प्रह्लाद हिरण्यकशिपु के पुत्र थे। पुत्र को सभी वैभव असुर संस्कृति के अनुकूल ही मिले, इसकी सारी व्यवस्था कराई गई, पर प्रभु भक्ति को ही अपना लक्ष्य मान उन्होंने उस प्रतिकूल वातावरण से भी आत्मिक संपदा अर्जित करने का पुरुषार्थ किया। जब बेटा ही विषयासक्ति के विरुद्ध एवं भगवान के आदर्शों की स्तुति पिता के समक्ष करने लगा तो वह असुर उसे मारने को उद्यत हुआ। सारी माया का प्रयोग कर वह उसे पराजित न कर पाया और अवतार का संकल्प लिए स्वयं नृसिंह भगवान को असुर का वध करने आना पड़ा।
पतिव्रता के सामने ही वेश्या रहती थी। पतिव्रता उसकी चेष्टाओं को लुक−छिपकर देखा करती और समय−समय पर उसकी भरपेट निंदा करती।
वेश्या देखती कि कुरूप, गुणहीन, अस्वस्थ और निर्धन पति की भी पतिव्रता एकाग्र भाव से कैसी सेवा करती है तो उसका मन श्रद्धा से गदगद हो जाता। उसे वह साक्षात् देवी मानती और जब भी अवसर मिलता, उसकी भरपूर प्रशंसा करती।
कुछ दिन पश्चात मृत्यु का समय आया। पतिव्रता की आत्मा स्वर्ग गई। संयोगवश दूसरे ही दिन वेश्या भी मर गई और उसकी आत्मा भी वहीं जा पहुँची।
पतिव्रता को निम्न श्रेणी का स्वर्ग मिला और वेश्या को ऊँचे स्वर्ग में ले जाने की आज्ञा हुई। इस न्याय को अनुचित बताते हुए पतिव्रता ने धर्मराज से कहा, “भगवन्, वेश्यावृत्ति का पाप कर्म करते हुए भी मुझसे श्रेष्ठ सद्गति क्यों?”
अपनी बात जारी रखते हुए धर्मराज ने कहा, “वेश्या ने परिस्थितियों की विवशता में वह व्यवसाय तो अपनाया, पर अपने पाप के लिए सदा दुखी रही। तुम्हारे सत्कर्म को देखकर श्रद्धा से उसका मन भरा रहा और वैसी ही स्वयं बनने की प्रार्थना भगवान से करती रही, इसलिए उसे उच्चकोटि का स्वर्ग मिला। शरीर से मन बड़ा है।”
क्रिया से भावना श्रेष्ठ है। स्वर्ग की संहिता के अनुसार मन के पुण्य−पापों की भी गणना की जाती है और उसी आधार पर फल का निर्धारण होता है।