करनी का फल (kahani)

March 2003

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गुजरात के रविशंकर महाराज ने अपराधी प्रवृत्तियों के लोगों से उनकी गलती कबूल कराई और प्रायश्चित कराए। एक अपराधी रात भर सोया नहीं। सवेरे महाराज के पास पहुंचा और कहा कि उसने पड़ोसी के यहां शराब की बोतलें रखवाकर पकड़वा दिया। अब वह जेल में है।

महाराज ने उसे प्रायश्चित बताया कि जब तक वह छूटकर न आए तब तक उसके घर का खरच तुम उठाओ और बच्चों की देख−भाल रखो। उसने ऐसा ही किया। अब वह जेल से छूटा तो घनिष्ठ मित्र बन गया।

एक आदमी हनुमान का उपासक था। एक बार वह बैलगाड़ी लिए कहीं जा रहा था। गाड़ी कीचड़ में फँस गई, वह वहीं खड़ा होकर हनुमान चालीसा पाठ करने लगा और गाड़ी बाहर निकलने की कामना करने लगा। तभी उधर आए एक पंडित जी ने कहा, मित्र हनुमान जी पता न चलने पर पहाड़ ही उखाड़ लाए थे, तुम कम−से−कम गाड़ी को हाथ तो लगाओ। आदमी ने थोड़ी ताकत लगाई और बैल गाड़ी बाहर खींच ले गए।

देवता हों या महापुरुष, तब तक फल नहीं देते जब तक मनुष्य स्वयं उन आदर्शों के परिपालन के लिए समुद्यत नहीं होता। कर्म विधान पर भी यही सिद्धाँत लागू होता है। ईश्वर उनका फल तब दें, जब मनुष्य अंतः को बलवान बनाए, याचना भाव नहीं, समर्पण भाव बढ़ाए।

स्वर्ग और नरक करनी के फल हैं, एक संत ने अपने शिष्य को समझाया, पर शिष्य ही समझ में बात चढ़ी नहीं। तब उसका उत्तर देने के लिए अगले दिन संत शिष्य को लेकर एक बहेलिये के पास पहुँचे। वहाँ जाकर देखा, व्याध कुछ जंगल के निरीह पक्षी पकड़कर लाया था और उन्हें काट रहा था। उसे देखते ही शिष्य चिल्लाया, महाराज, यहाँ तो नरक है, यहाँ से शीघ्र चलिए। संत बोले, सचमुच इस बहेलिये ने इतने जीव मार डाले, पर आज तक फूटी कौड़ी इसने नहीं जोड़ी। कपड़ों तक के पैसे नहीं। इसके लिए यह संसार भी नरक है और परलोक में जो इतने मारे गए जीवों की तड़पती आत्माएँ इसे कष्ट देंगी, उसकी तो कल्पना भी नहीं हो सकती।

संत दूसरे दिन एक साधु की कुटी पर पधारे। शिष्य भी साथ थे। वहाँ जाकर देखा, साधु के पास है तो कुछ नहीं, पर उनकी मस्ती का कुछ ठिकाना नहीं। बड़े संतुष्ट, बड़े प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। संत ने कहा, वत्स, यह साधु इस जीवन में कष्ट का, तपश्चर्या का जीवन जी रहे हैं, तो भी मन में इतना आह्लाद! यह इस बात का प्रतीक है कि इन्हें पारलौकिक सुख तो निश्चित ही है।

सायंकाल संत एक वेश्या के घर में प्रवेश करने लगे तो शिष्य चिल्लाया, महाराज, यहाँ कहाँ? संत बोले, वत्स, यहाँ का वैभव भी देख लें। मनुष्य इस साँसारिक सुखोपभोग के लिए अपने शरीर, शील और चरित्र को भी किस तरह बेचकर मौज उड़ाता है, पर शरीर का सौंदर्य नष्ट होते ही कोई पास नहीं आता। यह इस बात का प्रतीक है कि इसके लिए संसार स्वर्ग की तरह है, पर अंत इसका वही है, जो उस बहेलिये का था।

अंतिम दिन वे एक सद्गृहस्थ के घर रुके। गृहस्थ बड़ा परिश्रमी, संयमशील, नेक और ईमानदार था, सो सुख−समृद्धि की उसे कोई कमी नहीं थी, वरन् वह बढ़ ही रही थी। संत ने कहा, यह वह व्यक्ति है, जिसे इस पृथ्वी पर भी स्वर्ग है और परलोक में भी। शिष्य ने इस तत्त्वज्ञान को भली प्रकार समझ लिया कि स्वर्ग और नरक वस्तुतः करनी का फल है।


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