उपासना का ज्ञान विज्ञान

March 2003

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आत्मिक उत्कर्ष के उपायों में उपासना का स्थान सर्वोपरि है। इसमें अपनी आस्था, अभिरुचि एवं श्रद्धा के अनुरूप ईष्ट का चयन किया जाता है और उसके साथ घनिष्ठ आत्मीयपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। घनिष्ठता की गहराई के अनुरूप उपासक अपने अन्दर वाँछित परिवर्तन को पाता है। उपासना के ये गम्भीर प्रभाव कोई चमत्कार या रहस्यमय नहीं है बल्कि गूढ़ मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रतिष्ठित है।

प्रख्यात चिकित्सा विज्ञानी डॉ. हेनरी लिंडलहर अपनी कृति ‘प्रेक्टिस ऑफ नेचुरल थेराप्यूरिक्स’ में लिखते हैं कि मनुष्य के मनोभावों का उसके स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है और व्यक्ति किसी महापुरुष, अदृश्य देवदूत तथा सर्वव्यापी तत्त्व से एकत्व स्थापित करके अपने शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को निश्चयपूर्वक सुधार सकता है। हम जिस भी प्रकार की आत्मा का ध्यान करते हैं, उससे हमारा संपर्क-सम्बन्ध उसी तरह स्थापित हो जाता है, जिस प्रकार रेडियो या टी.वी. का संपर्क इसके प्रसारण केन्द्र से जुड़ जाता है। इस तरह मनुष्य का मन मस्तिष्क एक रेडियो या टी.वी. सेट के समान है जो अभीष्ट ट्युनिंग के अनुरूप अच्छे व बुरे विचारों को ग्रहण करता रहता है और यह प्रक्रिया जागृत एवं स्वप्न दोनों अवस्थाओं में चलती रहती है। उपासना में हम श्रेष्ठता एवं दिव्यता के पुञ्ज ईष्ट पर ध्यान करते हैं तो हमारा मन भी इनके श्रेष्ठ एवं दिव्य भावों को ग्रहण करने लगता है और हम ऊर्ध्वगति को प्राप्त होने लगते हैं तथा पतन-पराभव के मार्ग में गिरने से बचते हैं।

इसी मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन हम उपटन सिंकलेयर की ‘मेण्टल रेडियो’ नामक पुस्तक में पाते हैं। उपटन महोदय लिखते हैं कि मनुष्य अपने विचारों को न केवल भौतिक माध्यमों से भेज सकता है, बल्कि वह अभौतिक मार्गों से भी अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचा सकता है। सिद्ध योगीगण इसी विधि को अपनाते हैं। वे बैठे-बैठे ही अपने विचारों को समूचे विश्व ब्रह्मांड में प्रसारित करते रहते हैं और सुपात्र आत्माएँ इनकी प्रेरणाओं को ग्रहण कर आगे प्रसारित एवं क्रियान्वित करते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति महान् आत्माओं के संदेशों के प्रति अपने मन के द्वार को खोलकर इनकी दिव्य प्रेरणाओं को ग्रहण कर सकता है। उपासना इसी प्रयोजन को सिद्ध करने वाली सशक्त प्रक्रिया है।

उपासना में उपास्य का चुनाव एवं उपासक के व्यक्तित्व का गठन एवं रूपांतरण भी मनोवैज्ञानिक रीति से सम्पन्न होता है। योग सूत्र में कहा गया है कि मनुष्य जो कुछ भी सोचता है, वह वैसा ही बनने लगता है। गीताकार ने इसी तथ्य को सुन्दर रूप से विवेचित किया है-

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो योयच्छन्द्धः स एव च॥ (17/3)

मनुष्य की लगन उसके स्वभाव के अनुरूप ही होती है। यही उसका सत्त्व है। इसी के अनुसार वह अपने मित्रों, गुरुजनों, देवी-देवताओं का चुनाव करता है और उन पर अपनी श्रद्धा और भक्ति को प्रकाशित करता है। यह एक सामान्य मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिस के अनुसार मनुष्य जैसी श्रद्धा रखता है, वह वैसा ही बनता जाता है।

आधुनिक मनोविज्ञान इसी तथ्य को आत्मीकरण या तादात्मीकरण के अंतर्गत स्पष्ट करता है। इसके अनुसार मनुष्य का अचेतन मन अनेक प्रकार की गूढ़ प्रक्रियाओं एवं गुप्त चेष्टाओं के द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करता है। अन्तरीकरण या आत्मीकरण एक ऐसी ही चेष्टा है। इसके अंतर्गत व्यक्ति अपने अंतर्मन की गहनतम इच्छा के अनुरूप बाहर अपना आदर्श गढ़ता है और इसका ध्यान करने लग जाता है। ध्यान की प्रगाढ़ता में ध्याता और ध्येय में एकत्व स्थापित हो जाता है। सामान्य स्थिति में तादात्मीकरण की इस प्रक्रिया को हम किसी फिल्म अथवा खेल देखने वालने दर्शकों की मनोवृत्ति में देखते हैं। साहित्यिक रचना एवं रसास्वादन में भी सचेतन मन की यही प्रक्रिया काम करती है। भाव तादात्मीकरण की यह प्रक्रिया ही वस्तुतः हो रही घटनाओं में व्यक्ति की सक्रिय भागीदारी का बोध कराकर सृजनात्मक आनन्द का आधार बनती है। तादात्मीकरण की यह वृत्ति अपने परिष्कृत रूप में उपासक की मनोवृत्ति में सक्रिय होती है, जिसकी पराकाष्ठा में उपासक का अस्तित्व पूरी तरह ईष्ट में विलय हो जाता है। अद्वैत की इस चरम स्थिति में ही उपासना के चमत्कारिक फलश्रुतियाँ प्रतिफलित होती हैं।

‘साइकोलॉजी ऑफ रिलीजन’ में थूलेसन, सेन्ट कैथेराइन का उदाहरण देते हुए उपासना की ऐसी चमत्कृति पर प्रकाश डालते हैं। अपने ईष्ट से तादात्मीकरण के विशेष क्षणों में, कैथरीन अपने शरीर के विभिन्न भागों में वैसे ही पीड़ा अनुभव करती थी, जिस प्रकार हजरत ईसा को कभी हुई थी। ऐसी अवस्था में चिकित्सक उसकी देखभाल करते थे। उन्होंने कैथरीन की पीड़ा को वास्तविक अनुभूत पाया। इसी तरह कृष्ण दीवानी मीरा अपने प्रभु के प्रेम में इतना डूब जाती थी कि वह श्रीकृष्ण रूप ही बन जाती थी और अन्त में द्वारिकाधीश में ही समा गयी।

इस तरह उपासना एक विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है, जिसका अपना ठोस एवं सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक आधार है। अपनी चरम परिणति में यह अपने ईष्ट उपास्य से एकात्मयता के लक्ष्य को सिद्ध करती हैं और व्यक्तित्व के गहनतम स्तर से रूपांतरण एवं गठन के मार्ग को प्रशस्त करती है। सामान्य रूप में लिया गया उपासना का अवलम्बन भी साधक को जीवन की जटिल चुनौतियों से जूझने का बल देता है और मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में एक गहन एवं प्रभावी उपचार के रूप में सिद्ध होता है।

आधुनिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में चार्ल्स युँग ने उपासनात्मक धार्मिक क्रियाओं को मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यक्तित्व विकास के लिए नितान्त आवश्यक माना है। उनका कहना था कि विश्व के सभी मानसिक चिकित्सक मिलकर उतने मानसिक रोगियों को आरोग्य प्रदान नहीं करा पाते, जितना कि विश्व का निम्न से निम्न स्तर की उपासना पद्धति कराती है। इसके अपने ठोस आधार हैं।

मनुष्य को जीवन मात्र देह और मन का मनोकायिक ढांचा भर नहीं है और ना ही उसका अस्तित्व परिवार, समाज एवं इस लोक के जीवन तक सीमित है। उसका इन सबसे परे गहन भावनात्मक एवं आध्यात्मिक अस्तित्व भी है जिसका अपना आलौकिक स्वरूप है। मानव को समग्र सुख-शान्ति एवं सुरक्षा को आधार यही है जो कि गहनतम इच्छा आकाँक्षा के रूप में मनुष्य के अन्तर में अपनी पूर्ति के लिए सदैव लालायित रहता है। भौतिक विज्ञान इस आकाँक्षा की पूर्ति के लिए कुछ नहीं देता। यही कारण है कि भौतिक रूप से समृद्ध एवं विकसित देशों में विक्षिप्त एवं मनोरोगियों की संख्या सर्वाधिक है और अन्य समाज भी जो उपासनात्मक अवलम्बन से हीन है वहाँ भी ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है। मानव की गहनतम आत्मिक पिपासा को उपासनात्मक उपचार ही शान्त कर सकते हैं।

दूसरा मानवीय असंतोष का आधारभूत कारण उसकी अस्तित्व सम्बन्धी ससीमता का बोध है। मात्र देह और मन बुद्धि की शक्ति के बूते वह जीवन की गम्भीरतम चुनौतियों का सामना नहीं कर सकता। भौतिक विज्ञान द्वारा भी जो सुविधा साधन उसे उपलब्ध होते हैं वे भी अपनी सीमा में बँधे हैं। ऐसे में जीवन की असहनीय निराशा एवं दैवीय संकटों की स्थिति में वह या तो मृत्यु या पागलपन का आह्वान करने लगता है या फिर झूठे संतोष में स्वयं को भुलाने की चेष्टा करता है।

वर्तमान मानव की दयनीय मानसिक स्थिति का सुन्दर चित्रण करते हुए डॉ. आर. के. मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘सिक्वेंस ऑफ सिविलाइजेशन’ में ठीक ही लिखा है कि हमारी वर्तमान भौतिक उन्नति तथा वैज्ञानिक बुद्धि ने मनुष्य को आध्यात्मिक दृष्टि से विकृत कर दिया है और उससे आन्तरिक शान्ति छीन ली है। इसी का परिणाम है कि समृद्ध राष्ट्र जहाँ गरीब राष्ट्रों के शोषण व सत्ता संघर्ष में उलझे हुए हैं, वहीँ सम्पूर्ण मानव जाति भारी असंतोष एवं विक्षिप्तता के दौर से गुजर रही है। मानवीय प्रयास इस संदर्भ में निराशावादी रुख लिए हुए हैं, जिनके अनुसार सभ्यता का विकास और मानसिक रोगों की वृद्धि एक दूसरे के सहगामी हैं। मनुष्य इस दुर्भाग्य से मुक्त नहीं हो सकता।

किन्तु आध्यात्मिक दर्शन एवं उपचार इस निराशावाद को निरस्त करते हैं। उसके अनुसार मानव के भीतर वह तत्त्व विद्यमान है, जो अपार ज्ञान, शक्ति और आनन्द का स्रोत है। इसका जागरण एवं विकास ही मनुष्य की तमाम समस्याओं का समाधान है। उपासनात्मक उपचार इसी को सम्पन्न करने का सशक्त विज्ञान सम्मत उपाय है, जिसमें मनुष्य के आध्यात्मिक ज्ञान की प्रगति बाहर से भीतर की ओर होती है। इसमें अन्तरात्मा की पूर्णता का प्रक्षेपण (प्रोजेक्षन) चयनित उपास्य देव, महापुरुष या आदर्श में होता है और इससे भाव-संवाद एवं तादात्मीयकरण की प्रक्रिया के साथ आन्तरिक जागरण रूपांतरण एवं विकास की प्रक्रिया शुरू होती है। साथ ही उपासना द्वारा व्यक्ति को जीवन की रिक्तता एवं अपूर्णता को भरने वाला सशक्त एवं पूर्ण आलम्बन मिल जाता है और अस्तित्व की गहनतम जिज्ञासा एवं पिपासा को संतुष्ट एवं तृप्त करने वाला आधार भी मिल जाता है।


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