आयुर्वेद−1 - क्वाथ−चिकित्सा द्वारा जीवन का कायाकल्प (पूर्वार्द्ध)

March 2003

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स्वास्थ्य संवर्द्धन एवं रोग निवारण की आयुर्वेद चिकित्सा में अनेक विधाएँ है। इनमें रस−भस्मों से लेकर चूर्ण, वटी, अवलेह, आसव, अरिष्ट, क्वाथ आदि सम्मिलित हैं। इनमें से आसव, अरिष्ट तथा क्वाथ क्रमशः अधिक शीघ्र कार्य करते हैं। क्वाथ इन सभी से अधिक उपयोगी पाया गया है। क्वाथ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें यदि कोई पदार्थ अहितकर या कम उपयोगी लगे तो उसे छोड़ा जा सकता है और उसके स्थान पर अधिक गुणकारी चीजें मिलाई जा सकती हैं। क्वाथ के घटक द्रव्यों को स्वयं जाँच−परखकर ताजी एवं वीर्यवान स्थिति में एकत्र किया और उनका जौकुट तैयार किया जा सकता है। इसमें नकली दवाओं, पुरानी व सड़ी−गली औषधियों की मिलावट की भी संभावना नहीं रहती। क्वाथ में प्रयुक्त होने वाली अधिकाँश वनौषधियां खेतों, बगीचों एवं वनों, जंगलों में सहज ही उपलब्ध हो जाती हैं। इन्हें गमलों या खेतों में आसानी से उगाया जा सकता है।

इसे एक विडंबना ही कहा जा सकता है कि आधुनिक कैप्सूल, इंजेक्शन, टैबलेट, टॉनिक, सीरप आदि के अधिक प्रचलन के कारण आयुर्वेद की सर्वोपयोगी क्वाथ−चिकित्सा का प्रायः लोप ही हो गया है। आयुर्वेद को पुनरुज्जीवित करने में प्रयासरत ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के वरिष्ठ चिकित्सा विज्ञानियों एवं आयुर्वेद विशेषज्ञों ने इस संदर्भ में गहन अनुसंधान किए हैं। पाया गया है कि क्वाथ−चिकित्सा जीवन का कायाकल्प करने वाली सबसे सरल, सफल व निरापद पद्धति है। अन्यान्य चिकित्सा−उपचारों के कभी−कभी हानिकारक प्रभाव भी देखे जाते हैं, किंतु क्वाथ−चिकित्सा में इस प्रकार का कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। अपने मृदु एवं पाचक गुणों के कारण अन्यान्य दवाओं की अपेक्षा यह शीघ्र कार्य करता है। क्वाथ को बनाना और पीना भी सरल है। इसे हर कोई बना सकता है। तीव्र विकारों एवं जड़ जमाकर बैठी असाध्य बीमारियों को दूर करने में क्वाथ−चिकित्सा को अत्यन्त उपयोगी पाया गया है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों का शमन−परिशोधन कर जीवन कायाकल्प कर सकने में क्वाथ−चिकित्सा पूर्णरूपेण सक्षम है।

अग्नि की सहायता से उबाली हुई औषधि के काढ़े को ‘क्वाथ’ कहते हैं। श्रृत, काढ़ा, निर्पूह, जुशाँदा, ये सभी नाम क्वाथ के हैं। आयुर्वेद में इसकी गणना पंचकषाय के अंतर्गत की गई है। क्वाथ, हिम, फाँट, कल्क एवं स्वरस या अर्क, इन पाँचों को ‘पंचकषाय’ कहते हैं। ये उत्तरोत्तर हलके होते हैं अर्थात् स्वरस से क्वाथ, क्वाथ से कल्क, कल्क से हिम और हिम से फाँट हलका माना गया है। निर्माण−विधि एवं जलीय मात्रा की घट−बढ़ इनकी प्रमुख विशेषता है।

(1) क्वाथ−आयुर्वेद के अनुसार पानीयं षोडशगुणं क्षुण्णे द्रव्य पले क्षिपेत् अर्थात् एक पल (एक पल=चार तोला, एक तोला=12 ग्राम) जौकुट औषधि लेकर सोलह गुने पानी में मंद आँच पर चतुर्थांश रहने तक उबालें। हलका कुनकुना रहने पर स्वच्छ वस्त्र से छानकर प्रयुक्त करें। इसे क्वाथ या काढ़ा कहते हैं।

(2)हिम−इसमें अभीष्ट मात्रा में अर्थात् 24 ग्राम द्रव्य या औषधि को छह गुने सामान्य जल में पहले दिन शाम को भिगो देते हैं और सुबह हाथ से अच्छी तरह मलकर छान लेते हैं तथा पी जाते हैं।

(3)फाँट−फाँट बनाने के लिए सबसे पहले औषधि द्रव्य से चौगुना पानी लेकर उसे गरम कर लेते हैं। पीछे उसी जल में औषधि−चूर्ण को थोड़ी देर के लिए भिगोकर रखते हैं और फिर पीस−छानकर रोगी को पिला देते हैं।

(4)कल्क−इसमें गीली या सूखी औषधि को सिल पर भाँग की तरह पीसकर उसकी लुगदी तैयार कर लेते हैं। यही कल्क कहलाता है।

(5) स्वरस−इसे अर्क भी कहते हैं। यह कच्ची वनौषधियों को मिल पर कूट−पीसकर कपड़े से निचोड़ एवं छानकर तैयार किया जाता है।

क्वाथ सात प्रकार के होते हैं−(1) पाचन, (2) दीपन, (3) शोधन, (4) शमन (5) संतर्पण (6) क्लेदन एवं (7) शोषण क्वाथ।

(1) पाचन क्वाथ−जिस क्वाथ में पानी उबलते−उबलते आधा रह जाता है, उसे पाचन क्वाथ कहते हैं। इस प्रकार के क्वाथ दोषों को पचाते हैं, इसलिए ज्वर आदि में इसे पहले दोषों को पचाने के लिए देते हैं।

(2) दीपन क्वाथ−जिस क्वाथ में पानी उबलते−उबलते दसवाँ भाग शेष रहे, उसे दीपन क्वाथ कहते हैं। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है।

(3) शोधन क्वाथ−जिसमें पानी उबलते−उबलते बारहवाँ भाग शेष बच रहे, उसे शोधन क्वाथ कहते हैं। यह मल का शोधन करता है।

(4) शमन क्वाथ−इसमें पानी उबलते−उबलते आठवाँ भाग शेष बच रहता है। यह रोगों को शाँत करता है। पाचन क्वाथ देने से दोष परिपक्व होते हैं, तत्पश्चात शमन क्वाथ पिलाते हैं, जिससे दोष शाँत हो जाता है। कच्चे दोषों में इसे नहीं देना चाहिए।

(5) संतर्पण क्वाथ−जिसे केवल गरम किया जाता है, वह संतर्पण क्वाथ कहलाता है। यह शारीरिक धातुओं को तृप्त करता है।

(6) क्लेदन क्वाथ−जिस क्वाथ में उबलते−उबलते पानी चतुर्थांश बच रहता है, उसे क्लेदन क्वाथ कहते हैं।

(7)शोषण क्वाथ−जिस क्वाथ में उबलते−उबलते सोलहवाँ भाग पानी शेष बच रहता है, उसे शोषण क्वाथ कहते हैं। यह दोषों को सुखाता है। आयुर्वेदानुसार पाचन क्वाथ रात्रि में, शमन क्वाथ दोपहर से पहले, दीपन क्वाथ दोपहर बार, संतर्पण एवं शोधन क्वाथ प्रातःकाल दिया जाना चाहिए।

ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान में गत कई वर्षों से जिन रोगों पर क्वाथ−चिकित्सा के सर्वाधिक प्रयोग−परीक्षण किए गए हैं और उनके कायाकल्प करने वाले सफल सत्परिणाम सामने आए हैं, उनमें से कुछ का वर्णन यहाँ किया जा रहा है। ये हैं−

(1) कालमेघ क्वाथ, (2) वासा क्वाथ (3) निर्गुंडी क्वाथ, (4) कुटज क्वाथ, (5) अश्वगंधा क्वाथ, (6) सरस्वती पंचक क्वाथ, (7) त्रिफला क्वाथ, (8) अशोक क्वाथ एवं (9) काँचनार क्वाथ।

(1) कालमेघ क्वाथ

इसमें निम्नलिखित औषधियां मिलाई जाती हैं−

कालमेघ−1 चम्मच, कुटकी−1/4 चम्मच, चिरायता−1 चम्मच, गिलोय−1 चम्मच, पुनर्नवा−1/2 चम्मच, सारिवा−1 चम्मच, काली जीरी−1/2 चम्मच, मुलहठी−1 चम्मच, शरपुँखा−1 चम्मच, वायविडंग−1/2 चम्मच, खदिर−1 चम्मच। (एक चम्मच बराबर 3 से 5 ग्राम होता है।)

उक्त 11 औषधियों को पहले अलग−अलग कूट−पीसकर उनका जौकुट पाउडर बना लेते हैं और तब उपर्युक्त निर्धारित मात्रा में लेकर क्वाथ बनाते हैं। क्वाथ बनाने की विधि इस लेख के उत्तरार्द्ध में (अगले अंक में) दी जाएगी।

कालमेघ क्वाथ लीवर, मलेरिया, बुखार, पीलिया आदि में विशेष लाभकारी होता है।

(2) वासा क्वाथ

इसमें निम्नाँकित चीजें मिलाई जाती हैं−

वासा−1 चम्मच, कंटकारी−1 चम्मच, भारंगी−1 चम्मच, तेजपत्र−1/2 चम्मच, मुलहठी−1 चम्मच तुलसी−1/2 चम्मच, त्रिकटु−1/4 चम्मच, चित्रक−1/4 चम्मच, नौसादार−2 चुटकी, अतीस−1 चुटकी, तालीस पत्र−1/2 चम्मच, गुलवनफ्शा−1 चम्मच।

(सोंठ, पीपल एवं काली मिर्च को बराबर मात्रा में मिलाकर कूट−पीस लेने से ‘त्रिकुट’ बनता है।)

वासा क्वाथ सरदी, खाँसी, जुकाम, नजला, सायनो साइटिस आदि रोगों में बहुत ही लाभकारी पाया गया है।

(3) निर्गुंडी क्वाथ

इसमें निम्नलिखित वनौषधियां मिलाई जाती हैं−

निर्गुंडी−1 चम्मच, सलई छाल−1/2 चम्मच, महारास्ना−1/2 चम्मच, नागरमोथा−1 चम्मच, अश्वगंधा−1/2 चम्मच, मुलहठी−1 चम्मच, दशमूल−1 चम्मच, सोंठ−1/2 चम्मच, शुद्ध गुग्गुल−1 ग्राम, हींग−1 ग्राम, रास्ना−1/2 चम्मच, चित्रक−1/2 चम्मच, उपर्युक्त वासा क्वाथ के समस्त घटक−1 चम्मच।

यहाँ इस क्वाथ में दिए गए ‘महारास्न’ एवं ‘दशमूल’ के घटक द्रव्यों के बारे में जान लेना आवश्यक है।

महारास्ना के घटक द्रव्य−रास्ना 600 ग्राम, धमासा, बला (खिरैटी), एरंड मूल की छाल, देवदार, कचूर, बच, वासा, सोंठ, हरड़, चव्य, नागरमोथा, पुनर्नवा, गिलोय, विधारा, सौंफ, गोक्षुर, अश्वगंधा, अतीस, अमलतास का गूदा, शतावर, छोटी पिप्पली, कटसरैया (पियाबाँसा), धनिया, छोटी कंटकारी बड़ी कंटकारी− प्रत्येक 12 12 ग्राम। इन सभी 26 चीजों को एकत्र करके कूट−पीसकर उनका जौकुट पाउडर बना लेते हैं। यही ‘महारास्ना’ है।

दशमूल−निम्नलिखित औषधियों को समभाग लेकर दशमूल बनाया जाता है। ये हैं−बिल्व छाल, गंभारी छाल, पाढ़ल छाल, अरणी छाल, अरलू (श्योनाक) छाल, शालपर्णी, पृश्निपर्णी, छोटी कंटकारी, बड़ी कंटकारी एवं गोक्षुर। इन सभी दस चीजों को बराबर मात्रा में लेकर उनका जौकुट पाउडर बना लेते हैं और इस मिश्रण में से एक चम्मच पाउडर निर्गुंडी क्वाथ में मिलाते हैं।

निर्गुंडी क्वाथ वात, गठिया, आर्थ्रराइटिस, स्पाँण्डि−लाइटिस, साइटिका आदि वात व्याधियों में विशेष लाभकारी होता है। ओस्टियो आर्थ्रराइटिस में निर्गुंडी क्वाथ के साथ सलई या सरई (ब्रोसवेलिया सेरेटा) का गोंद प्रतिदिन आधा ग्राम सुबह एवं आधा ग्राम शाम को लेने पर अत्युत्तम प्रभाव देखा गया है।

(4)कुटज क्वाथ

इसमें निम्नाँकित औषधियां मिलाई जाती हैं−

कुटज−1 चम्मच, बिल्व−1 चम्मच, कालमेघ−1/2 चम्मच, नागरमोथा−1 चम्मच, मुलहठी−1/2 चम्मच, चिरायता−1/2 चम्मच, गिलोय−1 चम्मच, दारु हल्दी−1/4 चम्मच, हल्दी−1/2 चम्मच।

कुटज क्वाथ आँव, पेचिश एवं दस्त रोगों में विशेष लाभकारी है। नया या पुराना अमीबायसिस रोग पथ्य परहेज के साथ इस क्वाथ के नियमित सेवन से समूल नष्ट हो जाता है।

(शेष अगले अंक में)


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