भगवान् महाकाल के दिव्य स्वरूप को प्रकट करने व साधकों को अनेकों वरदान देने महाशिवरात्रि आ गयी। महाशिवरात्रि अनेकानेक पर्वों के क्रम में आने वाला सामान्य पर्व नहीं है। यह साधना का परम दुर्लभ योग है। जिसमें उपवास और उपासना करने वाले पर देवाधिदेव महाकाल की कृपा बरसती है। भगवान् भूतभावन उस पर प्रसन्न होते हैं। सदाशिव-महामृत्युञ्जय उसका कल्याण करते हैं। इस महापर्व के बारे में शास्त्रों में कहा गया है कि एक बार कैलास शिखर पर माता पार्वती ने भोलेनाथ से पूछा-
कर्मणा केन भगवन् व्रतेन तपसायि वा। धर्मार्थ काममोक्षाणाँ हेतुस्त्वं परितुष्यति॥
हे भगवन्! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के हेतु तुम्हीं हो। साधकों की साधना से संतुष्ट हो, तुम्हीं इन्हें प्रदान करते हो। अतएव यह जानने की इच्छा होती है कि किस कर्म, किस व्रत या किस प्रकार की तपस्या से तुम प्रसन्न होते हो?
इसके उत्तर में प्रभु ने कहा-
फाल्गुने कृष्ण पक्षे या तिथिः स्याच्च्तुर्दशी। तस्यो या तामसी रात्रिः सोच्यते शिवरात्रिका॥ तत्रोपवासं कुर्वाणः प्रसादयति माँ ध्रुवम्। न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया॥ तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः॥
फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को आश्रय कर जिस अन्धकारमयी रजनी का उदय होता है, उसी को शिवरात्रि कहते हैं। उस दिन जो उपवास करता है, वह निश्चय ही मुझे संतुष्ट करता है। उस दिन उपवास करने से जैसा प्रसन्न होता हूँ, वैसा स्नान, वस्त्र, धूप और पुष्प के अर्पण से भी नहीं होता।
इन शास्त्र वचनों में अनेकों गूढ़ार्थ संजोये हैं। इन्हें सही ढंग से जाने और समझे बिना प्रयोजन पूरा नहीं होता। कहा भी गया है- ‘अज्ञात ज्ञापकं हि शास्त्रम्’ जो ज्ञात नहीं है उसे ज्ञात करा दे, यही शास्त्रों का कार्य है। शिवरात्रि के उपवास-अनुष्ठान में शास्त्र का कौन सा गूढ़ उद्देश्य है, वह किस अज्ञात तत्त्व की ओर संकेत कर रहा है, यह हमें जरूर जानना चाहिए। अन्यथा हम महाशिवरात्रि की परम दुर्लभ साधना का लाभ न उठा सकेंगे। और यह दुर्लभ सुयोग व्यर्थ चला जायेगा। भगवान् महाकाल के वरदान हम पा न सकेंगे।
इन वरदानों को पा सकें इसके लिए आवश्यक है कि महाशिवरात्रि के उपवास के मर्म को समझें। उपवास में दो तत्त्वों का समावेश है। प्रथम वह है जो उपवास के शब्द से ध्वनित होता है-‘आहारनिवृत्तिरुपवासः’ यानि कि आहार से निवृत्ति अथवा निराहार रहना ही उपवास है। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि आहार का मतलब केवल भोजन नहीं है। शास्त्रकार कहते हैं-‘अह्नियवे मनसा बुद्धया इन्द्रियैर्वा इति आहारः’ मन, बुद्धि अथवा इन्द्रियों के द्वारा जो बाहर से भीतर आहृत-संग्रहीत होता है, उसी का नाम आहार है। इस निराहार रहने का मतलब यह हुआ कि हम न केवल भोजन का त्याग करें बल्कि कल्पना, भावना और विचारों से भी साँसारिकता को भी छोड़ दें। साँसारिक विषय वासना या प्रपंच के किसी भी स्पन्दन को अपनी अन्तर्चेतना में प्रवेश न करने दें।
उपवास का दूसरा तत्त्व उसके धातु मूलक अर्थ से ध्वनित होता है। यह अर्थ है अपने आराध्य के समीप होना और यह समीपता हमें प्रभु के स्वरूप चिंतन से ही मिल सकती है। भगवान् महाकाल के दिव्य स्वरूप के रहस्य पर ध्यान करने से मिल सकती है। इस तरह महाशिवरात्रि में किये जाने वाले उपवास की सार्थकता तभी है जब हम शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि से किसी बाहरी और संसारी तत्त्व को न ग्रहण करते हुए प्रतिपल-प्रतिक्षण भगवान् महाकाल की महिमा का चिंतन करें।
उन भगवान् महेश्वर की महिमा भला माँ माहेश्वरी के सिवा और कौन जानेगा? शिवतत्त्व का बोध कराते हुए माँ के वचन हैं-
स आदिः सर्वजगताँ कोऽस्य वेदान्वयं ततः। सर्वजगद्धयस्य रुपं दिग्वासाः कीर्त्यते ततः॥
गुणत्रयमयं शूलं शूली यस्माद्विभर्ति सः। अबद्धा सर्वतो मुक्ता भूता एव स तत्पतिः॥
श्मशान वापि संसारस्तद्वासी कृपयार्थिनाम्। भूतयः कथिता भूतिस्ताँ विभर्त्तिसम्तिभृत॥
वृषो धर्म इति प्रोक्तस्तमा रुढ़स्ततो वृषी। सर्पाश्च दोषाः क्रोधाद्यास्तान विभर्त्ति जगन्मयः॥
नाना विधान् कर्मयोगाञ्जटारुपान् विभर्त्तिसः। वेदत्रयी त्रिनेत्राणि त्रिपुरः त्रिगुण वपुः॥
भस्मी करोति तद्देवस्त्रिपुरः स्मृतः। एवं विधं महाकालं विदुर्ये सूक्ष्मदर्शिनः॥
देवाधिदेव प्रभु जगत् के आदि हैं, फिर उनके वंश का वृत्तांत कौन जान सकता है? समस्त जगत् उनका स्वरूप है, इसीलिए वे दिगम्बर हैं। वे त्रिगुणात्मक शूल धारण करते हैं, इसीलिए उन्हें शूली कहते हैं। वे पंचभूतों से बद्ध नहीं बल्कि सर्वथा मुक्त हैं, इसीलिए वे भूतगणों के अधिपति है। यह संसार ही श्मशान है, प्रभु अपने भक्तों के प्रति कृपा करके इसमें वास करते हैं। उनकी विभूति (राख) ही सबको विभूति (ऐश्वर्य) प्रदान करती है। इसीलिए वे विभूति को अपने शरीर पर धारण करते हैं। धर्म ही वृष है और उस पर आरुढ़ होने के कारण वे वृषभवाहन हैं। क्रोधादि दोष समूह ही सर्प हैं, जगन्मय महेश्वर इन सबको वशीभूत करके इन्हें भूषण के रूप में धारण करते हैं। विविध क्रियाकलाप ही जटाएँ हैं, इन्हें धारण करने के कारण वे जटाधारी हैं। त्रिगुणमय शरीर ही त्रिपुर है, इसे भस्मसात् करने के कारण ही प्रभु त्रिपुरदन हैं। जो सूक्ष्मदर्शी पुरुष इस प्रकार के भगवान् महाकाल के स्वरूप को जानते हैं, वे भला उन्हें छोड़कर और किसकी शरण में जायेंगे।
महाशिवरात्रि के पुण्य क्षणों में सम्पूर्ण रीति से उपवास करते हुए महेश्वर महाकाल का चिंतन भक्तों को उनका मनवाँछित देने वाला है। महाकाल इस समस्त सृष्टि के अधिष्ठाता व नियामक हैं। वे काल के भी अधीश्वर होने के कारण महाकाल के रूप में जाने जाते हैं। उन्हीं के इंगित से युग परिवर्तित होते हैं और सृष्टि अपना क्रम बदलती है। उनकी शक्ति से ही युग प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया गतिमान होती है। समय-समय पर वे ही प्रभु ‘सम्भवामि युगे-युगे’ की अपनी चिरंतन प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए इस धरा पर अवतरित होते हैं। उनकी अवतार बेला में अनेकों लीला सहचर उनसे जुड़ते और कृतार्थ होते हैं। उनकी महत् चेतना के स्पर्श से युग बदलता और धरा धन्य होती है।
इस वर्ष की महाशिवरात्रि के महापर्व पर वे ही भगवान् महाकाल शान्तिकुञ्ज के देवसंस्कृति विश्वविद्यालय परिसर में अपने विग्रह के रूप में प्रतिष्ठित हो रहे हैं। विश्वविद्यालय परिसर में उनकी यह प्रतिष्ठ, विचारक्रान्ति अभियान के सर्वथा नवीन आयाम की प्रतिष्ठ है। महेश्वर महाकाल द्वारा संचालित युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया में नयी सम्भावनाओं की प्रतिष्ठ है। यह भक्तों के लिए भगवान् महाकाल के नये वरदानों का आगमन है। महाशिवरात्रि के पुण्य क्षणों में निराकार भगवान् के इस साकार रूप का अर्चन भक्तों और साधकों के जीवन में अनेकों अनुदानों का अनुग्रह प्रदान करेगा। इन पुण्य क्षणों का लाभ उठाने से कोई कहीं चुके नहीं।