जिन प्रेम कियो तिनहीं प्रभू पायो

March 2003

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वह विद्वान थे, सर्वमान्य, लोक प्रिय विद्वान। अनेकों उपाधियाँ उनके नाम के साथ टँकी थी। विश्व के अनेक देशों की दर्जनों भाषाओं में उन्होंने हजारों-हजार ग्रंथों का अध्ययन किया था। अनगिनत विषयों का पारदर्शी ज्ञान था उन्हें। पर एक गहरी कसक भी थी। इस ज्ञान से उन्हें सम्मान तो बहुत मिला, लेकिन संतुष्टि न मिल सकी। अन्तःकरण में हमेशा अतृप्ति के अंगारे दहकते रहते थे। महामहोपाध्याय, विद्यावाचस्पति, विद्यावारीधि एवं महापण्डित के अलंकरण किसी भी तरह उनकी जलन और चुभन को शान्त न कर सके। जीवन प्रश्न के समाधान की तल्लीनता में उनके मन में अनेकों तरंगें उठती-गिरती रहती थीं। ऐसी ही अनगिन तरंगों में एक वेग पूर्ण तरंग यह भी उठी कि अन्तःकरण में परम शान्ति केवल परमात्मा के संस्पर्श से पनप सकती है।

इस विचार तरंग ने उन्हें खोजी बना दिया। तीर्थ स्थान, देवमन्दिर और सिद्ध महापुरुषों के द्वार-दरवाजे वह खटखटाने लगे। सब जगह सब कुछ था, पर वह नहीं था जिसकी तलाश में भटक रहे थे। तीर्थ स्थानों में पर्यटन स्थल की रोचकता और भव्यता तो थी, पर पावन तीर्थ चेतना का अभाव था। देवमन्दिर में दैवी गुणों के स्थान पर धन भण्डारण था। संन्यासी त्यागमूर्ति-तपोनिष्ठ होने की जगह ऐश्वर्यवान नजर आये। बड़ी बेबुझ लगी उनको यह उलटबाँसी। पर फिर भी उनकी खोज सच्ची थी-जिज्ञासा पक्की थी। जिन खोजा तिन पाइयाँ का कबीर सूत्र उन्हें और अधिक गहरे पानी पैठने का बल दे रहा था।

खोजते-भटकते, विहरते-विचरते आखिर वह गंगा की गोद और हिमालय की छाँव में बने एक सुरम्य कुटीर में आ पहुँचे। बड़ा ही मनोरम था यह स्थल। यहाँ शान्ति थी, तप की ऊर्जा थी और तीर्थ की पावनता थी। शास्त्रों का बड़ी ही जीवन्त आत्मा थी यहाँ। कुटीर में वास करने वाले महायोगी ब्रह्मचेतना का घनीभूत पुञ्ज थे। उन्हें देखकर अनायास ही श्रद्धा का उद्रेक हो आया। इस कुटीर की सुरम्यता ने उनकी राह की सारी थकान पल भर में हर ली। योगी के मधुर स्वरों ने जैसे मुरझाए अन्तःकरण पर अमृतवर्षा कर दी। ‘वत्स किम् प्रयोजनम्?’ इस संक्षिप्त प्रश्न के उत्तर में उन्होंने अपनी सारी गाथा सुना डाली।

इस गाथा को सुनते हुए महायोगी आचार्य सत्यव्रत उन्हें देखे जा रहे थे। अचानक एक मद्धम मुस्कान के साथ उन्होंने पूछा-वत्स! क्या नाम बताया तुमने? उत्तर में उन्होंने कहा- आचार्यवर, मेरा नाम-महामहोपाध्याय महापण्डित रघुनाथ परचुरे शास्त्री विद्यावाचस्पति विद्यावारीधि है। नाम के साथ इतने अलंकरण सुनकर आचार्य सत्यव्रत हँस पड़े। हँसी थमने पर वह बोले, वत्स रघुनाथ- ज्ञान तो मनुष्य को निर्भर करता है, पर लगता है कि तुम्हारे ज्ञान ने तुम्हें भारवाही बना दिया। आचार्य का इशारा उनकी उपाधियों के साथ शास्त्र पोथियों की उस गठरी की ओर था जिसे पं. रघुनाथ शास्त्री अभी भी अपने सिर पर लादे हुए थे।

हालाँकि वह आचार्य सत्यव्रत से यह पूछ रहे थे कि आचार्यवर परमात्मा को पाने के लिए मैं क्या करूं? वत्स- सबसे पहले तो इस गठरी को नीचे रख दो। पं. रघुनाथ ने इस आदेश को मानने में काफी कठिनाई अनुभव की। फिर भी उन्होंने साहस किया और गठरी को नीचे रख दिया। आत्मा के बोझ को नीचे रखने के लिए सचमुच ही अदम्य साहस की जरूरत होती है। वैसे अभी भी उनका एक हाथ गठरी पर ही था। आचार्य जी ने कहा, वत्स- तुम अपने हाथ को भी उस गठरी से दूर हटा लो। पं. रघुनाथ ने अपनी सच्ची जिज्ञासा का परिचय देते हुए अपना हाथ भी गठरी से दूर कर लिया। इस पर महान् योगी आचार्य जी ने कहा-क्या तुम प्रेम से परिचित हो? क्या तुम्हारे चरण प्रेम के पथ पर चले हैं?

पं. रघुनाथ को आचार्य सत्यव्रत के इस कथन पर हैरानी हुई। अभी तक उन्होंने प्रेम को जीवन पथ की बाधा ही माना था। लेकिन आचार्य जी तो कुछ नया कह रहे थे। उन्होंने प्रश्नवाचक निगाहों से आचार्य सत्यव्रत की ओर देखा। इन प्रश्न सूचक निगाहों के उत्तर में आचार्य जी ने भी कुछ प्रश्न वाचक वाक्य कहे-क्या प्रेम ही परमात्मा नहीं है? क्या प्रेम में डूबा हुआ हृदय ही उसका मन्दिर नहीं है और क्या जो प्रेम को छोड़कर उसे कहीं और खोजता है, वह व्यर्थ ही नहीं खोजता है।

आचार्य जी के स्वरों में उनके अनुभव का संगीत था। वह बता रहे थे-परमात्मा को जो खोजता है, वह घोषणा करता है कि प्रेम उसे उपलब्ध नहीं हुआ है, क्योंकि जो प्रेम को उपलब्ध होता है, वह परमात्मा को भी उपलब्ध होता है। परमात्मा की खोज प्रेम के अभाव से पैदा होती है, जबकि प्रेम के बिना परमात्मा का पाना असम्भव ही है। परमात्मा को जो खोजता है, वह परमात्मा को तो पा ही नहीं सकता प्रेम की खोज से अवश्य ही वंचित हो जाता है। किन्तु जो प्रेम को खोजता है, वह प्रेम को पाकर ही परमात्मा को पा लेता है। प्रेम मार्ग है, प्रेम द्वार है, प्रेम पैरों की शक्ति है। प्रेम प्रहरों की प्यास है। अन्ततः प्रेम ही प्राप्ति है। वास्तव में प्रेम ही परमेश्वर है।

सत्यव्रत के ये वचन पं. रघुनाथ को आश्चर्यजनक तो लग रहे थे, पर इनमें उन्हें सत्य की झलक भी मिल रही थी। सत्यव्रत कहे जा रहे थे-‘मैं कहता हूँ, परमात्मा को छोड़ो-प्रेम को पाओ। मन्दिर को भूलो-हृदय को खोजो, क्योंकि वह तो वहीं है।’ उन्होंने अपनी बात पर बल देते हुए कहा- ‘परमात्मा की यदि कोई मूर्ति है तो वह प्रेम है। लेकिन पाषाण मूर्तियों में वह मूर्ति खो गई है। परमात्मा का कोई मन्दिर है, तो वह हृदय है, लेकिन मिट्टी के मन्दिरों ने उसे भलीभाँति ढँक लिया है। इस लिए हे वत्स! तुम प्रेम के मन्दिर में प्रवेश करो। प्रेम को जियो और जानो, इसके बाद आना। फिर मैं तुम्हें परमात्मा तक ले चलने का आश्वासन देता हूं’ आचार्य की ये बातें सुनकर पं. रघुनाथ अपनी ज्ञान की गठरी वहीं छोड़कर वापस लौटने लगे।

सचमुच ही उनकी जिज्ञासा असाधारण और अद्भुत थी, क्योंकि साम्राज्य छोड़ना सरल है, परन्तु ज्ञान छोड़ना कठिन है। आखिर ज्ञान अहंकार का अन्तिम आधार जो है। पर यह भी सच है कि प्रेम के लिए अहंकार का जाना जरूरी है। प्रेम का विरोधी घृणा नहीं है। प्रेम का मूल शत्रु अहंकार है। घृणा तो उसकी अनेक सन्तानों में से एक है। राग-विराग, आसक्ति-विरक्ति, मोह, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष, काम सभी उसकी ही सन्तानें हैं। अहंकार का यह परिवार काफी बड़ा है। आचार्यवर की सत्संगति में पं. रघुनाथ ने यह सत्य जान लिया था। उन्होंने आचार्यवर से विदा ली। आचार्य जी भी उन्हें बाहर तक छोड़ने आये। वह इस योग्य थे भी। आचार्य सत्यव्रत उनके साहस से आनन्दित थे। क्योंकि जहाँ साहस है वहीं साधना की सम्भावना है। साहस से स्वतंत्रता आती है और स्वतंत्रता से सत्य का साक्षात्कार होता है।

इस घटना को हुए कई वर्ष बीत गये। आचार्य सत्यवर उनके लौटने की प्रतीक्षा में अतिवृद्ध हो गये। परन्तु पं. रघुनाथ वापस नहीं लौटे। अन्ततः थक-हारकर आचार्य सत्यव्रत ही उन्हें खोजने के लिए चल पड़े। और एक दिन उन्होंने उनको खोज ही लिया। वह एक गाँव में बड़े ही आत्मविभोर हो एक कुष्ठरोगी की सेवा कर रहे थे। उन्हें पहचानना भी कठिन था। प्रेम भरे आनन्द से उनका कायाकल्प हो गया था। आचार्य सत्यव्रत ने उन्हें टोकते हुए कहा-तुम आये नहीं? मैं तो प्रतीक्षा करते-करते थक गया और आखिर में तुम्हें स्वयं ही खोजने के लिए चल पड़ा। क्या तुम्हें परमात्मा को नहीं खोजना है। पं. रघुनाथ ने कहा-‘नहीं बिल्कुल नहीं। जिस क्षण प्रेम को पाया, उसी क्षण से सभी प्राणियों में उसे ही निहार रहा हूँ। मैं जान गया हूँ, प्रेम ही परमेश्वर है।’


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