प्रार्थना बीज है, भजन वृक्ष

March 2003

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प्रार्थना परमात्मा के प्रति अन्तर की सघन एवं व्याकुल पुकार है। भजन इस आर्त पुकार की अभिव्यक्ति है। प्रार्थना शान्त, निस्पन्द मानसरोवर है तो भजन इस झील से निकलने वाली जलधाराएँ है, जिसकी हर बूँदों में नृत्य की थिरकन होती है। अन्ततः सरोवर भी सूर्य की रश्मियों के संग आकाश में खो जाता है और नदी भी समुद्र में गिरकर, सूर्य किरणों में चढ़कर व्योम में विलीन हो जाती है। प्रार्थना की भी मञ्जिल वही है जो भजन की है, परन्तु मार्ग अलग है, द्वार अनेक हैं।

प्रार्थना बीज है, भजन वृक्ष। प्रार्थना कली है, भजन पुण्य, प्रार्थना सद्चिंतन है, भजन सद्कर्म। प्रार्थना में प्रभु के प्रति गहन आत्मीयता, तीव्र तड़पन है तो सही पर शान्त एवं निष्क्रिय। प्रार्थना का यह निष्कम्प स्वरूप भगवान महावीर, तथागत बुद्ध, लाहिड़ी महाशय, श्रीअरविन्द, रमण महर्षि आदि सन्त, अवतारी पुरुषों में परिलक्षित होता है। प्रभु के प्रति इनका प्रेम गहन शान्ति में उठा या फैला था एवं विस्तार पाया था। शान्ति निरव तो होती है परन्तु निष्क्रिय नहीं। इसमें तलवार के समान पैनी धार होती है। प्रार्थना इसी शान्ति एवं निरवता में ही गतिमान होती है। इन सन्त-महात्माओं के भीतर जब यह प्रेम का प्रवाह सम्भला हुआ शान्त था तो प्रार्थना था, पर जब यह बाहर बहने लगा, उमड़ने लगा तो भजन बन गया। मीरा, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस में अन्तर की यह निस्पन्द छलक गयी थी और भजन बन गयी थी। वे झूमने लगे थे, नाचने लगे थे। अतः भजन को प्रार्थना की अभिव्यंजना माना जाता है।

प्रार्थना प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम है, जिसे बड़े ही यत्नपूर्वक, प्रयासपूर्वक सहेज-सँवारकर रखा जाता है। प्रार्थना करने वाला तो बस यह जानता है कि वह कर रहा है। वह तो यह भी नहीं देखता कि जिसे वह प्रेम कर रहा है वह उसे देख, जान-समझ रहा है कि नहीं। अगर वह ऐसा करने लगे तो फिर यह प्रेम न होगा, सौदेबाजी होगी, व्यापार होगा। प्रेम तो केवल एकतरफा होता है। उसे क्या जरूरत किसी को कहने की, क्या आवश्यकता किसी को बताने की। कहना क्या, होना काफी है। बोलना क्या, जानना पर्याप्त है। परन्तु वह प्रेम जब प्रकट होता है तो भजन बन जाता है। यह कभी गीत में फूट पड़ता है, वाणी में मचल उठता है, आँखों की भाव व्यंजना में छलक पड़ता है। जब प्रकट होता है तो फूल खिल जाते हैं, कली-कली नहीं रह जाती। समूचा वातावरण दिव्यत्व से ओतप्रोत हो जाता है, सुरभित हो उठता है।

रमण महर्षि ने प्रार्थना को अपनाया, भगवान महावीर ने मौन हो इसे स्वीकारा। उन्हें कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने अपने शून्य और मौन में परमात्मा को साथ लिया था। परन्तु मीरा, चैतन्य, नानक को इतना ही पर्याप्त नहीं था। जितना है उससे और अधिक की आवश्यकता थी। जब तक उनके ऊपर से जलधारा कहने न लगे, जब तक उनका पात्र भर कर बाहर उलीचने न लगे, तब तक पर्याप्त नहीं था। प्रार्थना में जो अन्दर ही अन्दर बना रहता है, छलकता नहीं भजन से बहने लगता है। अतः भजन एक बहाव है, एक प्रवाह है। मीरा की स्वर लहरी में, चैतन्य की अलमस्त थिरकन में भजन अभिव्यक्त होता है।

प्रार्थना भी शुभ है, भजन भी श्रेष्ठ है। प्रभु प्रेम को भीतर सहेज कर रखना भी उत्तम है और उसे बाँटना भी सुन्दर है। दोनों अतुलनीय, अनुपम हैं। किसी से कोई तुलना नहीं क्योंकि दोनों की राह बस उसी एक प्रभु के द्वार की ओर जा रही है। प्रार्थना रूपी बीज भी अच्छा है क्योंकि फूल उसकी अभिव्यक्ति है और भजन रूपी फूल भी सुन्दर है क्योंकि इसी में बीज बनते हैं, उसका निर्माण होता है। दोनों जुड़े हैं, सम्बन्धित हैं। दोनों सर्वोत्तम हैं, उत्कृष्ट हैं।

प्रार्थना धन्यवाद है और भजन अहोभाव। प्रार्थना करने वाला मंत्र गुहार लगाता है हे प्रभु! तुमने जो दिया है, वह बहुत है। तुमसे जो मिला, जितना भी मिला उसी में परम संतोष है, परम आनन्द है। जो पाया है उसमें गहन तृप्ति है। परन्तु भजन की मस्ती कहती है- हे प्रभु! तुमने जो दिया, वह आवश्यकता से अधिक है, जरूरत से कहीं ज्यादा है। जो अधिक है, जो ज्यादा है वह हमसे सम्भाले नहीं सम्भलता। इसे बाँटना है, लुटाना है, बिखेरना है ताकि सभी में इस मस्ती की खुमार चढ़ने लगे। सभी इस आनन्द में निमग्न हो जायँ, और मस्त हो नाचने लगे। इसलिए तो भजन नाचता है, केवल कहता नहीं। भजन बोलता है अनबोला नहीं है। इसी में ही भजन का अपना सौंदर्य निखरता है।

प्रार्थना का सौंदर्य भी निराला है। यह अनबोला बोल है, अनगाया गीत है, अनछुआ स्पर्श है। यह चित्रकार की कल्पना में छुपा वह चित्र है जो अभी कैनवास पर उतरा नहीं, उकेरा गया नहीं, पत्थर में दबी-छुपी वह सुन्दर मूरत है जिसे मूर्तिकार की छैनी से काटा नहीं गया है, तराशा नहीं गया है। भजन चित्रकार द्वारा पूर्ण किया गया रंग भरा हुआ चित्र है। तुलिका अपने रंग भरने में एवं छैनी मूर्ति तराशने में अपना काम कर चुकी होती है। भजन कवि की कविता है जो कल्पनाओं एवं भावनाओं के लोक से उतर आयी है। भजन गाया हुआ गीत है।

कविवर रवीन्द्रनाथ भी अपने लिखे गीतों को गाना चाहते थे। उन्हें गाने की बड़ी इच्छा थी और न गा पाने की एक कसक और तड़प रह गयी थी। उनके जीवन के अन्तिम दिनों में उनके एक मित्र ने कहा-‘तुम धन्य हो! तुम्हारा जीवन धन्य है। तुमने जीवन भर गीत गाया। इतना तो किसी कवि ने नहीं गाया। पश्चिम के महाकवि शैली के तो केवल तीन हजार गीत हैं। तुमने तो छः हजार गीत गाये।’ यह सुनकर रवीन्द्रनाथ ने कहा-मैं जो गीत गाना चाहता था, वह अभी तक नहीं गा सका हूँ। वह अनगाया गीत अभी भी मेरे भीतर बीज की तरह सुषुप्त पड़ा है, जाग्रत् नहीं हुआ है। वह जो मैंने छः हजार गीत गाये, वे मेरे असफल प्रयास हैं, प्रभु के एक गीत गाने के लिए। जैसे मैं गाना चाहता था गा न सका और जो गाया वे मेरी असफलता की व्यथा-कथा है। मैं अब भी कोई गीत गा न सका। मैं बिन गाया पड़ा हूँ और मुझे अब जाना है। कविवर रवीन्द्र बादल फकीर की तरह इकतारा लेकर नाचना-गाना चाहते थे।

भजन मुखर होता है, प्रार्थना मौन। प्रार्थना के पुजारी सूफी सन्तों ने कहा है कि प्रार्थना निरवता में, गहन एकान्त में होती है, सधती है। प्रार्थना होती है, इसका शीतल स्पर्श का अनुभव होता है पर यह दिखती नहीं है। यह दिखावा नहीं है। दिखाने से प्रदर्शन झलकता है और प्रदर्शन में आत्मघाती अहंकार का जन्म होता है। अहंकार के प्रादुर्भाव होते ही प्रार्थना विनष्ट हो जाती है, उसका उद्देश्य एवं लक्ष्य भटक जाता है। इसलिए प्रार्थना मौन है, नीरव है, दिखावा एवं आडम्बर नहीं।

भजन खुले चौराहे पर उतर आता है। वह कहता है कि-पने चले तो क्या और न चले तो क्या ? प्रभु का नाम सुनते ही रामकृष्ण परमहंस जहाँ होते वहीं पर नाच पड़ते थे, भाव मग्न हो जाते थे। भजन करने वाला प्रभु अर्पित नृत्य में ही अहंकार को गिरा देता है। उसी में उसका अहंकार गल जाता है, मिट जाता है। अतः प्रार्थना में अहंकार विनष्ट होता है और भजन में भी छुट जाता है, गिर जाता है। प्रभु प्राप्ति के लिए दोनों पथ वरेण्य है बल्कि दोनों के समन्वय से भी बढ़ा जा सकता है।

दोनों की संगति इसलिए कि प्रार्थना उच्चस्तरीय चिंतन है, दिव्य अभीप्सा है और भजन प्रभु अर्पित किया हुआ सद्कर्म है। उच्चस्तरीय चेतना की अभीप्सा भी हो और सद्कर्म भी सधता रहे तो अनन्त की यह यात्रा तीव्रतर एवं वेगवान हो जाती है जो किया जाय सब प्रभु के लिए और जो सोचा-विचारा भी जाय तो एक उसी के लिए। चिंतन में भी वही विचरता रहे, कर्म में भी वही झरता रहे। ऐसे सद्चिंतन और सद्कर्म में प्रार्थना और भजन दोनों एक ही साथ जाते हैं, समन्वित हो जाते हैं। अतः सदैव उत्कृष्ट चिंतन की अभीप्सा तथा सद्कर्म में निरत-निमग्न रहना चाहिए। यही प्रार्थना और भजन का मर्म है।


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