कुटिल−चाल, कलिकाल चल रहा, युग की गति पहिचानो। क्रूर−ध्वंस का साज सह रहा, चेत उठो दीवानों॥
इसीलिए तो महाकाल ने, चौदह वर्ष तपाया। और साधना की भट्ठी में, हमको सतत गलाया। क्या लोहा ‘सोना’ बन पाया? इतना तो अनुमानो॥
जिनने बदल लिया अपने को, वे ही टिक पाएँगे। महाकाल के ‘वीरभद्र’ भी, वे कहलाएँगे।
महाकाल के गण जैसी ही, अपना सीना तानो॥ जिनको बदल नहीं पाएँगी, समझाइश की बातें। उन्हें बदलने तुली हुई हैं, महाकाल की लातें।
कुचल जाओगे, महाकाल के ताँडव से, अनजानो॥ महाशक्ति भी द्रवित हुई है, देख ध्वंस की चालें।
महाकाल भी कुपित हुआ है, भरने लगा उछालें। युग परिवर्तन होना ही है, इसे सुनिश्चित जानो॥ अपनी सृष्टि न मिटने देने, युग स्रष्टा संकल्पित।
सृजन सैनिकों को करती है, युगप्रा आमंत्रित। करो सृजन−संकल्प और अब नए सृजन की ठानो॥
−मंगलविजय ‘विजयवर्गीय’
*समाप्त*