चित्रकेतु एक राजा था, जिसे महर्षि अंगिरा की कृपा से एक संतान प्राप्त हुई थी। बच्चा अभी किशोर ही था कि उसकी मृत्यु हो गई। राजा पुत्र वियोग से बड़ा व्याकुल हुआ। अंत में ऋषिदेव आए और उन्होंने दिवंगत आत्मा को बुलाकर शोकातुर राजा से वार्त्तालाप कराया। पिता ने पुत्र से लौटने के लिए कहा तो उसने जवाब दिया, हे जीव, मैं न तेरा पुत्र हूँ और न तू मेरा पिता। हम सब जीव कर्मानुसार भ्रमण कर रहे हैं, इसलिए तू अपनी आत्मा को पहचान। हे राजन्, उसी से तू साँसारिक संतापों से छुटकारा पा सकता है। इसके लिए तू तप−पहनान। हे राजन्, उसी से तू साँसारिक संतापों से छुटकारा पा सकता है। इसके लिए तू तप−साधना कर। राजा आश्वस्त हुआ और शेष जीवन उसने आत्मकल्याण की साधना में लगाकर आत्मज्ञान प्राप्त किया व जीवनमुक्त हो गया।
वास्तविक पुरुषार्थ आत्मज्ञान की प्राप्ति है। योग एवं तप इसी निमित्त किए जाते हैं। स्वयं का परिष्कार एवं अभ्यस्त कुसंस्कारों से जूझना ही तप है।