लगभग दो हजार वर्ष पूर्व एक बौद्ध मतावलंबी संत ज्ञानार्जन के लिए भारत आया। उसने अनेक विद्यापीठों और विश्वविद्यालयों में रहकर भारतीय दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। वह आया तो केवल कुछ ही समय के लिए था, किंतु जब उसमें उसे भारतीय ज्ञान के स्तर खुलते मिले, तब उसकी ज्ञान−जिज्ञासा इतनी बलवती हो उठी कि भारत में जमकर लगभग बारह साल तक दर्शन का अध्ययन पूरा करने के बाद वह अनेक दुर्लभ ग्रंथों की पाँडुलिपियाँ अपने साथ लेकर अपने देश चीन लौट चला। वह नाव द्वारा जलमार्ग से अपने देश चीन को वापस जा रहा था। लगभग आधी यात्रा के बाद तूफान आ गया। नाव में पानी भर गया और वह बोझिल होकर बैठने लगी।
उस संत के साथ वाले भारतीय छात्र उस आसन्न अंत के समय भी अधीर न होकर ज्ञानग्रंथों तथा विद्यान अतिथि की रक्षा का उपाय सोचने लगे। पूछने पर मल्लाह ने बतलाया कि यदि एक−आध को छोड़कर बाकी सब लोग नाव को रिक्त कर दें तो नाव पार लग सकती है। बस, फिर क्या था, सारे छात्रों ने सिंधु के अथाह जल में कूदकर आत्मबलिदान कर दिया।
समाज, देश और संस्कृति के ऐसे रक्षक ही जनमानस के सच्चे प्रेरणा−स्त्रोत हैं। इनकी परमार्थ निष्ठा से ही समाज और संस्कृति सुविकसित होती, फूलती और फलती हैं।