साधना की सिद्धि− कामनाओं से मुक्ति, आनंद की प्राप्ति

March 2003

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साधना जीवन के स्थायी सुख एवं आनन्द को प्राप्त करने की आध्यात्मिक प्रक्रिया है। इसके अंतर्गत मन की इच्छा-कामनाओं का निग्रह करते हुए कठोर व्रत एवं अनुष्ठान का दीर्घकाल तक अभ्यास किया जाता है। जीवन में सुख और आनन्द को पाने की ये साधनात्मक प्रक्रियाएं ठोस मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं, जिन्हें आसानी से समझा जा सकता है।

जीवन का यह एक शाश्वत सत्य है कि हर प्राणी सुख की खोज में भटक रहा है, किन्तु स्थायी सुख किसी को प्राप्त नहीं होता। ज्यों ही प्राणी सुख का स्पर्श करते हैं, त्यों ही यह अभाव में विलीन हो जाता है। महाकवि कीट्स ने ठीक ही फरमाया है कि जिस तरह बूँद पड़ते ही उसके धक्के से पानी का बुलबुला फूट पड़ता है, उसी तरह स्पर्श मात्र से ही सुख अभाव में विलीन हो जाता है। जब हमें मनचाही वस्तु प्राप्त हो जाती है तो हम खुशी से फुला नहीं समाते और इसके हाथ से छूटते ही शोकातुर हो जाते हैं। इतना ही नहीं, मनचाही वस्तु की प्राप्ति होने पर भी खुशी की स्थिति अधिक देर तक नहीं बनी रहती और मन में फिर बेचैनी पैदा हो जाती है। इस दशा का सारगर्भित चित्रण करते हुए मनीषी शॉपेन हॉवर ने कहा है कि मानव का मन सदा क्लान्ति और दुःख के बीच झूलता रहता है। इस स्थिति से उबरने के लिए भौतिकवादी विचारकों का कहना है कि मनुष्य को सदा अनेक प्रकार के सुखों का संग्रह करते रहना चाहिए। हमें स्वयं को संसार के हजारों कार्यों में इतना व्यस्त रखना चाहिए कि हमें सुख और दुःख के सम्बन्ध में सोचने का अवसर ही न मिले। वरट्रैण्ड रसेल ने अपनी पुस्तक ‘कॉक्वेस्ट ऑफ हैपिनेस’ में इसी तथ्य का प्रबल प्रतिपादन किया है। यही 12 वीं सदी इंग्लैण्ड में वैन्थम महोदय द्वारा प्रचलित सिद्धान्त रहा है। इसकी सामयिक उपयोगिता के बावजूद यह गम्भीर त्रुटियों से ग्रस्त सिद्धान्त है। इस तरह की भौतिकवाद को इंग्लैण्ड के ही प्रसिद्ध लेखक कालिर्थन ने शैतान का राज्य तक की संज्ञा दी है। जो कि कभी तुष्ट न होने वाले भौतिक सुखों के अपरिमित संग्रह का सहज परिणाम है।

इसके विपरीत सुख एवं आनन्द का ठोस आकार आध्यात्मिक दर्शन में सुख भोगों का अधिकाधिक संग्रह नहीं है, बल्कि इनका संयम एवं विवेकपूर्ण उपयोग करते हुए इनका त्याग है। संयम एवं त्याग मूलक साधना ही स्थिर सुख एवं शान्ति का द्वार खोलता है। प्रख्यात मनोविद विलियम जेम्स ने इस तथ्य को गणितीय सूत्र के द्वारा स्पष्ट किया है- संतोष या आनन्द, आशा या तृष्णा। इस तरह यदि हमारी आशा या तृष्णा बढ़ी-चढ़ी है तो कितनी भी उपलब्धि या लाभ के बावजूद आनन्द की मात्रा न्यून ही रहेगी और यदि आशा न्यून है तो हल्की-फुल्की उपलब्धियाँ भी बड़े संतोष का कारण बनेंगी और यदि आशा शून्य है तो आनन्द अनन्त गुना हो जायेगा। अर्थात् जिसे ब्रह्मानंद कहा गया है उसकी प्राप्ति इस सूत्रानुसार तृष्णा का आशा के शून्य होते ही सिद्ध होती है।

साधना मन की इस आशा या तृष्णा को शून्य की ओर ले जाने की प्रक्रिया है। आशा या तृष्णा मन की तरंगें हैं। विचलित मन आशा और तृष्णामय होता है। प्रशान्त मन आशा और तृष्णा रहित होता है। नित्य की साधना मन की इसी प्रशान्त स्थिति को प्राप्त करने का अभ्यास है। गीताकार ने यह स्पष्ट किया है कि मन का निग्रह बहुत कठिन है, क्योंकि इसका वेग वायु के समान है, किन्तु नियंत्रण सम्भव है और इसके लिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अभ्यास और वैराग्य का उपदेश देते हैं।यह भी वस्तुतः साँसारिक आसक्ति, आशा एवं तृष्णा को शून्य की ओर ले चलने का ही प्रतिपादन है।

साधना के अंतर्गत अभ्यास का अपना गहरा मनोवैज्ञानिक आधार है, जिसे जीवन के सामान्य क्रम में ही देखा एवं समझा जा सकता है। शेर वर्षों तक पिंजड़े में ही रहता है, वह पिंजड़े का दरवाजा खुलने पर भी पिंजड़े से बाहर नहीं भागता। यदि उसे बाहर निकाल भी दिया जाय तो वह पुनः पिंजड़े में ही घुसता है। जिन कैदियों की सारी उमर कैद में ही बीतती है, वे कैद से मुक्त होने पर कैद में जाने के लिए तरसते हैं। इस तरह मन अभ्यास का अनुवर्ती है। यह दीर्घकालीन अभ्यास के द्वारा स्वतः ही इच्छानुरूप ढल जाता है। साधना के अंतर्गत मन को उपरोक्त सूत्र के अनुरूप कठोर अभ्यास द्वारा उपयुक्त साँचे में ढाला जाता है। यही साधना का मर्म है। इसी आधार पर गीता मानव को यह शाश्वत संदेश देती है कि जो व्यक्ति (साधक) मन को साधना द्वारा शान्ति, अशान्ति, मान-अपमान, सुख-दुःख में निर्लिप्त बना लेता है वही निर्विघ्न शान्ति का अधिकारी है। जो व्यक्ति काम-क्रोध के वेगों को सह सकता है, वही वास्तविक सुखी है।

साधना के अभ्यास द्वारा ही जो व्यक्ति मन को दुःखों को सहने के लिए पहले से ही तैयार कर लेता है, वह दुःखों के आने पर विचलित नहीं होता। जीवन में परिस्थितियों के उतार-चढ़ाव सदा होते ही रहते हैं, जो इन परिवर्तनों के लिए मन को पहले ही साधना द्वारा अभ्यस्त कर लेता है, वह इन परिवर्तनों के आने पर डरता नहीं, ना ही किसी प्रकार के उद्वेग को प्राप्त होता है। ऐसा ही साधक एकरस आनन्द और शान्ति को प्राप्त कर पाता है। ऐसा ही व्यक्ति अध्यात्म तत्त्व का वास्तविक चिंतन कर सकता है। सत्यान्वेषण के लिए मन का अनुद्विग्न होना आवश्यक है; बिना मन को वश में किये सत्य का चिंतन सम्भव नहीं। अतः मन को वश में करने की साधना ही सत्य की प्राप्ति का एकमात्र उपाय है।

उच्च आध्यात्मिक उपलब्धियों को प्राप्त करने वाले महान् साधकों का जीवन साधना के कठोर प्रतिमानों से होकर गुजरता है। कई बार ये अभ्यास चित्र-विचित्र रूप तक ले लेते हैं। यूनान के प्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता डायोजिनीज का जीवन एक ऐसा ही उदाहरण है। वह अपना जीवन एक नाद में ही बिता लेता था, वह रहने के लिए घर बाँधना आवश्यक नहीं समझता था। एक बार किसी युवक ने उसे काफी देर तक एक पत्थर की मूर्ति से भीख माँगते देखा। युवक की जिज्ञासा स्वाभाविक थी। इसे शान्त करते हुए डायोजिनीज ने स्पष्ट किया- ‘मैं इस मूर्ति से भीख माँग कर, भीख न मिलने पर मन को शान्त एवं अविचलित रखने का अभ्यास कर रहा हूँ।’ इसी तरह श्रीरामकृष्ण एक हाथ में पैसा और दूसरे में मिट्टी लेकर ‘टाकामाटी-टाकामाटी’ कहते हुए दोनों को फेंक देते थे और काँचन को मिट्टीवत् मानते हुए तृष्णा से निर्लिप्त रहने का अभ्यास करते थे। इसी तरह किसी भी विषय-वस्तु एवं साँसारिक भोगों की आत्याँतिक अपूर्णता को समझते हुए, मन को इसके प्रति राग, आसक्ति एवं ममत्त्व को क्रमशः अभ्यास द्वारा ही क्षीण करते हुए अपने ईष्ट, आध्यात्मिक सत वस्तु एवं उच्चतर लक्ष्य पर केन्द्रित किया जाता है। शमन-दमन एवं तप-तितिक्षा द्वारा मन का यह अभ्यास साधना का अभिन्न अंग है जो क्रमशः साधक को स्थिर सुख-आनन्द एवं शान्ति की ओर ले जाता है।

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के बीच यह एक भ्रान्ति व्याप्त है कि मन पर हठपूर्वक किया गया अभ्यास लाभकारक नहीं बल्कि घातक है। यह कई शारीरिक और मानसिक रोगों का कारण बनता है। हमारी आन्तरिक इच्छाओं का अवरोध हमारे अदृश्य मन में अनेक तरह की गम्भीर ग्रन्थियों (काम्पलेक्शन) को उत्पन्न करता है, जिनके कारण बेचैनी, विस्मृति, उन्माद, हिस्टीरिया जैसे रोग पैदा हो जाते हैं। अतः इन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हमारी निम्न वृत्तियों का दमन हानिकारक है।

यह कथन पूर्ण सत्य से दूर है। उपरोक्त समस्याएँ तब पैदा होती हैं, जब निम्न वृत्तियों को अविवेकपूर्ण दबाया जाता है। विवेकपूर्ण निम्न वृत्तियों का दमन सामयिक भ्रान्तियों का कारण तो बन सकता है किन्तु घातक रोगों को जन्म नहीं देता। विवश होकर प्रतिकूल वातावरण के कारण जो इच्छाएँ तृप्त नहीं होती, वे ही उन्माद आदि का कारण बनती हैं। स्वेच्छा से किया गया आत्मनियंत्रण कभी आत्मघाती नहीं हो सकता।

आज मनोविज्ञान की प्रगति के साथ यह भी स्पष्ट हो रहा है कि जो अपनी नैतिक बुद्धि (सुपर-इगो) की आज्ञा की अवहेलना करता है, उसे भी अनेक प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग होते हैं। आत्मा की अन्तर्ध्वनि को कुचलकर किया गया दुष्कृत्य, कुकर्म व्यक्ति को गहन आत्मप्रताड़ना एवं अशान्ति के दौर से गुजारता है। अतः पाप के दुःखदायी एवं पुण्य के सुखदायी होने के पीछे भी मनोवैज्ञानिक सत्य निहित है।

मन को सीधे गतिहीन करना या शून्यता में विलीन करना भी सम्भव नहीं है। मन जब तक मन रूप में है, तब तक वह गतिशील ही रहेगा। इन वृत्तियों कर निरोध ही योग सूत्रों में योगाभ्यास का लक्ष्य बताया गया है-‘योगश्चित्तवृत्ति निरोधः, तदा द्रष्टः स्वरुपेऽवस्थानम्।’ अर्थात् जहाँ चित्तवृत्ति का निरोध हुआ कि आत्मस्वरूप की प्राप्ति निश्चित ही है। किन्तु मन का यह निग्रह समय साध्य है और यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की सीढ़ियों को पार करते हुए ही क्रमशः इसके निरोध की चरम समाधि अवस्था को प्राप्त किया जाता है।

जब तक मन का विलय परमात्मा तत्त्व में नहीं हो जाता अर्थात् उसका पूर्ण रूपांतरण नहीं हो जाता, उसका चंचल होना व इधर-उधर दौड़ना स्वाभाविक है। इसी मनोवैज्ञानिक सत्य को समझते हुए गीताकार ने मन को वश में करने का श्रेष्ठ उपाय कर्मयोग और भक्तियोग को बतलाया है। इसके अनुसार मन को वश में करने का सरल उपाय उसे अखिल विश्व में व्याप्त परमात्म तत्त्व के हेतु निरन्तर श्रेष्ठ कार्यों में लगाए रखना है। साधना के अनुरूप क्रमशः मन ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है, अद्वैत स्थिति की ओर अग्रसर होता है, व स्वतः अपनी निम्न इच्छा, वासनाओं एवं कामनाओं से मुक्त होने लगता है और उसी अनुपात में स्थायी सुख-शान्ति और आनन्द को प्राप्त होने लगता है।


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