मंत्र शक्ति प्राच्य विधाओं में अपना एक महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट स्थान रखती है। यह ज्ञान-विज्ञान की एक रहस्यमय किन्तु तथ्यपूर्ण विद्या है, जिसके अद्भुत एवं चमत्कारी प्रभावों से राष्ट्रीय जीवन का अतीत ओतप्रोत रहा है। आज भले ही कालक्रम के प्रवाह में यह विद्या लुप्त प्राय हो गई है, किन्तु इसकी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता पहले से कही अधिक बनी हुई है। क्योंकि मंत्र शक्ति की निगूढ़ विद्या जीवन के सर्वांगीण अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम है। यह एक ओर जहाँ भौतिक प्रयोजनों को सफलता पूर्वक सिद्ध करने में समर्थ है वहीं इसकी आध्यात्मिक प्रभावोत्पादकता भी असंदिग्ध रूप से मानव को दैवी वरदान देने में अचूक है। बस आवश्यकता इसके सही स्वरूप को समझने व इसकी क्रियाविधि को निष्ठापूर्वक जीवन में अपनाने की है।
मंत्र स्थूल शब्दों एवं अक्षरों द्वारा गुँथित सूक्ष्म शक्तिधारा का एक ऐसा शक्ति पुञ्ज है, जिसकी शक्ति सामान्यतः प्रसुप्त रहती है। साधना के द्वारा इसके सतत मनन के द्वारा यह शक्ति जागृत होने लगती है और साधक को अपनी प्रकृति के अनुरूप अभीष्ट कर देती है। अपने सूक्ष्म भौतिक स्वरूप के अनुरूप यह अभीष्ट लौकिक मनोकामना को पूर्ण करते हैं और आध्यात्मिक प्रकृति के अनुरूप यह साधक के अन्तःकरण में वाँछित हेर-फेर कर मनोभूमि को इतना परिष्कृत करती है कि अभीष्ट ईश्वरीय चेतनधारा अवतरित हो सके और साधक के माध्यम से प्रवाहित हो सके। इस तरह मंत्र विश्व-ब्रह्मांडव्यापी सूक्ष्म एवं अलौकिक शक्तिधाराओं को स्फूरित कर अपने अनुकूल बनाने वाली विद्या है। यह एक ऐसी विज्ञान सम्मत प्रक्रिया है जिससे शक्ति का उद्भव होता है। यह ज्ञान एवं प्रकाश का एक ऐसा पुञ्ज है जो जागृत होने पर अज्ञान, तमस एवं अंधकार का हरण करता है। इससे जहाँ प्राणबल, मनोबल, बौद्धिक प्रखरता एवं चारित्रिक दृढ़ता के साथ आत्मिक विकास का पथ प्रशस्त होता है, वहीं इससे धन, आरोग्य, आयु, असुरक्षा। विपत्ति, निवारण, आसुरी व्यक्तियों के नाश जैसे भौतिक लाभ एवं लौकिक प्रयोजन भी सिद्ध हो सकते हैं। इस तरह मंत्र में जीवन के सर्वांगीण विकास एवं अभ्युदय का मर्म निहित है।
वस्तुतः आत्मिक दृष्टि से आध्यात्मिक लाभ के लिए मंत्र जप से बढ़ कर कोई साधन नहीं। इसके सबसे सरल, सहज एवं प्रभावकारी माना गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है-‘यज्ञानाँ जप यज्ञोस्मि’ अर्थात् यज्ञों में जप यज्ञ मैं ही हूँ। इस तरह जप साधना को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। योग दर्शन महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है कि ‘जल, औषधि, मंत्र जप और समाधि से सिद्धि प्राप्त होती है’ अर्थात् मंत्र जप को सिद्धि के साधन के रूप में स्वीकारा गया है। इसी तरह मंत्र शास्त्रियों ने बारम्बार कहा है कि ‘जपात् सिद्धि, जपात् सिद्धि, जपात् सिद्धि न संशया।’ अर्थात् मंत्र जप से प्रचण्ड शक्ति का उद्भव होता और सिद्धि प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं होना चाहिए तथा अनेकों भौतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियां प्राप्त होती हैं। ‘आनि पुराण’ में मंत्र जप की आत्यंतिक व्याख्या सुन्दर रीति से करते हुए कहा गया है-
न कारो जन्म विच्छेदः, पकारः पापनाशकः। तस्याज्जय इति प्रोक्तो, जन्म पाप-विनाशकः॥
अर्थात् ‘ज’ का अर्थ जन्म का विच्छेद और ‘प’ का अर्थ पापों का नाश है। जिसके द्वारा जन्म-मरण और पापों का नाश होता है। वही जप कहलाता है।
मंत्र जप की इस अनिर्वचनीय महत्ता के बावजूद हम इसके लाभ से वंचित रह जाते हैं, तो निश्चित ही हम कोई भूल कर रहे हैं। हमारी साधन क्रियायें कहीं कोई त्रुटि कर रही हैं। मंत्र साधना को फलदायी बनाने के लिए कुछ आधारभूत तथ्यों का ध्यान रखना अनिवार्य है।
मंत्र साधना के विषय में प्रथम तथ्य है आचरण की शुद्धता। इसके अपने वैज्ञानिक कारण हैं। मंत्र शब्द शक्ति का सूक्ष्म विज्ञान है। किसी भी मंत्र की रचना शब्द विज्ञान के गम्भीर तथ्यों पर आधारित है। इनका सही उच्चारण हमारे शरीर में अवस्थित सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों, चक्रों, उपत्यिकाओं को उनकी सुषुप्तावस्था से जागृत करता है और अभीष्ट शक्ति के प्रवाह को संचालित करता है। साथ ही मंत्र जप बिखरी हुई मानसिक शक्तियों को केन्द्रित कर अभीष्ट लक्ष्य की ओर नियोजित करता है और आशातीत सफलता एवं सिद्धि की ओर अग्रसर होता है।
मंत्र साधना के संदर्भ में दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य है-मंत्र की शक्ति, प्रभाव एवं प्रमाणिकता पर अटूट विश्वास। विश्वास को साधना का प्राण कहा गया है। इसके अभाव में साधना आधे-अधूरे मन से ही होती है और ऐसे में अभीष्ट सफलता संदिग्ध ही रह जाती है। वस्तुतः विश्वास स्वयं में ही एक बहुत बड़ी शक्ति है, विश्वास से उद्भूत ऊर्जा तमाम अवरोधों के बीच भी साधक को प्रगति पथ पर बढ़ाती रहती है। मानसकार ने तो ‘श्रद्धा विश्वास’ की महिमा ‘भवानी-शंकर’ से उपमा करते हुए प्रतिपादित की है। वस्तुतः बिना श्रद्धा भाव के मंत्र साधना में वह निष्ठ ही नहीं बन पड़ती जो साधना से सिद्धि तक की दूरी को अध्यवसाय पूर्वक पूर्ण कर सके।
तीसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य है-व्यवहार शुद्धि। जो आहार-विहार के संयम एवं सात्त्विकता द्वारा निर्धारित होती है। साधक का आहार-विहार सीमित ही होना चाहिए। आहार के संदर्भ में भूख से कुछ कम और नियत समय पर लिया गया सात्त्विक आहार एक मोटा आदर्श है। आहार संदर्भ में बरता गया यह संयम मंत्र साधना में सहायक सिद्ध होगा। इसके अभाव में अभक्ष्य आहार, बहुभक्षण भूख से अधिक भोजन आदि के रूप में असंयम मन को चंचल एवं भारी बनाएगा, जो कि मंत्र साधना में एक बड़ा अवरोध है। विहार के संदर्भ में वाणी का संयम प्रमुख है। इसका मोटा सूत्र है-वाणी मित, मधुर व कल्याणकारी ही रहे। परचर्चा और परनिंदा से सर्वथा दूर ही रहें। आचरण के संदर्भ में विपरीत लिंग के प्रति पवित्र एवं शुद्ध भावों को रखना, नितान्त अनिवार्य है। इस संदर्भ में कामोत्तेजक दृश्यों, चलचित्रों, साहित्य से अभीष्ट दूरी ही उचित है। मंत्र साधक को यौन-शुचिता के संदर्भ में विशेष ध्यान रखना चाहिए। आहार-विहार की उपरोक्त शुद्धि मंत्र साधना का एक अहम् पक्ष है, जिसकी प्रायः उपेक्षा की जाती है। अतः सफलता से साधक को वंचित ही रहना पड़ता है। दुराचारी, अनाचारी, व्याभिचारी और कुकर्मी की मंत्र साधना से उत्पन्न शक्ति का वही हश्र होता है जो जलते तवे पर पड़ने वाली पानी की बूँदों का। साधना से उत्पन्न हो रही शक्ति को बूँद-बूँद करके अपने शक्ति घर में इकट्ठा करना पड़ता है। मंत्र सिद्धि में सहायक संयम साधना का यही सार है।
इसके अलावा मंत्र साधना की सिद्धि के लिए शरीर की शुद्धि अभीष्ट है। यह प्रयोजन स्नान द्वारा पूरा होता है। अधिक सर्दी, रोग या किसी विवशता वश हाथ मुँह धोकर या गीले कपड़े से बदन पोंछ कर भी काम चलाया जा सकता है। शरीर पर कम से कम वस्त्र रहने चाहिए। ठण्ड में कम्बल का प्रयोग किया जा सकता है। साधना में स्थान का भी महत्त्व है। यह शान्त, एकाँत व सात्त्विक होना भी श्रेयस्कर है। नदीतट, मन्दिर, बाग एवं घर का एकाँत कोना आदि इसके लिए उपयुक्त स्थल है, यथासंभव दिनभर पहने हुए कपड़ों को पहन कर साधना नहीं करनी चाहिए। आसन ऐसा हो जिस पर लम्बे समय तक बिना कष्ट के बैठ सकें। पाल्थी मारकर सीधे बैठना सबसे सरल है। मेरुदण्ड सदा सीधा रहना चाहिए, जिससे कि सुषुम्ना का प्राण-प्रवाह बिना अवरोध के चलता रहे।
मंत्र साधना के लिए प्रातः का समय श्रेष्ठ माना गया है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर साधना करनी चाहिए। साधना नियत स्थान व समय पर नियमित रूप से होनी चाहिए। दिशा को विचार भी अभीष्ट है। सामान्यतः प्रातः पूर्व की ओर तथा सायंकाल पश्चिम ओर मुँह करके साधना में बैठना चाहिए। सात्त्विकता की दृष्टि से माला तुलसी की ही श्रेष्ठ है। मंत्र जप इस तरह हो कि कण्ठ से ध्वनि तो होती रहे और होंठ भी हिलता रहे किन्तु पास बैठा दूसरा व्यक्ति सुन न सके। एक माला पूरी होने पर सुमेरु का उल्लंघन नहीं किया जाता, बल्कि उसके मस्तिष्क तथा नेत्रों से स्पर्श करके वापस पीछे की ओर उलटकर जप शुरू किया जाता है।
जप के संदर्भ यह भी अभीष्ट है कि इस दौरान हो रही अनुभूतियों एवं अनुभवों को अपने तक ही सीमित रखा जाय या अपने मार्गदर्शक या किसी प्रामाणिक साधक को ही प्रकट किया जाय। इनको सार्वजनिक करना न तो आवश्यक है और न ही अभीष्ट। पूजा में बचे पदार्थों का निष्पादन किसी तीर्थ, नदी, बाग या पवित्र स्थल पर ही करना चाहिए। चावल, नैवेद्यों का वितरण क्रमशः चिड़ियों व बच्चों को प्रसाद रूप में किया जा सकता है। बचे जल से सूर्य को अर्घ्यदान देना चाहिए।
साधना नियमित रूप से निश्चित मात्रा में होनी चाहिए। यदि किसी कारणवश विघ्न-बाधा आ जाय तो अगले दिन एक माला प्रायश्चित स्वरूप जपनी चाहिए। जन्म या मृत्यु के सूतक होने पर विधि-विधान पूर्वक साधना करना मना है। ऐसे में मानसिक जप द्वारा काम चलाया जाना चाहिए। यात्रा या रोग की स्थिति में भी जब विधि विधान से जप करना सम्भव न हो तो चलते-फिरते या बिस्तर पर मानसिक जप किया जा सकता है।
साधना में तरह-तरह के विघ्न आते हैं। उनसे धैर्यपूर्वक निपटना चाहिए। समय पर अभीष्ट सफलता न मिलने पर निराशा एवं संशयग्रसित नहीं होना चाहिए। इसकी जगह गहराई से अपनी कमियों का निरीक्षण करना चाहिए और दुगुने उत्साह के साथ साधना में जुट जाना चाहिए।
चंचल मन को अन्तर्मुख बनाए रखने के लिए सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय बहुत सहायक है। इनसे जहाँ आत्म निरीक्षण एवं समीक्षा कर प्रयोजन सिद्ध होता है वहीं मन को उच्चतर प्रेरणा एवं मार्गदर्शन भी मिलता रहता है।
उपरोक्त विधि विधान से की गई मंत्र साधना निश्चित रूप से साधक को मंत्र में निहित शक्ति एवं सामर्थ्य का परिचय करवाने में सफल सिद्ध होती है।