उपनिषदों की दिव्य प्रेरणाएं

March 2003

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उपनिषद् साहित्य देवसंस्कृति की अमूल्य धरोहर है। यह जहाँ वैदिक चिंतन का चरमोत्कर्ष है वहीं भारतीय दर्शन की अन्य विचार धाराओं का आदि स्रोत भी है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के उच्चतम आलोक से प्रकाशित ऋषियों की चिंतन चेतना इनसे निर्झरित हुई हैं। मानव मात्र के लिए इनका संदेश एवं महत्त्व सार्वभौमिक है तथा इनके प्रतिपादन समग्र हैं। मानव जाति का यह श्रेष्ठ वाङ्मय मनुष्य के आध्यात्मिक पथ को जहाँ ज्ञान का पाथेय प्रदान करता है, वहीं उसके जीवन पथ को आलोकित करने वाला दीपस्तम्भ भी है। यह श्रेयस और प्रेयस, विद्या और अविद्या, संभूति और असंभूति, परा और अपरा विद्या का अद्भुत समन्वय प्रस्तुत करता है। इस तरह आध्यात्मिक मानसरोवर रूपी उपनिषद् से निसृत ज्ञान की सरिताएँ मानव मात्र के लौकिक अभ्युदय एवं आध्यात्मिक कल्याण के लिए प्रवाहमान होती हैं।

इस आधार पर आज के मानव के लिए उपनिषदों की प्रासंगिकता को भलीभाँति समझा जा सकता है। जबकि एकाँगी अध्यात्मवाद एवं एकाँगी भोगवाद मनुष्य के विनाश का कारण बना हुआ है। अस्तित्व को लीलती भोगवाद की आँधी यहाँ मानवीय अस्मिता के लिए खतरा बनी हुई है वहीं जीवन से अपना नाता तोड़े बैठी आदर्शवादिता जीवन की चुनौतियों से भागकर पलायनवाद का मार्ग अपना बैठी है। जीवन के स्पष्ट आदर्श एवं दिशा के अभाव में, किंकर्त्तव्यविमूढ़ता के इस मोड़ पर उपनिषदों के महर्षियों की आलोकित प्रज्ञा आज भी मानव को प्रखर दिशा बोध एवं कर्त्तव्य निर्धारण करवाने में सक्षम है। सर्वांगीण प्रगति के मार्ग पर बढ़ते हुए जीवन की गुणवत्ता का आधार क्या हो, उपनिषदों के प्रखर चिंतन में इसका स्पष्ट मार्गदर्शन मिलता है।

उपनिषदों के अनुसार मनुष्य जन्म दुर्लभ है और जो लोग इसे प्राप्त करते हैं, वे धन्य हैं, क्योंकि एक तो यह जन्म लाखों योनियों को पार करने के बाद मिलता है और इन समस्त योनियों में केवल मनुष्य ही ब्रह्मज्ञान का अधिकारी है।

मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता का आधार उपनिषद् उसके स्वतंत्र चिंतन, विवेकशीलता और सृजनशीलता की अद्भुत क्षमताओं को मानता है। उसके अनुसार मानवेत्तर योनियाँ मात्र भोग योनियाँ हैं। ‘जायस्व म्रियस्व’ अर्थात् जन्म लो, भोगो और मरो, यही उनकी नियति है, किन्तु मनुष्य योनि भोग योनियाँ तो है ही, कर्म योनि भी है। अतः ‘मनुर्भव’ का आदेश देकर उसे मनुष्य बनने के लिए सचेत करता है, क्योंकि मनुष्य जन्म तो सहज है किन्तु मनुष्यता उसे कठिन एवं सचेतन प्रयत्न द्वारा अर्जित करनी होती है।

इसमें मानव देह को ‘देवपुरी और ब्रह्मपुरी’ की संज्ञा देकर स्तुति गान किया गया है। क्योंकि समूचा देवत्व एवं दिव्यत्त्व इसी मानवीय देह में विद्यमान है बस आवश्यकता इसके प्रति सजग होने की एवं इस जन्म सिद्ध अधिकार को प्राप्त करने में चेष्टारत होने की है।

इस संदर्भ में उपनिषद्कार मानव शरीर की तुलना एक रथ से करते हुए कहते हैं कि आत्मा ही इस शरीर रूप रथी का स्वामी है। इन्द्रियाँ इसके अश्व हैं, मन लगाम और बुद्धि सारथी। रथ के दो पहिये भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के प्रतीक हैं। आवश्यकता अपने आत्म स्वरूप के प्रति सजग होने की है, तभी हम बुद्धि रूपी सारथी को सही निर्देश देते हुए मन रूपी लगाम द्वारा इन्द्रिय रूपी अश्वों को सही दिशा में बढ़ा पायेंगे और समग्र प्रगति का पथ प्रशस्त हो पायेगा। यदि हमारी आत्मा मूर्छित है तो इन्द्रियों का स्वच्छन्द विचरण, मन की दिशाहीनता और बुद्धि का भ्रम ही नियति बन जायेगी, क्योंकि मन व इन्द्रियाँ स्वभाव से ही बहिर्मुखी हैं, इन्हें सुख-भोग ही रुचता है और फिर तृष्णा-वासना का कोई अन्त नहीं। इन्द्रिय एवं भौतिक सुखों के दलदल में डूबा आज का मनुष्य इसी का उदाहरण है। यह मूर्छित आत्मा की परिणति है।

इन्द्रियों एवं विषयों के संयोग से उत्पन्न भोग, जीवन का अविच्छिन्न अंग है, किन्तु इन्द्रियों का दास बन जाना हर दृष्टि से अकल्याणकारी है और अन्ततः विनाशकारी ही सिद्ध होता है। इसीलिए भोगों में डूबी भटकी मानवता के लिए उपनिषदों का संदेश है- ‘तेनत्यक्तेन भुँजीथा’ अर्थात् त्याग पूर्ण भोग करो। अर्थात् मनुष्य इन्द्रियों का उपयोग स्वामी की तरह करे न कि इनका दास बन कर।

मनुष्य मन प्रधान प्राणी है। अतः जीवन की गुणवत्ता मन द्वारा निर्धारित होती है। इस तथ्य के मर्मज्ञ उपनिषदीय ऋषि अन्न की शुद्धि पर बल देते हैं, उनके अनुसार अन्न के सूक्ष्मतम अंश से मन बनता है अतः आहार की शुद्धि से मन की शुद्धि होती है और अन्तःकरण के पवित्र होने से स्मृति दृढ़ हो जाती है और इसी के अनुरूप जीवन के हर क्षेत्र की गुणवत्ता सुनिश्चित होती है तथा जीवन के परम लक्ष्य की मञ्जिल समीप होती जाती है।

ऋषि मन की प्रकृति से भलीभाँति परिचित हैं अतः वह कहता है कि मन वायु की भाँति चंचल और दुर्निह है। जैसे वायु को बाँधना कठिन है, वैसे ही मन को नियंत्रित करना। परन्तु अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा इसे वश में किया जा सकता है। बुद्धि रूपी सारथी द्वारा मन रूपी लगाम से इन्द्रिय रूपी अश्वों को नियंत्रित करना चाहिए। और जीवन में सफलता के लिए हमें सनसनाते तीर की भाँति लक्ष्य का भेदन करना चाहिए। (शरवत् तन्मयो भवेत्) अर्थात् जिस भी कार्य को करें उसे पूरा मन लगाकर, तल्लीन होकर करना चाहिए। आधे-अधूरे मन से किया गया कार्य हमें असफलता की ओर धकेलता है, परिणामस्वरूप निराशा, क्षोभ, कुण्ठा, आवेग आदि ही हाथ आते हैं और हमें विक्षिप्तता की ओर धकेल देते हैं। अतः जीवन की उत्कृष्टता के लिए मनोनिग्रह एवं एकाग्रता पर ऋषि बल देते हैं। साथ ही इसका सरलतम उपाय ओंकार ‘ॐ’ का जप बतलाते हैं। क्योंकि यह स्वयं ब्रह्म का नाम है तथा अनहद नाद के रूप में अंतर्भूत है। तैत्तिरीय उपनिषद् में कहा गया है कि किसी कार्य को ओंकार पूर्वक प्रारम्भ करने से सफलता अवश्य प्राप्त होती है।

उपनिषदों में स्वाध्याय को जीवनोत्कर्ष का एक अनिवार्य अंग माना गया है। ‘स्वाध्यायात् मा प्रमदः’ कहकर इसमें प्रमाद को वर्जनीय माना है। क्योंकि साँसारिक माया एवं मन की प्रकृति दोनों मिलकर जीवात्मा को अपने लक्ष्य के प्रति भ्रमित ही अधिक रखती है। सद्ग्रंथों, महापुरुषों द्वारा रचित साहित्य एवं शास्त्र ग्रन्थों के अध्ययन से आत्ममूर्छना टूटती है; जीवन के अँधेरे कोनों में प्रकाश पड़ता है और अभ्युदय का मार्ग प्रकाशित होता है। अतः स्वाध्याय को जीवन का अभिन्न अंग बनाने का आदेश दिया गया है।

सत्य को सबसे बड़ा तप एवं धर्म बताया है। और ‘सत्येन जयते नानृतम’ अर्थात् सत्य की ही जीत है। सत्य का अवलम्बन मनुष्य को नरकाग्नि की तपन से सुरक्षित पार ले जाता हुआ मुक्ति की ओर ले जाता है। जो असत्य का अवलम्बन लेता है, वह नष्ट हो जाता है।

जीवन में भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का समन्वय उपनिषदों की अद्वितीय विशेषता है। यहाँ भौतिक सुख, ऐश्वर्य, समृद्धि और पारलौकिक सुख में परस्पर विरोध नहीं दिखाई पड़ता। वे परस्पर बाधक न होकर साधक हैं। उपनिषदिक ऋषियों का स्वयं का जीवन इसका आदर्श उदाहरण रहा है। विदेहराज जनक राजा थे तो साथ ही तत्त्व जिज्ञासु भी थे। महर्षि याज्ञवल्क्य ब्रह्मनिष्ठ थे तो गोकामी भी थे। किन्तु उनकी कामना धर्म द्वारा मर्यादित थी। ‘मा गृधः’ लालच मत करो, ऋषियों का स्पष्ट आदेश था। क्योंकि वे जानते थे कि कितने भी धन से मनुष्य की तृप्ति नहीं हो सकती । धन से भरी सम्पूर्ण पृथ्वी भी मनुष्य को शाश्वत ब्रह्मानंद की प्राप्ति नहीं करवा सकती। अतः मनुष्य जीवन में दोनों का समन्वय ही अपेक्षित है। एकान्तिक सुख और एकान्तिक आध्यात्मिकता में डूबे रहना, दोनों ही मनुष्य के लिए आत्मघाती हैं। त्याग पूर्वक निसंगता और समन्वित दृष्टि से जीना ही समग्र उत्कर्ष का आधार है।

उपनिषदों में भौतिक प्रगति का आदर्श स्पष्ट है, जब वह कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने का सुझाव देता है। किन्तु साथ ही कर्म का हेतु भी स्पष्ट करता है, जो आत्म केन्द्रित, स्वार्थपरक एवं भोगपरक वृत्ति नहीं बल्कि यज्ञीय भावना है, जिसका सार ‘इदम् न मम्’ के भाव में निहित है। इसके अनुरूप कर्म करने से जब वह अपने में सबको और सबमें अपने को देखने लगेगा तब जीवन में से शोक और मोह नष्ट हो जायेगा। ब्रह्मानंद का सागर हिलोरे मारने लगेगा। इसको व्यावहारिक रूप से क्रियान्वित करने के लिए ऋषि इन्द्रियों के संयम और सबमें एक ही परमात्मा के भाव को प्रौढ़ करते हुए मानव मात्र के प्रति दया-प्रेम-मैत्री और सौहार्द्र के भाव को विकसित करने का मार्ग सुझाते हैं। साथ ही दया और श्रद्धा को मानव धर्म की आधारशिला मानते हुए ऋषि दान द्वारा इसे सुदृढ़ करने पर बल देते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि नाव में जल भर जाय और घर में आवश्यकता से अधिक धन आ जाये तो दोनों हाथों से जल और धन उलीचकर फेंकना चाहिए अन्यथा नाव में पानी भर जायेगा और वह डूब जायेगी। घर में धन का अत्यधिक संग्रह भी विनाशकारी ही सिद्ध होता है। अतः दान हर दृष्टि से श्रेयस्कर होता है। जो भी कम-अधिक हो मिल बाँटकर खाना चाहिए, क्योंकि अकेला खाने वाला पाप ही को खाता है। अतः आत्मभाव के विस्तार के लिए, अपना पराये का भेद मिटाने के लिए परस्पर करुणा मैत्री की स्थापना के लिए दान का महत्त्व सर्वोपरि है।

स्वत्व के विस्तार के निमित्त ऋषि मीठी एवं प्रिय वाणी का प्रतिपादन करते हैं। कठोर, रूखे, तीखे व्यंगबाणों का प्रयोग कभी न करें, क्योंकि इनसे वैमनस्य,ईर्ष्या, द्वेष की भावना उत्पन्न होती है। ‘जिह्व मधुमत्तमा’ - जिह्वा मधुमती हो। क्योंकि मीठी वाणी से शत्रु भी मित्र और पराये भी अपने हो जाते हैं। साथ ही ऋषि मानव शरीर को बलिष्ठ एवं निरोग रखने पर बल देते हैं, क्योंकि मानव शरीर ही धर्म करने का पहला आधार है।

जीवन के लौकिक सुख एवं पारलौकिक आनन्द के आदर्श समन्वय का प्रतिपादन करते हुए ऋषि कहते हैं कि इस सतत् परिवर्तनशील जगत् में भौतिक एवं साँसारिक सुखों को भोगते हुए आनन्दित होते हुए भी मनुष्य को सदैव यह प्रयत्न करना चाहिए कि वह अमृत के दिव्य गुणों को धारण करे। इस हेतु नित्य सोने से पूर्व अपने दिनभर किये हुए कर्मों को यादकर उनको सुधारने की चेष्टा करें। परम परमेश्वर को प्रतिदिन, प्रतिक्षण याद कर कुटिल एवं पाप मार्ग से स्वयं को अलग करें और सुपथ पर चलें। जिससे कि अंधकार से प्रकाश की ओर का (तमसो मा ज्योतिर्गमय) तथा मृत्यु से अमरता की ओर का (मृत्योर्माऽमृतं गमय) जीवन आदर्श जीवन्त हो सके।


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