आत्मज्ञान ही अमरत्व का साधन

March 2003

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महर्षि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थीं−मैत्रेयी और कात्यायनी। जब महर्षि ने संन्यास लेना चाहा तो अपनी दोनों पत्नियों को बुलाकर कहा, “हम सब संन्यास लेने वाले हैं, तुम दोनों घर की संपत्ति को आधा−आधा बाँट लो।” यह सुनते ही मैत्रेयी बोल उठी, “देव, क्या इन संपदाओं को प्राप्त कर मैं अमर हो जाऊँगी?” “नहीं।” याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया−”जिस प्रकार धन−संपत्ति वालों का लोभ−मोह से भरा जीवन होता है, देवि, उसी प्रकार का तुम्हारा भी जीवन हो सकेगा।” “तब तो ऐसे धन ही हमें आवश्यकता नहीं।” मैत्रेयी ने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा। पुनः निवेदन किया, “देव, हमें तो अमरत्व का साधन बताइए। हमें धन−संपदा नहीं चाहिए।”

मैत्रेयी के बार−बार आग्रह करने पर महर्षि को विवश होकर अमरत्व का साधन, आत्मकल्याण का साधन बताना ही पड़ा। उन्होंने सूत्र रूप में कहा−

आत्मा वाऽरे मैत्रेयि! द्रष्टव्यः श्रोतव्यों मन्तव्यों निदिध्यासितव्यो। आत्मनों खलु दर्शनेन इदं सर्वं विदितं भवति। (वृहदारण्यक)

हे मैत्रेयी, आत्मा ही देखने योग्य, सुनने योग्य, मनन करने योग्य और अनुभव करने योग्य है। अपने आपको, आत्मा को जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है। यही अमरत्व का साधन है, यही आत्मकल्याण का मार्ग है।

गीताकार ने भी आत्मोत्कर्ष की गरिमा समझाते हुए कहा है−

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनों बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥

अपनी आत्मा द्वारा अपना उद्धार करो, आत्मा को पतित न करो। आत्मा ही अपना बंधु है और आत्मा ही अपना शत्रु है।

व्यक्ति को दुनिया की, विश्व−ब्रह्माँड की यत्किंचित् जानकारी कितना संतोष प्रदान करती है। जान−पहचान के लोगों से मिलने पर कितनी प्रसन्नता होती है। कदाचित् अपने को पहचाना जा सके, आत्मा को जाना जा सके तो कितने महान आनंद की प्राप्ति हो। उपनिषद्कार के शब्दों में अपने आप को जान लेने वाले को ही सर्वोपरि सुख की प्राप्ति होती हैं।

तमात्मस्थं मेऽनुपश्यन्ति धीराः। तेषाँ सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥ (कठ॰ 2/2/12)

उस अपने में स्थित आत्मा को जो विवेकी पुरुष देख लेते हैं, जान लेते हैं, उन्हीं को नित्य सुख प्राप्त होता है, अन्यों को नहीं।

कठोपनिषद् में अन्यत्र कहा गया है−

अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात्प्रमुच्यते। (1/3/15)

उस अनादि, अनंत महत्तत्व से परे तथा ध्रुव आत्मा को जानकार मनुष्य मृत्यु के मुख से छूट जाता है।

इस प्रकार अनेकानेक श्रुतिवचनों द्वारा आत्मज्ञान की गरिमा को प्रतिपादित कर उसे प्राप्त करने की प्रेरणा दी गई है। व्यक्ति को जिसमें अपना लाभ दिखाई पड़ता है, उस कार्य को बड़े परिश्रम, मनोयोग एवं प्रसन्नतापूर्वक संपन्न करता है। यदि आत्मज्ञान के लाभों को जाना जा सके तथा इसे प्राप्त करने का प्रयास किया जा सके तो व्यक्ति धन्य हो जाए।

आत्मा के इस स्वरूप को जानने की लंबी प्रक्रिया है। आत्मनिरीक्षण, आत्मपरिष्कार, आत्मनिर्माण और आत्मविकास की लंबी मंजिल पार करके ही आत्मा के सही स्वरूप का अनुभव किया जा सकता है।

सर्वप्रथम अपने को शरीर से भिन्न होने की धारणा को पुष्ट करना पड़ता है। हम दूसरे हैं और हमारा शरीर दूसरा है। शरीर केवल उपकरण है, साधन है, साध्य नहीं। हम अपनी सारी शक्ति शरीर को ही सुख पहुँचाने में न झोंक दें। शरीर से भिन्न भी कुछ है, वही मैं हूँ। इस प्रकार का बोध हो जाने पर अपने द्वारा किए जाने वाले ओछे कार्यों को छोड़ना पड़ता है। यहीं से आत्मपरिष्कार आरंभ होता है।

दोष−दुर्गुणों के दूर हो जाने पर उनके स्थान पर सद्गुणों, श्रेष्ठताओं का समावेश करना आवश्यक होता है। कषाय−कल्मषों से रहित होने पर शुद्ध अंतःकरण में श्रेष्ठ सद्गुणों की अभिवृद्धि होने लगती है, यही आत्मनिर्माण है। इसके उपराँत आत्मविकास आता है। अपने ही समान सभी प्राणियों को समझाना ही आत्मविकास है। आत्मसात् सर्वभूतेषु का यही आदर्श है।

इसके बाद आत्मज्ञान हो जाता है। आत्मज्ञान प्राप्त होने पर मानव निर्दोष हो जाता है तथा सभी कर्मों के क्षय हो जाने से अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान लेता है। फिर यह अपना है, वह दूसरे का है, ऐसा विचार नहीं आता। ऐसा क्षुद्र विचार तो संकीर्ण हृदय वाले करते हैं, उदारचेता आत्मज्ञानी तो संपूर्ण विश्व को ही अपना परिवार समझते हैं−

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानाँ तु वसुधैव कुटुँबकम्।


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