सफलता के दस आग्नेय मंत्र

March 2003

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सफलता संकल्पवानों के संकल्प में निवास करती है। इसका मूल मंत्र है आत्मविश्वास। और असफलता का कारण है आत्म विश्वास का अभाव। सफलता न अनुकूल परिस्थितियों पर आधारित है और उपर्युक्त अवसरों पर। यह तो आत्म विश्वास पर ही निर्भर करती है। आत्म विश्वास का अर्थ कोरी भावुकता नहीं है बल्कि यह उस दूरदर्शिता का दूसरा नाम है जिसके साथ अटल संकल्प और अदम्य साहस जुड़ा रहता है। आत्मविश्वास का तात्पर्य है अपने आप के प्रति प्रबल आस्था और गहन निष्ठ। आस्था और निष्ठ ही सफलता का पथ प्रशस्त करती है।

सफलता के कँटीले रास्तों पर आने वाले बाधा, विघ्नों और अवरोधों को दूर करने का एक ही उपाय है,आत्मविश्वास की गंगोत्री से ही शक्ति का प्रवाह फूट पड़ता है और प्रचण्ड पुरुषार्थ की भागीरथी बहने लगती है। इस पयस्विनी में स्नान कर तमाम असफल व्यक्तियों की असफलताएँ धुली एवं दुर्बलताएँ मिटी और सफलता के पुण्य आनन्द का लाभ मिला।

जीवन में सफलता कैसे अर्जित हो आत्म बल कैसे बढ़े? इसके लिए सामान्य व व्यावहारिक परन्तु प्रेरणाप्रद दस नियमों को अपनाना, पालन करना चाहिए। सबल आत्मशक्ति के दस नियम हैं- सहजता का नियम (लॉ ऑफ सिम्पिलिसिटी), कर्म का नियम (लॉ ऑफ कर्म), कामना का नियम (लाफ ऑफ होप्स), परवाह का नियम (लॉ ऑफ केअर), विश्वास का नियम (लॉ ऑफ ट्रस्ट), आदर का नियम (लॉ ऑफ रेस्पेक्ट), सक्रियता का नियम (लॉ ऑफ डायनेमिज्य), परोपकार का नियम (लॉ ऑफ बेनोवोलेन्स), कृतज्ञता का नियम (लॉ ऑफ ग्रैटीच्यूड) और बलिदान का नियम (लॉ ऑफ सैक्रीफाइस)।

सहजता का नियम सफलता का प्रथम सोपान है। इसका तात्पर्य है-शान्ति और सरलता में विश्वास। शान्त मन से, शान्त ढंग से किया गया हर कार्य सफल होता है। बेवजह जल्दी बाजी काम को बनाने की अपेक्षा बिगाड़ता अधिक है। अनावश्यक आतुरता से कुछ भी उपलब्ध नहीं होता है उल्टा नुकसान और हानि उठानी पड़ती है। अनौचित्य परिश्रम से सफलता मिलती नहीं है बल्कि असफलता का घना कुहासा छा जाता है जहाँ कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखता।

आज मशीनी युग की सबसे बड़ी समस्या है-निरर्थक भाग दौड़। मूल्यहीन व्यस्तता और दूसरे से आगे बढ़ने की सर्वनाशी होड़। व्यक्ति वाहन का उपयोग इसलिए करता है क्योंकि वह सुरक्षित और सहजता से अपने गन्तव्य तक पहुँच जाय। परन्तु वाहन को तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम चलाकर न जाने किससे आगे और कहाँ पहुँच जाना चाहता है। यह हाल जीवन के हर क्षेत्र में है। हर ओर आपाधापी मची हुई है। राशन और गैस स्टोर या किसी अन्य काउंटर पर पंक्तिबद्ध खड़ा होकर अपनी बारी की प्रतिक्षा में हम असहज और परेशान हो जाते हैं। परिणामतः लाइन टूटती है दैनिक जीवन की व्यवस्था भंग होती है और आन्तरिक जीवन चकनाचूर हो जाता है।

अतः जीवन में सफलता पाने के लिए शान्त रहना चाहिए और सरलता व सहजता में घनघोर विश्वास रखना चाहिए। सहज व शान्त मन में विवेक विचार का उदय होता है जो सफलता के अनिवार्य शर्त हैं।

सफलता के लिए कर्म के नियमों का पालन करना भी आवश्यक है। कर्म की उत्कृष्टता एवं श्रेष्ठता में ही सफलता का मानदण्ड एवं मापदण्ड निर्धारित होता है। सद्कर्म से मिली असफलता भी सफलता से बढ़ी-चढ़ी होती है। इससे मन में अपार शान्ति एवं प्रसन्नता का अनुभव होता है और यदि कर्म निष्काम भाव से किया जाय तो जिन्दगी की दिशा धारा ही बदल जाती है। इससे आन्तरिक जीवन पवित्र एवं प्रखर होता है। आन्तरिक एवं बाह्य दोनों की सफलता के लिए निष्काम कर्म करना चाहिए।

संसार में हर व्यक्ति सफलता प्राप्त करना चाहता है। परन्तु हरेक की सफलता की चाहत अलग-अलग होती है। कोई भौतिक जीवन में सफल होने की कामना करता है तो कोई धार्मिकता एवं आध्यात्मिकता की इच्छा करता है। कर्म भी मन की इच्छाओं के द्वारा नियमित एवं निर्धारित होते हैं। मनोनुकूल कार्य सहजता से सम्पन्न होते हैं जबकि जिस कार्य में इच्छा न हो वह बड़ा भारी एवं उबाऊ लगता है। अतः हरेक व्यक्ति को अपने भावी भविष्य की कामना सुखद एवं सफल करनी चाहिए। परन्तु यथार्थ के धरातल पर उतारने के लिए व्यवहार में लाने के लिए बुरे से बुरे परिस्थितियों के लिए भी तैयार रहना चाहिए। अन्यथा सुखद कल्पना एवं कामना पानी के बुलबुले के समान विलीन हो जायेगी।

हमें जितनी अपनी सफलता एवं विकास के लिए परवाह होती है उतनी ही औरों के लिए भी होनी चाहिए। परवाह की यह उदात्त भावना हमें उदार बना देती है। और हम दूसरों के सुख में सुखी तथा दुःख में दुखी होते हैं। इससे मन में ईर्ष्या, द्वेष, दुर्भाव जैसे असाध्य मनोविकारों को मन के अन्दर जड़ जमाने का मौका नहीं मिलता। परिणामतः व्यक्ति बड़ा खुश एवं आनन्दित रहना है। जब हम अपने समान दूसरों का भी ख्याल रखते हैं तो सभी हमारे मित्र एवं हितैषी बन जाते हैं और ईश्वर भी हमारा ख्याल रखता है। अतः परवाह का नियम सफल जीवन के लिए अत्यन्त जरूरी है।

विश्वास-आत्मविश्वास सफलता का अमोघ अस्त्र है। संसार का इतिहास उन थोड़े से व्यक्तियों का इतिहास है, जिनमें आत्मविश्वास था। यह विश्वास हमारे अन्दर विद्यमान देवत्व को ललकार कर प्रकट कर देता है। तब व्यक्ति कुछ भी कर सकता है, सर्व समर्थ हो जाता है। असफलता तभी होती है, जब हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं होता है। स्वामी विवेकानन्द ने सिंहनाद करते हुए कहा है कि जिसमें आत्मविश्वास नहीं हो वही नास्तिक है। जिस क्षण व्यक्ति या राष्ट्र आत्मविश्वास खो देता है, उसी क्षण उसकी मृत्यु हो जाती है। विश्वास-विश्वास। अपने आप पर विश्वास, यही उन्नति एवं सफलता का एकमात्र उपाय है।

विश्वास हमें सफलता दिलाता है और प्रतिष्ठ भी दिलाता है। परन्तु जीवन में मान एवं प्रतिष्ठ तभी आते हैं, जब व्यक्ति विनम्र हो और दूसरों का आदर सम्मान करना जानता हो। दूसरों को आदर करने वाला व्यक्ति ही सम्मान का सच्चा अधिकारी होता है। जिसे स्वयं का सम्मान करना नहीं आता वह मृत एवं मुर्दे के समान है उसके अन्दर स्वाभिमान का घोर अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति दूसरों का सम्मान भी नहीं करते और बदले में निरादर-अनादर के समान तिरस्कृत होते हैं। अतः सफल होने के लिए आदर के नियमों का पालन करना चाहिए। क्योंकि आदर चाहे दूसरों का करें या स्वयं का सदैव कुछ अच्छा व श्रेष्ठ लेकर ही आता है।

सम्मान की यह अभिलाषा व्यक्ति को सक्रिय एवं सजग कर देती है। वह भाग्य और भविष्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रहता है। बल्कि वह कुछ करने में विश्वास रखता है और सफलता के प्रति सक्रिय हो जाता है। उसकी यही सक्रियता उसे प्रबल प्रयास एवं प्रचण्ड पुरुषार्थ के लिए प्रेरित करती है। फिर उसमें साहस और बल का संचार होता है और अपनी सफलता के लिए असफलताओं के भँवर में भी असीम धैर्य का परिचय देता है। ऐसे सक्रिय व्यक्ति के निजी और बाहरी दोनों जीवन चमक उठते हैं, जो हमेशा अपने लिए और औरों के लिए कुछ करने के लिए सजग रहता है।

दूसरों के लिए कुछ करने की भावना ही परोपकार है। परोपकार खेत में बोए जाने वाले बीज के समान है। जब परोपकार किया जाता है तो कुछ भी दिखाई नहीं देता है परन्तु जब इसकी फसल पक जाती है तो सद्भावना एवं प्रेम के रूप में लहलहाने लगती है। अतः सफल व्यक्ति वही नहीं जिन्होंने बेशुमार सम्पत्ति जमा कर ली हो या समाज में मान-सम्मान पाकर प्रतिष्ठिता, सहायता करके दुआओं की दौलत से मन का खजाना भर लिया हो। परोपकार जेठ की दुपहरी में ठण्डी व शीतल छाँव के समान है जहाँ पर कुछ देर आराम और विश्राम किया जा सकता है।

उपकारों का बदला केवल कृतज्ञता के भाव से ही चुकाया जा सकता है। कोई हमारे लिए कुछ भी किया हो सदैव उसके प्रति कृतज्ञता का भाव होना चाहिए तथा उसके लिए कुछ करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। कृतज्ञ व्यक्ति सफल होता है परन्तु कृतघ्न अपयश का भागी होता है और उसे असफलता ही हाथ लगती है क्योंकि कृतज्ञता प्रकट करने से विनम्रता आती है और कृतघ्नता से अहंकार। कृतज्ञ का सभी सहयोग करते और वह सफल हो जाता है और ठीक इसके विपरीत कृतघ्न का कोई साथ नहीं देता।

सफलता के लिए जिस चरित्र की सबसे बड़ी आवश्यकता पड़ती है वह है-त्याग, बलिदान और समर्पण का आदर्श भाव। इससे कम में सफलता की चाहत नहीं करनी चाहिए। जो कुछ करने के लिए या पाने के लिए कटिबद्ध है वही त्याग कर सकता है, जिसके इरादे मजबूत एवं दृढ़ है, जिसके विश्वास अटल है, जो संकल्पवान है वही बलिदान कर सकता है, समर्पित हो सकता है और इसी पथ पर बढ़ते हुए ही सफलता की मंजिल को पार किया जा सकता है। यही आत्मविश्वास के आग्नेय मंत्र है, यही नियम एवं विधान है जिसे अपनाकर सफलता के रथ पर व्यक्ति सवार हो सकता है।


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