साँस्कृतिक क्राँति का आह्वान मंत्र

March 2003

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वर्तमान परिदृश्य में क्रान्ति का आह्वान मंत्र गूँज रहा है। अलगाव, आतंक, अस्थिरता, असन्तोष, अविश्वास के अनेकों यक्ष प्रश्न राष्ट्रीय जन-मानस से अपना उत्तर माँग रहे हैं। उनका एक ही दृढ़ स्वर है- ‘उत्तर या मरण’। या तो इन सबके सार्थक उत्तर देकर उज्ज्वल भविष्य के अधिकारी बनो अथवा फिर महाविनाश के लिए तैयार हो जाओ। मानव इतिहास के मर्मज्ञ मनीषी अर्नाल्ड टायनबी ने अपने चिन्तन में क्रान्ति को जन्म देने वाली परिस्थितियों का बड़ा ही विचारपूर्ण विवेचन किया है। उनका कहना है कि राष्ट्र की हर इकाई अलग होने की माँग करने लगे, व्यवस्थाओं की स्थिरता समाप्त होती दिखे, चारों ओर आतंक का साया घना हो जाय, अविश्वास इतना बढ़ जाय कि समाज के दरो-दीवार टूटने लगे और युवाओं में असन्तोष की ज्वालाएँ धधकती नजर आए तो समझो कि अब क्रान्ति में देर नहीं।

भारत देश की परिस्थितियाँ कुछ ऐसी ही हैं। मूल्यों का भयावह क्षरण, भ्रष्टाचार का महाताण्डव, चरमराती हुई राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्थाएँ, विघटित मानवीय जीवन, क्रान्ति का साज छेड़ना चाहते हैं। बेरोजगारी और दिशाहीनता से युवाओं की कुण्ठा इस कदर बढ़ चली है कि वे निराशा और आक्रोश के बीच झूल रहे हैं। निराशा उन्हें आत्महत्या के लिए प्रेरित करती है और आक्रोश उन्हें अपराधी बनने के लिए विवश करता है। जीवन व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप में वे कहीं, कोई स्थान नहीं खोज पा रहे। देश की आधी जनसंख्या के रूप में अपनी पहचान के लिए तरस रही नारियों की दशा और भी विपन्न है। शास्त्र उन्हें भले ही देवी की महिमा से मण्डित करते रहे, पर समाज का प्रचलित ढर्रा उन्हें मानवी मानने के लिए भी तैयार नहीं है।

रूसी चिन्तक क्रोपाटिकन के शब्दों में- इन सब का एक ही समाधान है क्रान्ति। क्रान्ति का अर्थ है- आमूल-चूल बदलाव। यानि कि व्यवस्था भी बदले, व्यवस्थापक भी बदले। इस तरह के बदलाव को दुनिया के कई भागों में कई बार अनुभव किया जा चुका है। रूस की क्रान्ति, फ्राँस की क्रान्ति, भारत देश की स्वाधीनता की क्रान्ति आदि अनेकों इसके उदाहरण हैं। जिनसे उस क्षेत्र के निवासियों ने तात्कालिक राहत पायी है। पर अबकी बार जरूरत कुछ ज्यादा है। इस बार की क्रान्ति में संघर्ष किन्हीं आक्रान्ताओं से नहीं अपनों और अपने से है। जिन्हें उलटना है- वे जीवन मूल्य हैं, जिनकी प्रतिष्ठ होनी है, वे जीवन साधना के स्वर्णिम सूत्र हैं। जिसे बदलना है- वह राष्ट्र की जीवन व्यवस्था है। राजनीतिक व्यवस्था को बदल देने भर से कुछ होने वाला नहीं है। हर पाँच साल में सरकारों के बदल जाने का अनुभव सभी को है। पर इससे समस्याएँ घटती नहीं, बल्कि पचास गुना बढ़ जाती हैं।

समस्याओं के सार्थक समाधान के लिए सम्पूर्ण क्रान्ति की जरूरत है। महान् दार्शनिक योगी श्री अरविन्द के शब्दों में- यह सम्पूर्ण क्रान्ति ही साँस्कृतिक क्रान्ति है। संस्कृति- जीवन की परिष्कृति है। इस तरह साँस्कृतिक क्रान्ति का अर्थ है जीवन और उसकी व्यवस्था को सम्पूर्ण रूप से निर्मल बनाने का, उसे परिष्कृत कर देने का सफल और सार्थक प्रयास। अब तक के विश्व इतिहास में जो प्रचलित क्रान्तियाँ हुई हैं, उनमें केवल बाहरी परिवर्तन से ही सन्तुष्ट होना पड़ा है। इनमें व्यवस्था तो बदली, पर व्यवस्थापकों के अन्तःकरण नहीं बदले। परिणाम वही ढाक के तीन पात रहे। राजतंत्र का लोकतंत्र में परिवर्तन लोक लुभावना तो हुआ, पर लोक जीवन की अपेक्षाएँ पूरी न हो सकीं। क्योंकि लोकतन्त्र ने भी नव-सामन्तवाद को जन्म देने और बढ़ावा देने में कोई कसर न छोड़ी। स्थिति केवल इतनी भर बदली कि पहले जो कार्य राजा और उसके सामन्त करते थे, वही कार्य अब नेता और उसके चाटुकार करने लगे। मूल्यों का क्षरण और पतन यथावत रहा।

साँस्कृतिक क्रान्ति ही इससे जूझने और उबरने का एक मात्र उपाय है। यही वह ब्रह्मास्त्र है, जिससे मानव की मनःस्थिति बदलेगी। उसकी आस्थाएँ, मान्यताएँ और धारणाएँ बदलेंगी। विश्वास और मूल्य बदलेंगे। व्यक्ति का व्यक्तित्व बदलेगा। यह क्रान्ति लहू और लोहे से नहीं विचारों और भावनाओं से की जा सकेगी। ‘मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदले’ इस महाक्रान्ति का ध्येय वाक्य होगा। राष्ट्रीय नव जागरण के पुरोधा स्वामी विवेकानन्द ने अपने समय में इस महाक्रान्ति के विचार बीज बोए थे। इसकी भावी आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए कहा था- राष्ट्र की सबसे पहली आवश्यकता- मनुष्य निर्माण है। मनुष्य होने का परिचय केवल मानवीय कलेवर भर नहीं है। उसमें मानवीय गुणों का समन्वय भी चाहिए। मानवीय गुणों, भावों एवं सम्वेदनाओं से मनुष्य गढ़ने के लिए साँस्कृतिक क्रान्ति की कार्यशाला की आवश्यकता है। इसी से मनुष्य को अपनी खोयी पहचान मिलेगी। उसका अपनी लुप्तप्राय महिमा और गरिमा से परिचय होगा। ऐसे गरिमा सम्पन्न महिमान्वित व्यक्तित्व की प्रचण्ड चेतना धारा में अनेकों नए व्यक्तियों की चेतना परिष्कृत होगी। एक दीपक की लौ दूसरे नए दीपों को जलाएगी। मनुष्यों की मनःस्थिति बदलेगी तो परिस्थितियाँ भी बदलेंगी ही। व्यक्ति ही व्यवस्था का बीज है। व्यक्ति बदलता है- तो व्यवस्था के गुण और मूल्य बदल जाते हैं। साँस्कृतिक क्रान्ति में व्यक्ति और व्यवस्था दोनों के ही परिवर्तन के सूत्र और कार्यक्रम निहित हैं।

अर्नाल्ड टायनबी, ए.एल. बाशम जैसे सुप्रसिद्ध इतिहासविद्, महर्षि अरविन्द और डॉ. राधाकृष्णन जैसे दार्शनिक इसे भारत देश के महारोगों की एकमात्र औषधि के रूप में स्वीकारते हैं। विशेषज्ञों और विश्लेषकों का एक स्वर से मानना है कि भारतभूमि की वर्तमान परिस्थितियों में साँस्कृतिक क्रान्ति संजीवनी औषधि की तरह है। जिसके थोड़े से सेवन से भारत जननी नवप्राण पा सकती है। ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतोभयात्’। इस महाधर्म का थोड़ा सा आचरण भी हमें महान् भय से मुक्ति दिला सकता है।

यही युगधर्म है। विचार क्रान्ति अभियान के द्वारा इसी को गति दी जा रही है। इससे जुड़कर इसे आत्मसात करके साँस्कृतिक क्रान्ति के धर्मचक्र प्रवर्तन की योजना में शामिल हुआ जा सकता है। एक के बाद एक नए व्यक्तियों का जुड़ाव न केवल उन व्यक्तियों को लाभान्वित करेगा बल्कि भारत माता का मैला होता जा रहा आँचल भी शुभ्र होगा। ध्यान रहे- क्रान्ति के बीज एक-दो महान् विचारकों के दिमाग में जमते हैं। वहाँ से वे फूल-फल कर बाहर आए कि संक्रामक रोग की तरह अन्य दिमागों में उपजकर बढ़ते हैं। सिलसिला जारी रहता है क्रान्ति की बाढ़ आती है। चिंगारी से आग और आग से दावानल बन जाता है। बुरे-भले सब तरह के लोग उसके प्रभाव में आते हैं, कीचड़ और दलदल में भी आग लग उठती है। साँस्कृतिक क्रान्ति के महामंत्र की भाव साधना की परिणति और परिणाम यही है। यही राष्ट्र के समस्त प्रश्नों का सार्थक हल और राष्ट्रीय उज्ज्वल भविष्य को निर्माण करने वाला ऊर्जा प्रवाह है।


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