एक बार लक्ष्मी धरती पर प्रसन्न भाव से उतरीं तो पृथ्वी ने उनका स्वागत किया। वह बोलीं, देवी! मेरे परिश्रमी पुत्रों को वरदान मत देना, इन्हें श्रमपरायण बने रहने देना, नहीं तो वे आलसी हो जाएँगे। दर्पमिश्रित स्वर में लक्ष्मी बोल उठीं, मेरी कृपा को तो सभी लालायित रहते हैं, मैं तुम्हारे पुत्रों को सुखी बनाने आई हूँ, तुम्हारा मूर्खतापूर्ण अनुरोध मुझे स्वीकार्य नहीं।
धरती कुछ और निवेदन करती, इससे पूर्व ही लक्ष्मी आगे बढ़ गई। देखते−देखते लोगों के घर सोने−चाँदी से भर गए। लोग अपने सौभाग्य को सराहने लगे। श्रम−पुरुषार्थ की ओर अब कौन ध्यान देता? वर्षा आई, न बीज बोया गया, न अन्न उपजा। खेतों में खरपतवार जम गए। घरों में भरे अन्न−भंडार समाप्त होते ही हा−हाकार मच गया। छाती से सोने की ईंटें बाँधे क्षुधा पीड़ितों ने प्राण त्याग दिए।
धरती रो पड़ी। विधाता से उसने विनती की। विधाता ने आकस्मिक लाभ के वरदान से प्रस्तुत अभिशाप को देखा और कुछ सोचकर गिने−चुने कर्मठ पुरुषार्थी धरती पर भेजकर सारा वैभव क्षण भर में समेट लिया। इन पुरुषार्थियों ने अपने परिश्रम से शीघ्र ही नई सृष्टि रच डाली। पृथ्वीवासियों ने परिश्रम−पुरुषार्थ की महत्ता को स्वीकारा।