सतगुर हम सूँ रीझि कर एक कह्या प्रसंग। बरस्या बादल प्रेम का भीजि गया सब अंग॥
कबीरदास जी की इस साखी का अर्थ है, “सद्गुरु मुझ पर प्रसन्न हुए और उन्होंने रहस्य से भरा भगवद् भजन या परमात्मा के ज्ञान की बात मुझे बताई। इसे भक्ति तथा योग प्रसंग कहना चाहिए। इस प्रस्ताव से प्रेम के बादल बरसने लगे और मेरे सब अंग भीग गए।” (अंग भीगना अर्थात् अंतःकरण प्रेम से सराबोर हो जाना।)
सद्गुरु कबीर अपनी साखियों से गुरु−शिष्य के परस्पर अंतर्मिलन पर जो भी कहते आए हैं, वह इतिहास बन गया है। उन्हीं का प्रसंग इसी अंक में हमारी गुरुसत्ता के जीवन में जुड़ा आपने अभी पढ़ा है। बहुत बड़ा साम्य है दोनों के जीवन में, होगा भी क्यों नहीं, एक ही सत्ता दो अलग−अलग समयों में दो भिन्न रूपों में अवतरित हुई। कबीर सहज ही अपना कर्मयोग संपादित करते चलते थे और साथ−साथ जो कह जाते थे, वह एक संत, सुधारक और शहीद के नाते उनकी कही साखियाँ बन गई। परमपूज्य गुरुदेव जीवन भर आचरण से सीख देते रहे, एक कर्मठ लोकसेवी का जीवन जी गए। पत्रों से, प्रत्यक्ष मिलन से, अखण्ड ज्योति पत्रिका द्वारा एवं समय−समय पर अपने विराट आयोजनों के माध्यम से उनने कितने व्यक्तियों को प्रभावित किया होगा, उनके अंतःकरण को सराबोर किया होगा, गणना भी नहीं की जा सकती।
समय−समय पर इस स्तंभ में गुरुसत्ता के हाथ में लिखे पत्र हम उपर्युक्त तथ्य की साक्षी रूप में देते रहते हैं। इसके अलावा ऐसे व्यक्तियों के संस्मरण भी, ताकि हमारी श्रद्धा गुरुतत्त्व के प्रति अक्षुण्ण बने− और भी अधिक बढ़े। जिस स्तर पर एक लंबी अवधि 1940 से 1990 के बीच में उनने कार्य किया, वह भागीरथी पुरुषार्थ से भरा तो है ही, गुरुवर, के वैविध्यपूर्ण जीवन, लोक−व्यवहार एवं शिक्षण की एक अद्भुत तकनीक का परिचायक है। प्रेम बाँटना, व्यवस्था चलाना, सत्परामर्श से जीवन बदल देना, ये सभी अलग−अलग कार्य हैं, पर पत्रों की भाषा में यही सब कुछ गुँथा दिखाई देता है। इस अंक के लिए कुछ पत्र चुने हैं, जो प्रस्तुत हैं।
पहला पत्र 1 जुलाई, 1941 का है, जो अजमेर के श्री मोहनराज जी को लिखा गया है। वे लिखते हैं−
चि0 मोहनराज, स्नेह
तुम्हारा पत्र मिला। संभवतः अब आयु की दृष्टि से तुम बड़े हो गए होगे, पर जब मथुरा आए थे, तब छोटे थे। हमारे मस्तिष्क में तुम्हारा वही चित्र सदा रहता है। नंद के लिए कृष्ण सदा बालक ही थे। हमें अपने घर में बालकों की ही तरह सदा लगते रहे हो। चिट्ठी−पत्री आने−जाने में कभी देर−सबेर हो जाए तो ऐसा नहीं समझना चाहिए कि पं0 जी का स्नेह या स्मरण कुछ कम हो गया है। काम का झंझट बहुत रहता है, इसलिए प्रायः आगत पत्रों का ही उत्तर जा पाता है। अपनी ओर से तो पत्रा कभी ही शायद किसी को लिख पाते हैं। तुम अपनी ओर से पहल करके पत्रव्यवहार का क्रम चला दिया करो।
यहाँ का कार्य साधारणतः अच्छा चल रहा है। प्रकाशन भी काफी पहुँच चुका। पत्रिका जी करीब दस हजार छपती है। कोई आर्थिक कष्ट नहीं हैं।
पत्र की भाषा स्नेह से सनी है, एक गुरु का शिष्य के प्रति, एक पिता का पुत्र के प्रति, एक बड़े भाई का छोटे भाई के प्रति। नंद−कृष्ण, घर के बालक की उक्ति देकर गुरुदेव अपना स्नेह ही जता रहे हैं। पत्राचार में दो दिन का भी विक्षेप होता था तो मोहन भंडारी जी व्यथित हो जाते थे। अतः वे अपनी मन की व्यथा लिख देते थे। एक पत्र भी अनुत्तरित नहीं गया। एक घंटे में साठ या सत्तर से अधिक पत्र लिखना एक असंभव−सा कार्य लगता है, पर वह हुआ है एवं वही इस मिशन का मूल आधार बना।
अगला पत्र बिजनौर की काँति त्यागी को लिखा गया है। यह 29-4-54 को पोस्ट किया गया। इसमें वे लिखते हैं−
प्रिय पुत्री काँती, आशीर्वाद, पत्र मिला। यदि तुम श्रद्धापूर्वक गायत्री माता का आँचल पकड़े रहोगी तो उसका परिणाम बहुत ही कल्याणकारक होगा। इतना निश्चित है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती।
तुम्हारे पूछे हुए सभी प्रश्नों का उत्तर गायत्री महाविज्ञान के प्रथम खंड में मौजूद हैं। एक बार उसे ध्यानपूर्वक पढ़ लो तो सभी बातें ठीक प्रकार समझ में आ जाएँगी।
तुम हर महीने अखण्ड ज्योति पत्रिका अवश्य पढ़ती रहा करो। इससे तुम्हें अनेक महत्त्वपूर्ण बातें विदित होती रहेंगी।
गायत्री के प्रति परिपूर्ण श्रद्धा विकसित करने की बात पितृवत् लेखनी से पूज्यवर कर हरे हैं, साथ ही गायत्री महाविज्ञान से सभी समस्याओं का समाधान एवं ‘अखण्ड ज्योति’ के स्वाध्याय को एक नियमित रुटीन बनाने की बात भी कह रहे हैं। उनका स्पष्ट मत, शुरू के भी कई पत्रों का जब हम अनुशीलन करते हैं, तो यही रहा है कि अपनी सारी समस्याओं का समाधान ‘अखण्ड ज्योति’ में ढूँढ़ने का प्रयास करें। यही नहीं, वास्तविक ज्ञान, आत्मज्ञान भी उसी से मिलता है, यह वे लिखते रहे हैं। वस्तुतः पत्र−लेखन व पाती की ही तरह से ‘अखण्ड ज्योति’ का लेखन−संपादन उनकी दैनिक साधना का एक अंग था, चाहे वे मथुरा हों या बाहर। पहले के पत्र में हम पढ़ चुके हैं कि दस हजार पत्रिकाएँ उस समय छपती थीं। अब छपती हैं साढ़े छह लाख, लगभग पैंसठ गुना अधिक। इतनी ही विभिन्न भाषाओं में भी छपती हैं। यही वह धरोहर है, जिसने मिशन को इतनी ऊँचाइयाँ दी हैं।
ऐसा ही एक पत्र श्री रामजी लाल खंडेलवाल (कोटा) के नाम है, जिसमें 20-7-62 को वे लिखते हैं−
आप अपने परिचित, संबंधी एवं सत्पात्र व्यक्तियों में से नौ ऐसे चुन लें, जिनके लिए एक वर्ष तक पत्रिका अपनी ओर से उपहार में भेजी जाएँ। लिस्ट प्राप्त होते ही चालू महीने से उनके नाम पत्रिकाएँ जारी कर देंगे।
संभवतः यही कुँजी थी पत्रिका के बहुगुणित होने की। पत्रिका नहीं, वह प्राणचेतना का प्रवाह कहते रहे हैं, जो हिमालय से आता है। श्रेष्ठ विचारों के प्रति आज के युग में यह चसका पैदा करना एक बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। श्रेष्ठ साहित्य तो हिंदी में अब दिखाई ही नहीं देता। मात्र हलका मनोरंजन शेष रह गया है। सारी किताबें अँगरेजी में ही उपलब्ध हैं। ‘अखण्ड ज्योति’ व उसकी सहयोगी पत्रिकाओं ने हिंदी जगत की कितनी बड़ी सेवा की है, इसका जब भी मूल्याँकन होगा, तब लोग जानेंगे।
अब अंत में एक पत्र पूज्यवर द्वारा परमवंदनीया माताजी को अपने प्रवासक्रम से लिखा गया प्रस्तुत है। 70 से 72 के प्रारंभिक माहों में शक्तिपीठों के उद्घाटन, प्राणप्रतिष्ठा के दौरे पर पूज्यवर निकले थे। लंबे प्रवास होते थे। हर दिन वे जहाँ भी होते थे, वहाँ से शाँतिकुँज की व्यवस्था, कार्यकर्त्ताओं के लिए निर्देश−संपादन आदि के मार्गदर्शनपरक पत्र लिखा करते थे। कभी−कभी एक दिन में तीन−चार पत्र हुआ करते थे। प्रत्येक पर क्रमाँक डाला होता था। ऐसे कई पत्र हमने विगत 2002 के अक्टूबर/नवंबर माह की पत्रिकाओं में इसी स्तंभ में दिए हैं। यहाँ मेहसाणा से लिखा 16-11-71 का क्रमाँक−13 वाले पत्र का एक अंश प्रस्तुत हैं−
सत्र, सुरक्षा, पत्र−व्यवहार, मिलन, संपर्क, चौका, निर्माण, ब्रह्मवर्चस, जड़ी−बूटी आदि सभी काम ऐसे हैं, जो पूरा−पूरा मनोयोग तथा परिश्रम चाहते हैं। छोटे आकार के होने पर भी उनका स्तर उठाना चाहिए। सभी कार्यकर्त्ताओं में जिम्मेदारी, सहयोग तथा श्रमनिष्ठा की भावना भरनी चाहिए। उसी से उनका निज का तथा मिशन का स्तर उठेगा। नित्य प्रातः सभी को बुलाकर सुझाव, परामर्श, पर्यवेक्षण का क्रम चलाना चाहिए।
यहीं कुँजी है संगठन संचालन की, किसी संस्था को खड़ा करने की एवं विधि−व्यवस्था से उसे आगे बढ़ाते रहने की। परमपूज्य गुरुदेव के मार्गदर्शन को पढ़ते हैं तो उसमें एक श्रेष्ठ साधक बनने की सीख मिलती है, स्वाध्यायशीलता का मार्गदर्शन मिलता है एवं संगठित होकर ‘सलाह लें−सम्मान दें’ वाली नीति का परामर्श प्राप्त होता है। यही कारण है कि समूह−साधना इस मिशन की नस−नस में संव्याप्त है एवं यह परिवार निरंतर बढ़ता, प्रगति ही करता चला जा रहा है। विनोबा कहते थे, कार्यकर्त्ता को ‘यश’ का दान कर देना चाहिए, निर्लिप्त भाव से बिना श्रेय लिए जीना चाहिए। आज के लिए भी यही मार्गदर्शन हम सबके लिए है।