स्वादिष्ट भोजन, बस यही उनकी कमजोरी थी। सारी जीवन चेतना जैसे जिह्वा में आ केन्द्रित हुई थी। खाना, फिर खाना और उसके बाद भी खाते रहना। इसका परिणाम भी कुछ ऐसा ही था-सोना, फिर सोना और उसके बाद भी सोते रहना। भोजन और शयन के इस अतिरेक के कारण कई बीमारियों ने उन्हें घेर लिया था। सम्राट होने के कारण उन्हें जिन्दगी की सारी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। पर इन सुविधाओं का उपयोग पहले बीमारी के साधन जुटाने में और फिर उनके समाधान ढूंढ़ने में ही होता था। हमेशा चिकित्सक उन्हें घेर रहते। स्थूल देह भारी-भरकम हो गयी थी। उसमें न आभा रही थी। बस एक मुर्दा लाश की तरह हो गया था जीवन।
ऐसे जीवन के क्षण-क्षण गुजारते हुए वह जिस किसी तरह जिए जा रहे थे। तभी खबर मिली कि भगवान तथागत अपने भिक्षु संघ के साथ राजधानी में पधारे हैं। जन-जन उनके दर्शनों के लिए उमड़ पड़ा है। सभी जा रहे हैं। ऐसे में तो जाना ही पड़ेगा। उन्होंने सोचा कि न जाने पर तो बड़ी फजीहत होगी। जनता जाए और वहाँ का राजा न जाए तो सब यही सोचेंगे कि बड़ा अधार्मिक राजा है। सलाहकारों ने भी उन्हें यही समझाया, जाना तो पड़ेगा ही सम्राट, नहीं तो प्रतिष्ठा में बट्टा लगेगा। अगर लोगों को पता लग जाए कि राजा अधार्मिक है तो सम्मान कम हो जाने का खतरा तो है ही।
पर मेरे भोजन का क्या होगा? सम्राट के माथे की लकीरें इस प्रश्न चिह्न के साथ गहरी हो गयीं। बुद्ध को पता नहीं घण्टा भर सुनना पड़े, डेढ़ घण्टा सुनना अथवा फिर दो ढाई घण्टा सुनना पड़े। न जाने कितनी देर बुद्ध बोले और न जाने कितनी देर वहाँ रुकना पड़े। हाँ सो तो सही है, कुछ चापलूस सलाहकारों ने उनकी हाँ में हाँ मिलाई और कुछ चतुर समझे जाने वाले ने लगे हाथ सलाह भी दे डाली, महाराज! आप तो खूब डट कर भोजन कर लीजिए। यह सलाह अपने मन मुताबिक होने के कारण उन्हें जम गयी। सो अन्य दिनों की तुलना में उन्होंने कुछ अधिक ही भोजन किया। इस अधिक भोजन के पश्चात कहीं आने-जाने की सामर्थ्य तो बची न थी-फिर भी प्रतिष्ठा की लाज और लोभ से वह भगवान तथागत की धर्म सभा में पहुँच गए।
सम्राट होने के कारण उन्हें भगवान के सामने ही बैठाया गया। थोड़ी देर में ही भगवान् की अमृत वाणी का प्रवाह बह चला। ज्ञान, विवेक, वैराग्य की अनेकों तरंगें जन-मन को संस्पर्शित-संवेदित करने लगी। लेकिन सम्राट स्वयं इस अमृत वर्षण से अछूते थे। उन्हें तो अधिक भोजन के कारण बार-बार नींद के झोंके आ रहे थे। उन्हें फुरसत ही कहाँ थी। वह न तो बुद्ध को सुनने आये थे, न उनकी सुनने की स्थिति थी। इतना खाना खाकर आये थे कि बैठते ही नींद से झूमने लगे। दूसरे तो आनन्द में झूम रहे थे और वह नींद में झूम रहे थे।
करुणापुञ्ज भगवान बुद्ध उनकी यह दशा देखकर करुणा से विगलित हो उठे। मानव जीवन जो विभूतियों, उपलब्धियों एवं शक्तियों का अक्षय कोष है, उसकी इस सम्राट कहे जाने वाले व्यक्ति ने इस कदर दुर्दशा कर रखी है। अपनी सम्पदा को इसने अपनी लिए विपदा बना लिया है। सारे साधन इसके लिए न तो साधना न बन सके न समाधान सिद्ध हो सके। उन्हें बड़ी दया आयी। झपकियों में झूमते सम्राट को उन्होंने पुकारा, महाराज? क्या ऐसे ही जीवन गँवा देना है। जागना नहीं है? बहुत गयी, थोड़ी बची है, अब तो होश सम्भालो सम्राट प्रसेनजित। भोजन जीवन नहीं है। इस परम अवसर को ऐसे ही मत गँवा दो।
भगवान के इन वचनों से सम्राट प्रसेनजित की निद्रा में थोड़ा व्यतिरेक हुआ। वह बोले- प्रभु सब दोष भोजन का है-मानता हूँ , इसके कारण ही मेरा स्वास्थ्य भी सदा खराब रहता है। तन्द्रा भी बनी रहती है। प्रमाद और आलस्य भी घेरे रहता है। और इसके बाहर होने का कोई मार्ग भी नहीं दिखाई पड़ता। सारा दोष भोजन का ही है भगवान।
प्रसेनजित के इन वचनों को सुनकर बुद्ध की करुणा भी सघन हो गयी। वह बोले- अरे सम्राट! प्रज्ञावान बनो, भला भोजन का दोष कैसे हो सकता है? अपने दोष को भोजन पर टाल रहे हो। भोजन जबरदस्ती तो आपके पेट में नहीं चला जाता। परन्तु भगवान के यह वचन भी सम्राट को बोध न दे सके। वह सफाई में कह उठे- मेरी समझ में तो भगवान सब दोष भोजन का है। इसके कारण ही सब उलझन हो रही है। इससे बाहर आने का कोई उपाय भी नहीं दिखता है।
अपने वचनों से बोधिज्ञान का वरदान देने वाले भगवान सम्यक्-सम्बुद्ध बोले- दोष भोजन का कैसे हो सकता है वत्स! तनिक विचार तो करो, दोष बोध का है। तुम्हें पता है कि स्वास्थ्य खराब हो रहा है, तुम्हें पता है आलस्य आ रहा है, तुम्हें पता है। जीवन व्यर्थ जा रहा है लेकिन यह बोध तुम भोजन करते वक्त सम्भाल नहीं पाते। यह बोध भोजन कर लेने के बाद तुम्हारे पास होता है। लेकिन जब भोजन करते हो तब चूक जाता है।
ऐसे में मैं क्या करूं भगवान? प्रसेनजित की उलझन थोड़ी गहरी हुई। बुद्ध मुस्काते हुए बोले- उपाय तो है परन्तु शायद तुम से हो न सके। ऐसे कहते हुए उन्होंने पास खड़े हुए सम्राट के अंग रक्षक सुदर्शन की ओर देखते हुए कहा-वत्स सुदर्शन! कैसे अंगरक्षक हो तुम। जिस अंग की रक्षा के लिए तुम नियुक्त हो, वह तो सब खराब हुआ जा रहा है। क्या रक्षा कर रहे हो तुम अपने सम्राट के शरीर की। अबसे ध्यान रखो जब तुम्हारे सम्राट भोजन के लिए बैठे तो ठीक सामने खड़े हो जाना और उन्हें याद दिलाते रहना कि ध्यान रखो-याद करो, बुद्ध ने क्या कहा था। चूकना मत अपने इस कर्त्तव्य में। तुम्हारे इस कर्त्तव्य पालने में सम्राट तुम पर नाराज हो तो तुम्हें दण्डित करने की धमकी भी देंगे, पर तुम बिना घबराए अपना दायित्व निभाना।
बुद्ध के ये वचन सुदर्शन के अंतस् में गहरे उतर गये। उसे यह बात जमी कि वह अंगरक्षक तो है ही और उसकी आँखों के सामने सम्राट का शरीर खराब होता जा रहा है। वह देह जिसकी रक्षा के लिए वह नियुक्त है। वह डट गया अपने कर्त्तव्य में। प्रसेनजित की नाराजगी उस पर बढ़ती गयी। जब भी ज्यादा खाने की कोशिश करते, वह बोल पड़ता-याद करो बुद्ध के वचन। डाँटने पर भी वह याद दिलाए जाता। धीरे-धीरे इसका परिणाम होने शुरू हुआ।
थोड़ा-थोड़ा बोध जगने लगा। नाराज होने के बाद प्रसेनजित क्षमा भी माँग लेते। धीरे-धीरे उनका भोजन और जिह्वा पर नियंत्रण होने लगा। भगवान तीन महीने उस नगर में रुके थे। प्रसेनजित जब दुबारा आए तो वह एकदम बदले हुए थे। उनके चेहरे की आभा लौट आयी थी। तेजस्विता फिर वापस आ गयी थी। उनका मन अपने अंगरक्षक सुदर्शन के प्रति भी अनुग्रह से भरा हुआ था। उन्हें इस तरह स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त देखकर भगवान ने यह धम्मगाथा कही-
आरोग्य परमालाभा संतुद्वी परमं धनं। विश्वास परमा बन्धु निब्बानं परमं सुखं॥
आरोग्य सबसे बड़ा लाभ है। संतोष सबसे बड़ा धन है। विश्वास सबसे बड़ा बन्धु है और निर्वाण सबसे बड़ा सुख है।
इस धम्मगाथा को सुनकर सभी उपस्थित जन भाव-विभोर हो गए। भगवान अपने वचनों से सभी को परम आरोग्य का लाभ देने आये हैं, यह उन्हें अनुभव हो रहा था। क्योंकि आरोग्य केवल शारीरिक स्वास्थ्य भर नहीं है। यह तो शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं आध्यात्मिक तलों पर सभी स्तरों से मुक्ति है। भगवान बुद्ध को अपने चिकित्सक के रूप में पाकर प्रसेनजित कृतार्थ हो रहे थे। यह कृतार्थता के भाव बरबस उनकी वाणी से फूट पड़े-‘नमामि देवं भवरोग वैद्यं।’