ण ने स्वयं हाँका था। उसकी बागडोर कृष्ण ने सँभाली थी। अर्जुन जब हिम्मत हार रहा था तो भगवान कृष्ण ने कहा कि अर्जुन तू कायर मत बन, नपुँसक मत बन, तू उठ खड़ा हो कौरवों से लड़ाई के लिए। कौरव अर्थात् जो दुर्गुण हमारे अंदर विराजमान रहते हैं और जो कौरवों के समान हैं। युद्ध हो रहा है। पाँडव और कौरव आपस में लड़ाई कर रहे हैं हमारे अंदर। कौन जीतेगा? जीतेंगे पाँडव, लेकिन पाँडव में वह हिम्मत हो तो सही। हिम्मत होनी चाहिए और करनी चाहिए। किनको? भक्त को। कौरव कौन हैं? हमारे अंदर जो कषाय−कल्मष बैठे हैं, आलस्य और प्रमाद बैठे हुए हैं। जो हमको आगे नहीं बढ़ने देते हैं।
बेटे, हमारी श्रद्धा न मालूम कहाँ विलीन हो गई हैं। हमें फिर से उसी श्रद्धा को उभारना है। जैसे प्रह्लाद और ध्रुव ने अपने माँ बाप को छोड़ दिया था और उस भगवान की गोदी को याद किया था, जिसने कि हमको जन्म दिया है। जिसकी कृपा से हम पृथ्वी पर आए हैं, वही हमारी गोदी है, वही हमारा पिता है। हम उसकी गोदी में ही बैठेंगे, उसकी गोदी में बैठने से उनको क्या फायदा हुआ? भगवान की गोदी में बैठे तो आज तब उनका नाम चला आ रहा है। कहते हैं ध्रुवतारा आकाश में चमकता है। ध्रुवतारे के रूप में ध्रुव का नाम विद्यमान है अभी तक और रहेगा लाखों वर्ष तक, करोड़ों वर्ष तक, क्योंकि वह परब्रह्म परमात्मा की गोदी में जाकर बैठ गया। उसने साधारण पिता की गोदी को ठुकरा दिया और असली पिता की गोदी में वह बैठा। उसका मन पवित्र था, ‘कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर। पीछे−पीछे हरि फिरत कहत कबीर−कबीर॥’
जित देखूँ तित लाल
भगवान स्मरण करता है भक्त का। भगवान का स्मरण भक्त नहीं करता, पर कब करता है? जब वह भगवान का स्वरूप हो जात है, ‘लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल। लाली देखन मैं चली, मैं भी हो गई लाल॥’ जब लाली को देखने गए तो स्वयं भी लाल हो गए। क्यों न हो जाएँगे हम उपासना रूपी लालिमा से लाल। उस भगवान की गोदी में जब हम बैठ जाएँगे और भगवान से जब हम लिपट जाएँगे तो हम क्यों न वैसे हो जाएँगे! मनुष्य अपनी संकीर्णता को छोड़ दे और भगवान की शरण में चला जाए तो फिर वैसा ही हो जाएगा, जैसा कि अभी मैंने कबीर के दोहे से बताया।
नारद और वाल्मीकि का यही हुआ था। नारद जी को मारने के लिए वाल्मीकि आए। वाल्मीकि ने कहा कि मैं तो आज मारूंगा ही, यह मेरा काम है। नारद जी ने कहा कि मारोगे तो सही, लेकिन एक बात अपने घर से पूछ करके आओ और हमको बताओ। क्या आपके इस पाप कार्य में आपके घर वाले भागीदार हैं क्या? घर में पूछने गए, पत्नी से पूछा, बेटे से पूछा, माँ से पूछा। सबका उत्तर एक ही था कि हमको तो उदरपोषण के लिए चाहिए, उदरपूर्ति के लिए चाहिए और हमें तो संपत्ति चाहिए, उदरपूर्ति के लिए चाहिए और हमें तो संपत्ति चाहिए। हमको क्या मतलब है कि आप कहाँ से लाते हैं। नैतिक कार्य से लाते हैं या अनैतिक कार्य से कमाते हैं। हमको सोचने−विचारने की कोई जरूरत नहीं हैं कि हम आपके इस कार्य में सहयोग दें अथवा न दें। हम क्यों देंगे? आपका फर्ज और कर्त्तव्य है हमारे लिए, लाइए। उन्होंने कहा कि मैं नरक में जाऊँगा तो आप लोग चलेंगे क्या? मैं सजा भुगतूँगा तो आप मेरे साथ सजा भुगतेंगे क्या? घर वालों ने कहा कि हम नहीं भुगतेंगे आपके साथ, आप ही जाइए। हमको तो चाहिए आपसे पैसा। जो आपका फर्ज और कर्त्तव्य कहता है, उसे आप पूरा करते रहें।
वाल्मीकि पहुँचे और नारद जी के चरणों में गिर पड़े और कहा, नारद आप तो भगवान के सच्चे भक्त हैं। आप दर−दर अलख जगाते फिरते हैं और मैं एक नरक का कीड़ा, नरक में ही रह जाऊँगा क्या? उन्होंने कहा, बस अब नहीं रहेगा। तूने अपने मन की मलीनता को निकाल दिया। तू धूल गया, तेरी जीवात्मा धुल गई, अब तक जो गर्त्त में समाई हुई थी। हीरा जब मिट्टी में पड़ा रहता है तो चमकता नहीं है, वह दब जाता है, पर जब उस हीरे को मिट्टी में से निकाल देते हैं तो हीरा चमक जाता है। उसका वास्तविक स्वरूप सामने आ जाता है। भक्त का स्वरूप उस दिन सामने आता है, जब वह अपनी अहंता को मिटा देता है। अहं को गला देता है और भगवान को समर्पण कर देता है। तब उसका सही स्वरूप सामने आता है।
अनुदान स्वतः मिलेंगे
बेटे, उपासना जितनी हम अपनी जीवात्मा की मलीनता को दूर करने के लिए करेंगे, उतनी ही हमारी जीवात्मा की सफाई होगी और उसी अनुपात से हमें अनुदान मिलता चलेगा। जैसे कि भेड़ के ऊपर ऊन जमी रहती है, उसे जितना काटते हैं, ऊन उतनी ही मिलती चली जाती है। इसी प्रकार भगवान का जो अनुदान है, वह स्वतः ही हमको मिलता चला जाएगा, माँगना नहीं पड़ेगा। मनुष्य भिखारी नहीं है, वह तो भगवान का बेटा है। वह तो स्वयं ही अधिकारी है भगवान की उस दौलत का। कौन−सी दौलत का? जो संसाररूपी दौलत उसने हमारे हाथ में सौंपी है। भगवान ने सब कुछ सौंप दिया है। लोग कहते है, ‘सब सौंप दिया भगवान तुम्हारे हाथों में।’ मैं कहूँगी कि भगवान ने सब सौंप दिया हमारे हाथों में। हम उसे उजाड़ें या उसको सँभाल करके रखें। संभाल करके रखेंगे तो वह हमारी धरोहर है। हम उसके इस बगीचे को और भी खूबसूरत बनाएँगे और उसमें तरह−तरह के पौधे लगाएँगे, फूल लगाएँगे। भगवान ने हमको यह संसाररूपी बगीचा और मानव रूपी फुलवारी सौंपी है, उसकी सेवा के लिए हम उसी तरीके से प्रयत्नशील रहेंगे, जिस तरीके से रामकृष्ण परमहंस थे।
परमहंस का भगवान
रामकृष्ण परमहंस के पास एक पादरी गए। पादरी ने कहा कि कहीं भगवान है क्या, हमको दिखाओगे क्या? उन्होंने कहा चलिए, अभी मैं भगवान के समीप ही जा रहा हूँ। मेरा भगवान से मिलने का समय हो गया है। पादरी ने आश्चर्य से कहा, भगवान से मिलने का समय हो गया है, आपका भगवान कहाँ है, कहीं दिखाई तो नहीं दे रहा है? क्या आपको दिखाई देता हैं? उन्होंने कहा कि तुम अभागे हो और मैं भाग्यशाली हूँ। मुझे भगवान हर समय दिखाई देता है। मेरी भुजाओं में दिखाई देता है, मेरी अक्ल में दिखाई देता है, मेरे पाँव में दिखाई देता है और भगवान मेरे रग−रग में समाया हुआ है। भगवान का तेज और ओजस् मेरे अंतःकरण में इस तरीके से झिलमिलाता रहता है, जैसे रोशनी, जैसे बल्ब चमकता है। सूरज और चंद्रमा चमकते रहते हैं। इसी तरीके से मेरे हृदय में भगवान की रोशनी हर समय समाई रहती है। चलो मैं भगवान को दिखा करके लाता हूँ। वे एक कोढ़ी के पास गए, उन्होंने उसका मवाद साफ किया, मरहम−पट्टी की। उसको साफ−सुथरा किया और उसे खिलाया−पिलाया। इसके बाद रामकृष्ण परमहंस ने स्वयं अन्न ग्रहण किया। उन्होंने कहा कि यही है मेरा भगवान, यही मेरी उपासना है। पादरी ने कहा, मैं धन्य हो गया, आज मैंने भगवान को आपके ही रूप में पा लिया। अभी तक मैं अंधकार में था।
सच्ची उपासना
बेटे, अंधकार की मिटाइए और सच्ची उपासना कीजिए। हम नहीं जानते कि रामकृष्ण परमहंस ने कितनी उपासना की थी और हनुमान ने कितनी माला जपी थी, लेकिन जब तक रामायण रहेगी, भगवान राम का नाम रहेगा, तब तक हनुमान का नाम भी रहेगा, उनके कलेजे से चिपका रहेगा। साधारण वानर होते हुए भी हनुमान का नाम भी रहेगा, उनके कलेजे से चिपका रहेगा। साधारण वानर होते हुए भी हनुमान ने भगवान राम का काम किया था और उनने भाइयों से ज्यादा बेटे समान दरजा ले लिया था। कैसे ले लिया? अपनी अहंता को मिटा करके ले लिया था। जिस उपासना के बारे में अभी मैं कह रही थी, सच्चे अर्थों में जो उपासना की जाती है, वह इसी तरीके से की जाती है। उपासना का और ध्यान का सही स्वरूप आप समझ गए होंगे। आप सभी इसी ओर कदम बढ़ाएँगे, ऐसी मुझे आशा है। ॥ ॐ॥