स्वामी दयानंद विरजानंद जी से आदेश पा तपोबल अर्जित करने धरासृं चट्टी पहुँचे व वहाँ परशुराम शिला पर बैठकर उन्होंने कड़ा तप किया। छह वर्ष बीते। उन्हें अपना संकल्प बल, ब्रह्मतेज बढ़ता प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगा। साधना के प्रति मोह ने रोका, और भी ऊँचे आयाम पार कर मुक्त हो जाओ। ऐसे में अंदर से धमकी भरा आदेश आया, मैंने इसीलिए तुझे साधना करने भेजा था था! चल, उठ, समाज में व्याप्त अनीति−अंधविश्वास मिटा। धर्म की चादर को मैला करने वाले पाखंडियों का खंडन कर। लगा, स्वयं गुरुदेव अंदर से कह रहे हों। वे उठ खड़े हुए और उन्होंने धर्मांधों के बीच आकर अपना अड्डा जमाया, ज्ञान−विस्तार कर जनमानस में व्याप्त भ्रांतियों का खंडन किया और यही उनकी जीवनसाधना बन गई।
एक साधु तथा डाकू साथ−साथ यमराज की सभा में जा पहुँचे। यमराज ने उनके कृत्यों का अवलोकन किया व कहा, यदि तुम दोनों को अपने लिए कुछ कहना हो तो कह सकते हो। तुम्हारी करनी तुम्हारे सामने हैं। एक ने भक्ति की है तो दूसरे ने पाप।
डाकू विनम्र स्वर में बोला, महाराज, मैंने जीवन में बहुत पाप किए हैं, जो भी विधान आपके यहाँ मेरे लिए हो, वह करें, मैं प्रस्तुत हूँ। फिर साधु बोले, आप तो जानते ही हैं, मैंने जीवन भर भक्ति की, कृपया मेरे सुख−साधनों का प्रबंध शीघ्र करवाएँ।
यमराज ने दोनों की इच्छा सुनकर डाकू ने सिर झुकाकर आज्ञा शिरोधार्य की, परंतु साधु ने आपत्ति की, महाराज, इस दुष्ट के स्पर्श से मैं भ्रष्ट हो जाऊँगा। मेरी भक्ति तथा तपस्या खंडित हो जाएगी।
अब यमराज बोल उठे, कुकर्मी डाकू तो विनम्रता के साथ आपकी सेवा करने को तत्पर हो गया और आप साधु महाराज मात्र अपने इस कथन से अपनी दुर्गति स्वयं कर बैठे हैं। आपकी भक्ति अधूरी रही है, उसका परिचायक है आपका चिंतन। साधु बहुत लज्जित हुए।