जब राजा परीक्षित को भागवत सुनाते हुए शुकदेव जी से छह दिन बीत गए और सर्प के काटने से मृत्यु होने का एक दिन रह गया, तब भी राजा का शोक और मृत्युभय दूर न हुआ। कातर भाव से अपने मरने की घड़ी निकट आती देखकर वह क्षुब्ध हो रहा था।
शुकदेव जी ने परीक्षित को एक कथा सुनाई, “राजन् बहुत समय पहले की बात है। एक राजा किसी जंगल में शिकार खेलने गया। संयोगवश वह रास्ता भूलकर बड़े घने जंगल में जा निकला, रात्रि हो गई, वर्षा पड़ने लगी। सिंह−व्याघ्र बोलने लगे। राजा बहुत डरा और किसी प्रकार रात्रि बिताने के लिए विश्राम का स्थान ढूँढ़ने लगा। कुछ दूर पर उसे दीपक दिखाई दिया। वहाँ पहुँचकर उसने एक गंदे बीमार बहेलिये की झोंपड़ी देखी। वह चल−फिर नहीं सकता था, इसलिए झोंपड़ी में ही एक ओर उसने मल−मूत्र का स्थान बना रखा था। अपने खाने−पीने के लिए जानवरों का माँस उसने झोंपड़ी की छत पर लटका रखा था। झोंपड़ी गंदी, छोटी, अँधेरी और दुर्गंधयुक्त थी। पहले तो वह ठिठका, पर अन्य कोई आश्रय न देखकर बहेलिये से उसी में ठहर जाने की प्रार्थना करने लगा। बहेलिये ने उसे समझाया, ‘राजन्, आप इस स्थान पर रह नहीं पाएँगे। पर एक दिन रह लेंगे तो इस गंध के आदी होकर छोड़ेंगे भी नहीं।’ राजा बोले, ‘यह तो आज भर की विवशता है। मैं सवेरे अवश्य चला जाऊँगा।’ हुआ वही जो होना था। राजा ने सवेरे उस स्थान से जाने से मना कर दिया।”
यह कथा चल ही रही थी कि परीक्षित बोल पड़े, “वह कैसा मूर्ख राजा था!” शुकदेव बोले, “परीक्षित, वह मूर्ख तुम्हीं हो, तो मल−मूत्र की इस कोठरी को छोड़ने से डर रहे हो। अवधि पूरी हो जाने पर भी तुम झंझट फैला रहे हो।” परीक्षित का ज्ञान जाग पड़ा और वे बंधन−मुक्ति के लिए सहर्ष तैयार हो गए।