दीक्षा से मिली दिशा
पूरब दिशा में तारों की चमक हलकी−सी फीकी होने लगी थी। अँधेरा कुछ उठता दिखाई दिया और अपने घोंसले में सोए पक्षियों का कलरव सुनाई देने लगा। तभी श्रीराम अपनी पूजा की कोठरी में आसन बिछाने लगे। बैठकर ‘अपवित्रः पवित्रों वा सर्वावस्थाँ गतोऽपि वा......’
महामना मालवीय जी ने मंत्रदीक्षा के समय विधि−विधान समझाया था। यह भी कि संध्यावंदन दोनों समय होना चाहिए। उस मार्गदर्शन में संध्या के उपक्रम, स्थान और समय का निर्देश भी था। उनके कहे हुए शब्द स्मृति में हमेशा रहते थे और कुछ महीनों के अभ्यास से तो स्वभाव में ही घुल−मिल गए थे। शास्त्रों में संध्या के लिए जिन स्थानों को उत्तम बताया गया है, उनमें पुण्यक्षेत्र, नदीतट, पवित्र जलाशय, पर्वत की गुहा या शिखर, एकाँत बगीचा, देवमंदिर या अपना घर प्रमुख है। श्रीराम पहले तो गाँव से बाहर देवमंदिर में बैठकर संध्यावंदन करते थे। पिता का स्वर्गवास होने के बाद घर में ही बैठने लगे। विशाल हवेली के एक कमरे में पूजास्थान बना दिया। कमरे का दरवाजा पूरब दिशा में खुलता था। दरवाजे के बाहर तुलसी का बिरवा था। संध्या के लिए बैठते समय मुँह पूरब दिशा की ओर होता था। अर्घ देना होता तो वे बाहर आ जाते और बिरवे के पास खड़े होकर सूर्य नमस्कार करके इस तरह जल चढ़ाते कि वह जमीन पर न गिरकर तुलसी की क्यारी में गिरे।
मंदिर में संध्यावंदन करते हुए अर्घ के लिए उठकर कहीं जाना नहीं पड़ता था। जिस जगह बैठते, वहीं सामने एक पात्र रख लेते और खड़े होकर जल चढ़ा देते। माँ के कहने पर घर में ही उपासना शुरू की तो अर्घ के लिए बाहर जाना जरूरी हो गया। जिस सावधानी से स्थान का चुनाव किया, वैसी ही सावधानी समय के निर्धारण में भी बरती। उसे पूरी तरह निभाने का प्रयत्न किया। प्रातः−संध्या सुनहरा सूर्य उदय होने से पहले आरंभ हो जानी चाहिए और सायंकाल की संध्या सूर्यास्त से पहले।
श्रीराम सुबह चार बजे उठ जाते। स्नान आदि से निवृत्त होने और संध्यावंदन के लिए बैठने में एक घंटा समय लगता। हवेली परिसर में बने कुएँ से वे अपने हाथ से पानी खींचते। बाहर कंदील की रोशनी फैली रहती। उसे कोई कठिनाई नहीं होती। हवेली के लोग हालाँकि जग जाते थे, फिर भी श्रीराम इस बात की पूरी सावधानी बरतते थे कि बाल्टी रखने या पानी गिराने की आवाज नहीं हो। चुपचाप स्नान से निपट जाते। किसी को आहट तक नहीं होती थी।
संध्या आरंभ करने के बाद श्रीराम जप और ध्यान में पूरी तरह तन्मय हो जाते थे। अवधि की दृष्टि से उनकी संध्या चालीस मिनट में संपन्न हो जाती थी, लेकिन इस अवधि में भी उनकी तन्मयता पूरी हो जाती थी। गायत्री मंत्र की एक माला और सूर्योदय के स्वर्णिम प्रकाश का ध्यान करने में छह मिनट का समय लगता है। सध जाने पर चार मिनट ही लगते हैं। इस स्थिति में गणना में थोड़ी चूक की संभावना रहती है। गायत्री दीक्षा लेने के बाद श्रीराम पाँच माला सुबह और दो माला शाम के समय जपते थे। तन्मयता इतनी रहती थी कि भूल−चूक की गुँजाइश ही नहीं बचती। प्रातः−सायं की संध्या में कुल मिलाकर एक घंटा समय लग जाता। ध्यान−धारणा का क्रम जप के बाद भी यथासमय चलता रहता।
ऐतिहासिक घड़ी
विक्रम संवत् 1973 की वसंत पंचमी थी। अँगरेजी तारीख के अनुसार 17 जनवरी, 1926 का दिन। श्रीराम की आयु लगभग पंद्रह वर्ष हुई होगी। वे संध्यावंदन कर रहे थे। गायत्री जप करते हुए तन्मय अवस्था थी। सुखासन से बैठे श्रीराम के सिर्फ होंठ हिल रहे थे। मुँह से कोई ध्वनि नहीं हो रही थी। जप की उपाँशु अवस्था थी, जिसमें होंठ तो हिलते हैं, मुँह के भीतर स्वर यंत्रों में भी स्फुरण होता रहता हैं, लेकिन ध्वनि नहीं होती। मुँह बंद कर मानस जप में अधिक समय लगता है और विस्मरण की आशंका भी रहती है। मालवीय जी ने इसीलिए उपाँशु जप को वरीयता दी थी। इस जप के साथ पूरब दिशा में उग रहे सविता देवता का ध्यान। बंद नेत्रों से भृकुटि में जो क्षितिज दिखाई दे रहा है, वही जैसे उदायचल है। भ्रूमध्य की आकृति भी ऐसी ही बनती है, जैसे पर्वतों के दो गोलार्द्ध मिल रहे हों और उनके संधिस्थल पर नए आलोक का उदय होता हो।
उदित हो रहे आलोक के समय चेतना−जगत में स्वर्णिम आभा फैलने लगी। प्रकाश की चादर बिछती चली जा रही है। अपना अस्तित्व निसर्ग की चादर बिछती चली जा रही है। अपना अस्तित्व निसर्ग के इस विस्तार से अभिभूत हो रहा है। शरीर, मन, बुद्धि, चित्त और उससे आगे सत्ता के जितने भी लोक हो सकते हैं, सबमें उस प्रकाश से जीवन−चेतना व्यापती जा रही है। भोर होते ही रात की नींद जैसे अपने आप उचटने लगती है, वैसे ही चेतना में छाई क्लाँति दूर हो रही है और नया उत्साह आ रहा है। सुबह की ताजगी अस्तित्व के रोम−रोम में फैलती जा रही है। स्वर्णिम प्रकाश का ध्यान करते हुए यह अनुभूति भी प्रगाढ़ होती जाती थी।
जिस क्षण की घटना का उल्लेख आगे की पंक्तियों में किया जा रहा है, उस क्षण में जप और ध्यान की क्या अवस्था चल रही थी, कहना कठिन है। जिस तरह के उल्लेख मिलते हैं, उनमें वह अवस्था मनोमय की ही कही जा सकती है। इस अवस्था में चित्त संकल्प−विकल्प से मुक्त हो जाता है। योगशास्त्रों में ‘निर्वात निष्कंप दीपशिखा’ कहते हुए ही ऐसे चित्त का वर्णन किया गया है। वायु रहित स्थान में जलते हुए दीपक की लौ जिस तरह नहीं काँपती, उसी तरह हमेशा काँपते और डोलते रहने वाला चित्त भी संकल्प−विकल्प के वेगों का अभाव हो जाने से स्थिर हो जाता है। कुछ योगियों के अनुसार यह ध्यान में गहरे उतरने और समाधि के समीप पहुँच जाने की अवस्था है।
प्रकाश शरीर का अवतरण
श्रीराम अपने आसन पर बैठे मनोलय अथवा समाधि की भूमिका में हैं। उस भूमिका से गुजरते हुए जप के अंतिम चरण तक पहुँचते हैं। जप पूरा होता है, सविता देवता के चरणों में जप−निवेदन करते हुए हाथ जोड़कर बैठे ही थे कि कोठरी में अचानक बिजली−सी कौंधी। चकाचौंध करने वाला प्रकाश भर गया। बिजली चमकने के तत्क्षण ही प्रकाश लुप्त हो जाता है, लेकिन उसकी प्रखरता शाँत−शीतल हो गई। सूर्य की स्वर्णिम आभा और चंद्रमा की चाँदनी जैसा शीतल और शाँत।
जिस समय प्रकाश कौंधा था, उस समय कोठरी में जैसे हजार सूर्य एक साथ चमक उठे थे। उस समय हुई चकाचौंध जब धीरे−धीरे स्थिर हो गई, तो कोठरी में एक सौम्य आकृति प्रकट हुई। लंबी जटाएँ, शरीर अत्यंत कृश, लेकिन देदीप्यमान। आकृति क्षीण जरूर दिखाई देती थी, लेकिन स्वरूप में तेजस्विता और बल का पूर्ण समावेश था। वह कृश काया फौलाद से बनी प्रतीत होती थी। आकृति दिगंबर थी। आस−पास आभामंडल छाया हुआ था और शरीर कहीं−कहीं बरफ की चादर से ढका हुआ सा लगता था। साधक श्रीराम उस सौम्य आकृति को देखकर हर्षित हुए। मन में आश्वस्ति का भाव आया। क्षण भर पहले जो भय व्याप्त रहा था, वह तिरोहित हो गया। उस आकृति को देखकर मन में उल्लास उमगने लगा। इच्छा हुई कि उठकर प्रणाम कर लें। संध्याकर्म में प्रदक्षिण कर्म अभी बाकी था। उस दिव्यमूर्ति ने श्रीराम के भावों को पढ़ लिया और बैठे रहने का संकेत किया। श्रीराम बैठे उस आकृति को निहारते रहे, जैसे सविता देवऋषि रूप में प्रकट हुए हों।
आकृति करीबी आई। ऐसा प्रतीत नहीं होता था कि वे कुछ कदम आगे बढ़कर आए हों। यह प्रतीत हो रहा था कि जैसे दूरी अपने आप घट गई हो। समीपता इतनी बनी कि बैठे−बैठे ही हाथ आगे बढ़ाकर चरण छू लें। चरण स्पर्श की आवश्यकता नहीं पड़ी, सिर अपने आप चरणों में झुक गया। उस दिव्य आकृति ने अपना हाथ श्रीराम के सिर पर रख दिया। वह स्पर्श व्यक्तित्व में जो झंकार जगा गया, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। मनीषियों ने उस तरह की अनुभूतियों को हजार तरह से कहने की कोशिश की है और कोशिश कर चुकने के बाद थककर चुप हो गए हैं। उपनिषदों ने उसे इन भावों में व्यक्त किया है कि जो सुनते हैं। (कान) वे बोलते नहीं और जो बोलता है (मुँह), वह सुनता नहीं। कबीर ने इसे ‘गूँगे केरी सरकरा’ कहकर गाया है। स्वाद तो आता है, लेकिन कहना कठिन है।
समय मानो ठहर गया
स्पर्श ने श्रीराम के सामने एक अलग ही संसार खोल दिया। उस संसार में वाणी की आवश्यकता नहीं हुई, समय भी ठहर गया और स्थान तो जैसे अपनी सीमाएँ ही भूल गया। देश−काल से परे उस अनुभूति में मार्गदर्शक सत्ता ने पिछले कई जन्मों की यात्रा करा दी। यह यात्रा स्मृतियों में उतरकर नहीं, शुद्ध चेतना के जगत में प्रवेश कर संपन्न हुई थी। उस जगत में प्रवेश करते ही श्रीराम अपने आप को वाराणसी में उपस्थित अनुभव करते हैं। उस क्षण को अनुभव कहना भी शायद गलत हो। वे वाराणसी में ही थे। पूजा की कोठरी में जिस रूप, अवस्था और वेश में थे, उससे सर्वथा भिन्न। अपने आपको एक अनजाने रूप में पाया, लेकिन ऐसा नहीं लगा कि किसी आश्चर्य लोक में हों। अपरिचित होते हुए भी वह समय, स्थिति और स्वरूप सहज लग रहा था, जैसे अपनी चेतना में ही घट रहा हो या स्वयं उस स्थिति के नायक हों।
एक दृश्य में स्वामी उस स्थिति के घाट पर स्नान करने जा रहे है। सीढ़ियों पर कोई लेटा हुआ, रामानंद से रामनाम की दीक्षा लेने की आस लिए हुए। पहले प्रयत्न कर देखा था, लेकिन गुरु के सहयोगियों ने यह कहकर मना कर दिया कि अंत्यजों को रामनाम की दीक्षा नहीं दी जाती। वे अपने आप चाहे जप लिया करें, गुरुमुख से सुनने की योग्यता उनमें नहीं हैं। वह ‘कोई’ संत कबीर थे और पूजा की कोठरी में सिर पर हाथ का स्पर्श पाकर जो श्रीराम यह सब अनुभव कर रहे थे। वह अपने आप को सीढ़ियों पर लेटा हुआ भी देख रहे थे। ब्राह्ममुहूर्त्त में स्वामी रामानंद गंगास्नान के लिए आए। सीढ़ियों पर कबीर ने अपने आप को इस तरह समेट लिया कि दिखाई न दें। शरीर पर पड़ा और बोध हुआ कि किसी को चोट लगी है। इस बोध के साथ स्वामी जी के मुँह से ‘राम−राम’ की ध्वनि निकल आई। कबीर ने तत्क्षण उठकर स्वामी जी के पाँव पकड़ लिए और कहा, मैं धन्य हुआ पूज्यवर! मुझे गुरुमंत्र मिल गया।
इस घटना के बाद स्वामी रामानंद ने कबीर को विधिवत् अपना शिष्य स्वीकार किया। काशी के विद्वानों, आचार्यों, साधुओं और महामंडलेश्वरों ने इसका घोर विरोध किया। उन्हें धर्मद्रोही तक करार दिया। रूढ़ियों और परंपरा के प्रति अतिशय आग्रह रखने वाले स्वामी रामानंद पर इसका जरा भी असर नहीं हुआ।
कबीर कपड़ा बुनकर अपना निर्वाह चलाते थे। काम करते हुए ही वे साधकों और जिज्ञासुओं को धर्मोपदेश देते थे। दिखाई दे रहा है कि दसियों लोग उन्हें घेरे बैठे हैं। चर्चा के विषय अध्यात्म तक ही सीमित नहीं हैं, घर, परिवार, समाज और समकालीन घटनाओं पर भी बात−चीत होती है। निर्वाह होने योग्य कपड़ा तैयार हो जाने के बाद कबीर खुद उसे बेचने जाते। कोई मोल−भाव नहीं, जिसने जो मूल्य आँका और देना चाहा, वह ले लिया। फिर घर आ गए। इस तरह के सौदे में कभी घाटा नहीं हुआ।
एक सत्संग में किसी ने पूछा, “कबीर साहब, आपका परिवार बड़ा खुश है। सुखी दाँपत्य का क्या रहस्य है?” सुनकर कबीर कुछ क्षण तक चुप रहे। फिर पत्नी को पुकारा, “लोई, बड़ा अँधेरा है, दीपक जलाकर लाना।” (लोई उनकी पत्नी का नाम था।) सुनने वालों को भारी असमंजस हुआ। भरी दोपहरी का समय था, बीच आसमान में सूरज चमक रहा था। जिस जगह कबीर सत्संगियों के साथ बैठे थे, वहाँ भी पर्याप्त रोशनी थी। अबूझ स्थिति में पड़े लोगों को तब और आश्चर्य हुआ, जब लोई दीपक जलाकर लाई और कबीर के पास रखी एक चौकी पर रखकर चली गई। कबीर ने कहा, “पति−पत्नी में इस तरह का विश्वास हो तो दाँपत्य बड़े मजे से चलता है। लोई भी जानती है कि भरी दोपहरी है और दीपक की जरूरत नहीं है, फिर भी कहा तो उसने संदेह नहीं जलाया। वह कहे अनुसार चुपचाप अपना काम कर चली गई।”
परिवार की आमदनी सीमित थी और आगंतुकों का ताँता लगा रहता था। आने वालों की आवभगत भी होती। घर में हमेशा तंगी बनी रहती। पुत्र कमाल बड़ा हुआ। परिवार में बनी रहने वाली तंगी का अच्छी तरह खयाल था। उसने व्यापार−व्यवसाय में ध्यान दिया। कबीर का जोर वहाँ भी शुद्धता और न्याय की कमाई पर रहता था। पुत्र को व्यावहारिक अध्यात्म की दीक्षा दी। वैसे संस्कार भी दिए। (क्रमशः)