अपनों से अपनी बात - एक यक्ष प्रश्न : इन कार्यों को आप कब गति देंगे

March 2003

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इस वर्ष की त्रिविध योजना समझें, अपना दायित्व सँभालें

संक्राँतिकाल से गुजर रही सारी विश्व−वसुधा आज साँस्कृतिक−आध्यात्मिक स्तर पर किए जा रहे उन क्रियाकलापों को निहार रही है, जो भविष्य का निर्धारण करेंगे। परिवर्तन सुनिश्चित है। इन्हीं दिनों होना है, यह भी निश्चित है। स्रष्टा का संकल्प भी मुखर होता जा रहा है, किंतु साथ ही बाजारवाद−उपभोगवाद पर टिकी सभ्यता एवं संवेदनामूलक आध्यात्मिक मूल्यों से बनी संस्कृति का संघर्ष भी साफ दिखाई दे रहा है। मूल्यों को खोकर बाजार में मूल्य पाना, यह आज सभ्यता सिखा रही है। पैसा ही सब कुछ है एवं यदि विज्ञान के साधन हमें सुख दे रहें है तो मूल्य रहित जीवन जीकर व्यक्ति उद्विग्नता, तनाव, बेचैनी, व्याधियों का शिकार होना अधिक पसंद कर रहा है। इसे विधि की विडंबना कहें या असुरता का कुचक्र, चारों ओर

नंगा नाच ही दिखाई पड़ता है। सभी कुछ तो वैश्वीकरण की बलि चढ़ गया है। हमारी अपनी मूल धरोहर वनौषधियां, जल−मिट्टी−फसल ही नहीं, वेद जो धर्म के मूल हैं, उन्हें जन्म देने वाला गायत्री मंत्र तक पेटेंट किया जा रहा है। शिक्षा अब जनसामान्य के लिए नहीं रही। मात्र पैसे वाले ही पढ़ सकते हैं। गरीबों की अब यह रही नहीं।

कहाँ जाकर रुकेगा यह क्रम, कुछ समझ में नहीं आता। पिछले दिनों प्रदूषण व ऋतु विपर्यय की मार के चलते आधा भारत कुहासे की चपेट में आ गया। सूर्योदय होकर अस्त भी हो गया, पर प्रायः तीन सप्ताह से अधिक की नववर्षारंभ की अवधि ऐसी बीती कि दिन भर पास का भी ठीक से नहीं दीख पाया। यही कुहासा लगता है, सारी मानव जाति पर, उनके चिंतन पर छा गया है। भ्राँतियाँ ही जोर मारती दिखाई देती हैं। दूरदर्शिता, समझदारी, ज्ञान की बातें लोगों को रुचिकर नहीं जान पड़तीं।

समाधान एक ही है, देवसंस्कृति। जो मानव में देवता बनाने वाले मूल्यों को विकसित करे, वह भारतीय संस्कृति। इसी से पारिवारिक प्रधान समाज पुनः बन पाएगा एवं विश्व−वसुधा एक वृहत् कुटुँब की तरह रह सकेगी। इंटरनेट ने एक ‘वेबवर्ल्ड’ बना डाला, ग्लोबल छाते के नीचे एक ग्राम बना दिया, जिसकी परिधि में पूर विश्व आ गया, पर यह मूल्यप्रधान नहीं था, यंत्र प्रधान एवं बाजारवाद प्रधान था। इसीलिए जानकारी के आदान−प्रदान तक तो ठीक है, पर विश्व को एक परिवार बनाने का कार्य इससे न हो पाया, न हो पाएगा। वह तो वैदिक सूक्त ‘अयं निजः परो वेति.....’ के आधार पर ही हो पाएगा। हमें सभ्यता से संस्कृति की ओर, वैश्वीकरण से स्वदेशी की ओर, शहरों से गाँवों की ओर, बहिर्मुखी बाजारवादी जीवन से पारिवारिक जीवन की ओर तथा शिक्षा से विद्या की ओर वापसी की यात्रा करनी होगी। यह कार्य विज्ञान और अध्यात्म के परस्पर अन्योन्याश्रित समन्वय की धुरी पर स्थापित होगा एवं इसे आज के बालकों−कल की युवा पीढ़ी संपन्न करेगी। हमारे राष्ट्रपति महामहिम ए0 पी0 जे0 कलाम ने अकारण ही इस शिशुवर्ग को अपना लक्ष्य नहीं बनाया है। इसके पीछे दूरदृष्टि है, 2015-2020 के बीच भारत को हर दृष्टि से विकसित कर विश्व के महानायक के रूप में स्थापित करना।

हमें पाठक के नाते क्या करना होगा? हमें उत्प्रेरक की भूमिका निभानी होगी। युग निर्माण योजना को जन्म तो महाकाल की सत्ता ने, ऋषियों की हिमालय स्थित संसद ने दिया है, किंतु इसमें कार्य करने का समय हमारे लिए अब आया है। अभी तक तो छावनी में रसदपूर्ति, सेना की रगड़ाई−कवायद आदि जैसे कार्य चल रहे थे। अब मोरचे पर चलने का समय आ गया। वासंती उल्लास बार−बार अंदर से यही उछाल मार रहा है। यदि इन पंद्रह−सत्रह वर्ष में काम हो गया तो समझ लेना चाहिए कि भावी पीढ़ी के लिए सतयुगी सपनों का महल खड़ा हो गया।

इन दिनों दो कार्य हम सब परिजनों की हर कार्य की मूल धुरी में होने चाहिए, वह है जीवनसाधना का निखार एवं दूसरा विद्याविस्तार। जीवनसाधना हर पल की होती है। उपासना−अजान−प्रेयर−अरदास थोड़ी देर की, कुछ पल से कुछ घंटों की हो सकती है, पर साधना तो हर श्वास में जी जानी चाहिए। साधना का अर्थ है−अपने आप पर अपना स्वयं का नियंत्रण, अपने आपे को खुद साधना, क्षरित हो रही वृत्तियों पर कठोरता से अंकुश लगाना। इसी को संयम कहा गया है एवं संयम−साधना शब्द एक साथ प्रयुक्त होता है। समय, अर्थ, इंद्रिय एवं विचारों का−चार संयम किए जाते हैं, तब जीवन देवता प्रसन्न होते हैं एवं कल्पवृक्ष की तरह मनोकामना पूर्ण करते हैं। अपने पर कड़ी दृष्टि, स्वयं को जिम्मेदार नागरिक मानकर हर त्रुटि की (अपनी स्वयं की) समीक्षा, अवलोकन, सुधार एवं नई आदतों का, अच्छी आदतों का निर्माण−यह हम सबका, जिन्हें युग−नेतृत्व सँभालना है, अब अनिवार्य दायित्व है। जितना यह निखरेगी, उतना ही आत्मसंतोष एवं लोक−सम्मान मिलेगा। दैवी अनुग्रह तो बरसेगा ही।

जीवनसाधना को निखारता है स्वाध्याय। स्व का पर्यवेक्षण−अध्ययन एवं श्रेष्ठ विचारों में सतत् स्नान। व्यक्तित्व अच्छे विचारों से स्नात रहेगा तो विचार स्वतः ही विधेयात्मक−सुगढ़ होते चले जाएँगे। स्वाध्याय का एक अच्छा तरीका है विद्याविस्तार योजना का स्वयं को एक अंग बना लेना। जो भी पुस्तक या पत्रिका या ऑडियो बुक या कैसेट औरों को देना, पढ़ाना, सुनाना है, उसे पहले स्वयं पढ़ना, अच्छी तरह से उसे गुनना। जितना अधिक मनन किया जाएगा, उतना ही अपना विश्वास प्रचंड हो जाएगा एवं गुरुवर के विचारों की आग सतत सक्रिय बनाती रहेगी। मन उल्लसित, तनावमुक्त रहेगा।

अब इन विचारों की आग औरों तक पहुँचानी है। ज्ञानयज्ञ से बड़ा पुण्य कोई है नहीं। चाहे वे स्टीकर्स हों, चाहे सौजन्य से छपाए जा रहे फोर्ल्डस−परचे हों अथवा छोटी−छोटी किताबें, जहाँ तक हो सके जन−जन तक पहुँचाए जाने चाहिए। बड़ा ही अनमोल खजाना मिशन के पास परमपूज्य गुरुदेव के विचारों के रूप में है। वह साहित्य के भिन्न−भिन्न रूपों−ब्रोशर्स, आडियो, वीडियो कैसेट्स एवं वी0 सी0 डी0 तथा स्टीकर्स आदि रूपों में है। वह जन−जन तक भिन्न−भिन्न भाषाओं में पहुँचना चाहिए। इस साधना−संगठन−सशक्तीकरण वर्ष के उत्तरार्द्ध में यदि झोला पुस्तकालय, ज्ञानरथ, वीडियो रथ पुनः गति पकड़ लें तो आनंद ही आ जाए। पतन−निवारण की सर्वश्रेष्ठ सेवा इससे होगी।

अब इन दो मूल कार्यक्रमों की धुरी पर इस वर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है। वह है रचनात्मक पीठों का निर्माण एवं रचनात्मक दीपयज्ञ, महायज्ञ, महासम्मेलनों के आयोजन। हमारा देवसंस्कृति विश्वविद्यालय इस रचनात्मक अभियान हेतु ही ड्डद्गष्द्बड्ड हुआ है। उसका लक्ष्य ही है देवमानवों का निर्माण एवं उनके द्वारा राष्ट्र का साँस्कृतिक नवोन्मेष। शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन एवं पर्यावरण ग्राम विकास आपदा प्रबंधन, ये चार कार्यक्रम इसीलिए साधना की धुरी पर इस विश्वविद्यालय ने लिए हैं।

हमें अनौपचारिक शिक्षा का, विद्या व शिक्षा के सार्थक समन्वय का मॉडल खड़ा करना है। नूतन शिक्षापद्धति इसके लिए बनानी होगी। जिन−जिन स्थानों पर भारतीय इसके लिए संस्कृति ज्ञान परीक्षाएँ हुई, वहाँ संस्कृति मंडलों का निर्माण व उनके द्वारा हर विद्यालय में, महाविद्यालय में मूल्य आधारित शिक्षा का प्रचार−प्रसार आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। साँस्कृतिक चेतना भी इससे गति पकड़ेगी। स्वास्थ्य की दृष्टि से प्राकृतिक, वनौषधिप्रधान एवं वैकल्पिक चिकित्सापद्धतियों का प्रशिक्षण अब स्थान स्थान पर देना होगा। स्थान−स्थान पर स्मृति उपवन लगाना अब जरूरी है, जहाँ जड़ी बूटियों की धरोहर रूप में पितरों की स्मृति सुरक्षित रखी जा सके। अस्पताल बनाया जाना उतना जरूरी नहीं, जितना सही जीवनशैली सिखाने वाले स्वास्थ्य संवर्द्धन केंद्र अनिवार्य हैं।

हमारा स्वावलंबन स्वदेशी पर आधारित है एवं ग्रामों की ओर पुनः लौटाने की नीति पर टिका है। गोवंश को जीवित रखना व उसी आधार पर गाँवों का उत्कर्ष वापस लौटा लाना एक ऐसा पुरुषार्थ है, जो भारत की अर्थव्यवस्था को शीर्ष पर पहुँचा सकता है। गौ उत्पादों एवं वनौषधि को साथ जोड़कर ग्रामोद्योगों की शृंखला खड़ी की जा सकती है। बेरोजगारी का उन्मूलन इसी से होगा। शहरीकरण, औद्योगीकरण− अपराध एवं प्रदूषण का उपचार यही है कि गाँवों को स्वस्थ−स्वावलंबी बनाया जाए। इसी के साथ पर्यावरण भी सुधरेगा एवं ग्राम विकास, ग्राम आपदा प्रबंधन योजनाएँ साकार होकर ग्रामतीर्थ अभियान को गति देंगी। 2005 के अंत तक पूरे भारत के प्रायः साढ़े आठ सौ जिलों के पंद्रह हजार ब्लॉक, तहसीलों में हमें एक एक ग्रामतीर्थ−रचनात्मक केंद्र खड़ा कर देना है।

वसंत पंचमी से होली तक का पूरा समय वासंती उमंगों से भरा माना जाता है। इस चालीस दिन की अवधि में मन तरंगित रहता है एवं नए नए संकल्प मन में उभरने लगते हैं। इस अवधि में यही संकल्प लिए जाएँ, जो बताए गए एवं इन्हें अप्रैल की चैत्र नवरात्रि में पका लिया जाए तो इससे बड़ी समझदारी क्या होगी।


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