एक बार एक वयोवृद्ध को, जो अन्य कार्यों से निवृत्त हो व्यर्थ में समय नष्ट करता था |एक दिन एक साधु ने समझाया, “तात्, अब तुम्हें लोक−कल्याण की साधना में जुट जाना चाहिए, घर का मोह त्यागकर समाज को अपने अनुभवों का लाभ और लोकश्रद्धा का आनंद लेना चाहिए।” लेकिन बुड्ढे के मन में नाती−पोतों का मोह समाया था, बोला, “महात्मन्, मेरे बिना बच्चे कैसे रहेंगे?” वृद्ध घर लौटा। वृद्धावस्था का शरीर, रात नींद जल्दी टूट गई। उसे लगा बगल के कमरे में कोई बात कर रहा है। ध्यान देकर सुना तो पता चला उसी का लड़का और बहू बात कर हरे हैं, “बुड्ढा दिन−रात खाँसता रहता है, मरता भी नहीं,अपनी टाँग अड़ाता रहता है।” यह अपमान सुनकर बुड्ढे को समझ आई और तब उसने घर का त्याग कर दिया।
मनुष्य का मन ही है जो सदा साँसारिकता के मोह में पड़ा रहता है और भगवान जैसी महान अपनी आत्मसत्ता से मिल नहीं पाता। जीवनभर के तुच्छ अभ्यास, जड़ आदतें, आसक्तियाँ मृत्यु के समय भी पीछा नहीं छोड़तीं। कई बार तो शिक्षित और विचारशील लोगों को भी इसी तरह की इंद्रियों की लिप्सा में पड़े देखते हैं तो आश्चर्य होता है कि मनुष्य अपने ऐश्वर्यवान स्वरूप को भूलकर किस तरह पाप−पंक में फँसा रहने में आनंद अनुभव करता है।