अपनी प्रकृति में पलास जगाएँ, होली का उल्लास जगाएँ

March 2003

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घर-आँगन, चौबारे, गलियारे में आज रंगों की धूम है। होली के उल्लास में उमड़ते इन रंगों में कई चिंतन के रंग भी शामिल हैं। जिनसे तन नहीं मन भीग रहा है। हमारा और शायद आपका भी। परिस्थिति एवं परिवेश को तनिक गहराई से देखेंगे तो इन रंगों का अनुमान होगा। अपने आप में उतरेंगे तो चिंतन के इन रंगों की चटख और शोख छटा नजर आयेगी। इनमें उल्लास के साथ विषाद का भी पुट है। खुशी के साथ गम भी है यहाँ। हँसी के साथ रुदन भी यहाँ बिखरे हैं। चिंतन के इन रंगों में सारी इन्सानी जिन्दगी का वजूद आ सिमटा है। कई -क्या? क्यों? कैसे? और किसलिए? की पिचकारियाँ हमारे ऊपर आपके ऊपर इन रंगों को उड़ेल रही है। जो भी विचारशील हैं उनमें से कोई चिंतन के रंगों की इस फुहार से बच नहीं सकता।

होली की सुप्रसिद्ध कहावत है-‘बुरा न मानो होली है।’ तब फिर बुरा मानने की क्या जरूरत है। आप भी हमारे साथ भीगिये इन चिंतन के रंगों में और मित्रों-परिचितों को भी बचने न दीजिए, उन्हें भी भिगोइए इन गाढ़े रंगों में। सदस्य परिवार के हों या पड़ोस के कोई भी छूटने न पाये। हम आप और सभी विचारशील जन मजबूती से थाम लें अपनी पिचकारियाँ और उड़ेलें चिंतन के रंग एक-दूसरे पर । हमारी, हम सबकी विचारशीलता में विमर्श पैदा हो, मतों में दुराग्रह की बजाय पारस्परिक संवाद की स्थिति बने और अन्ततः समाधान जन्म ले। तभी तो उल्लास में सार्थकता आएगी। सहस्राब्दियाँ, शताब्दियां बीत गयी हमें होली मनाते। कई रंग देखें हैं हम सबने। कई गीत गाये हैं हमने। कई धुनें छेड़ी है। कई रंगों और कई तालों ने हमारी जिन्दगी को लय दी है। वैदिक ऋचाओं की गूँज और सामगान की सुमधुर ध्वनि के साथ होली मनाना शुरू किया था हमने। अपने आचरण और कर्त्तव्यनिष्ठ, प्रचण्ड तप और अविराम साधना से हमीं ने जिन्दगी को ऐसा गढ़ा था कि देवता भी हमारे घर-आँगन में आकर हम सबसे होली खेलते थे। देवत्व हमारी निजी जिन्दगी की परिभाषा थी। स्वर्ग हमारी सामाजिक जिन्दगी का सच था। ऐसा नहीं था कि इस क्रम में व्यतिक्रम के अवसर नहीं आए। असुरता ने अपनी हुँकार भरी, हिरण्यकश्यपु और होलिका के सहोदर षड़यंत्रों ने हमारे देवत्व और स्वर्ग को मटियामेट करने का कुचक्र रचा। पर हमारे प्रह्लाद-पराक्रम ने आसुरी प्रवृत्ति के इन भाई-बहिन को पनपने नहीं दिया। अपनी ही नफरत की आग में होलिका जल मरी। भगवान नृसिंह ने असुरता का वक्ष विदीर्ण कर दिया और होली के गीत-प्रह्लाद की भक्ति की थिरकन के साथ गूँज उठे।

प्रेम का स्वाँग भरे होलिका आज भी नफरत फैला रही है। घर-परिवार की टूटन, जाति-वंश का भेद, सम्प्रदायों और धर्मों की दीवारें, भाषा और क्षेत्र के विभाजन इन नफरत को बढ़ावा दे रहे हैं। चतुर होलिका हमारे-हम सबके प्रह्लाद-पराक्रम के अभाव में सफल है। सवाल हमसे है और आप से भी कि आखिर कहाँ खो गयी वह साधना, प्रचण्ड तप करने का वह पुरुषार्थ, जिस पर रीझकर भगवान नृसिंह हमारे-हम सबके अन्तःकरण में अवतरित हो सके। ध्यान रहे- भगवान केवल भक्तों और तपस्वियों को वरदान देते हैं। भावसंवेदना की सघनता और पुरुषार्थ की प्रचण्डता ही प्रभु के वरदान की अधिकारी बनती है। निष्ठुर और कायर तो सदा ही दुःख भोगते आये हैं।

इस स्थिति से उबरना है तो आसुरी षड़यंत्रों का भेद समझना होगा। नफरत की विषाक्त बेल को जड़ से उखाड़कर संवेदना और पराक्रम के सघन उद्यान रोपने होंगे। भगवान तो सदा से हमारे बीच आने के लिए तैयार हैं, पर हमीं कहीं अपनी सत्पात्रता नहीं सिद्ध कर पा रहे हैं। अन्यथा नन्दनन्दन तो सदा से यही चाहते हैं कि हम सबकी होली में वही उल्लास बिखरे जो उन्होंने कभी बरसाने में बिखेरा था। ‘सम्भवामि युगे-युगे’ का उनका वचन निरर्थक नहीं है। प्रभु भक्तों के आह्वान पर अवतरण के लिए प्रतिज्ञा बद्ध हैं। पर हममें से हर एक से वह एक ही बात कह रहे हैं- ‘क्लैव्य माँ स्म गमः’ छोड़े इस क्लीवता और कायरता को। ‘मामनुस्मर युध्यस्व च’ मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो।

सघन संवेदना और महा पराक्रम का उच्च आदर्श प्रस्तुत करके गीता गायक ने होली को एक नयी परिभाषा दी थी। बरसाने की होली में उन्होंने जीवन के कई रंग बिखेरे थे। शुद्ध सात्त्विक और निर्मल प्रेम से भरी अपनी चिंतन फुहारों से उन्होंने अनेकों अन्तःकरण रंगे थे। भक्ति व प्रेम के अगणित रंगों के साथ उन्होंने पराक्रम का गुलाल भी उड़ाया था। कंस हो या कालयवन, जरासंध हो अथवा दुर्योधन किसी के आसुरी षड़यंत्रों को उन्होंने पनपने नहीं दिया। मानवीय हितों के खिलाफ कोई भी दुरभिसंधि उन्होंने चलने नहीं दी। अपने युग के अनुरूप प्रभु ने होली को नये अर्थ दिये।

समय बदला, युग बदला परन्तु चुनौतियाँ तो अभी भी है, पर हम हैं कि इनसे मुँह मोड़े एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हैं। बहाना यह है कि अबीर, गुलाल और रंग महंगे हो गये हैं। ऐसे में एक कीचड़ ही तो बचा है। उसी को जब जी चाहा किसी पर उछाल दिया। ऐसा करते समय भूल जाते हैं कि इसके छींटे अपने आप पर पड़े बिना न रहेंगे। अबीर, गुलाल और रंग महंगे हो गये तो अपनी प्रकृति में पलाश उगाने का पराक्रम क्यों नहीं करते? आखिर क्यों सोई हुई है हमारी संवेदना। क्यों नहीं सुनते महाकाल की वाणी जो अभी भी हमें चेताने के लिए गगन में गूँज रही है।

क्या हम भूल गये अभी कुछ ही दिन हुए महेश्वर महाकाल हमारे, आपके, हम सबके द्वार पर भिक्षुक बनकर आये थे और उन्होंने इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य की अलख जगाते हुए हमसे हमारे मन की भिक्षा माँगी थी। ‘मनोरथवती नाम भिक्षापात्रं समर्पिता’ (काशीखण्ड 30/102) ताकि उनके चिंतन के कुछ रंग हमारे मन पर भी पड़ सके। और हममें वह साहस पैदा हो सके, जिसके बल पर हम नयी सदी की चुनौतियों का सामना कर सकें। ध्वस्त कर सकें होलिका और हिरण्यकश्यपु के षड़यंत्रों का दुर्गम व्यूह। जिसमें आज सारी मानवता छटपटा रही है। काश्मीर से चेचन्या तक जो खून के छींटे उड़ रहे हैं उन्हें हम हास-परिहास में डूबे रहकर नहीं रोक सकते। इसके लिए तो दैवी तत्त्वों को संगठित करने वाला पराक्रम ही करना पड़ेगा।

शुरुआत आज से और अभी से करें। संकल्पित हों कि होलिका का यह मंगल पर्व हमारे जीवन में एक नयी क्रान्ति लाए। घर हो या पड़ोस होलिका के नफरत भरे ढोंग को पनपने न दें। सघन संवेदना ही नफरत फैलाने वाली होलिका का समर्थ उत्तर है। उल्लास के रंगों को तो भरपूर बिखेरे पर व्यंग्य और बुराई का कीचड़ न उछलने दें। जीवन में जूझने का हौसला पैदा करें। निराशा-हताशा और थकान क्यों? जब भगवान् नृसिंह स्वयं हम पर कृपा करने के लिए तैयार हैं तो आखिर डर और भय किसलिए। सघन संवेदना और प्रचण्ड पराक्रम के रंगों से ऐसी होली खेलें कि नफरत की होलिका अपने ही षड़यंत्र में जल कर राख हो जाए और भय और आतंक को फैलाने वाला हिरण्यकश्यपु की छाती खुद भय से फट जाय। इस होली पर अपने चिंतन और आचरण से सिद्ध करें कि हम भगवान् नृसिंह के भक्त है प्रह्लाद के अनुगामी हैं। और हममें बरसाने में होली के रंगों की छटा बिखेरने वाले गीता गायक कृष्ण के उपदेशों पर चलने का साहस है।


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