निस्त्रेगुण्यों भवार्जुन

March 2003

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(कर्म-संन्यास-योग नामक गीता के पाँचवें अध्याय की )

इससे पूर्व के अंक में परिजनों ने पढ़ा कि सकाम कर्म करने वाला व्यक्ति फल में आसक्ति के कारण बंधनों को प्राप्त होता है, जबकि सच्चा कर्मयोगी आत्मनिष्ठा से उपजी भगवत्प्राप्तिरूपी शाँति को प्राप्त होता है। (बारहवाँ श्लोक)। आज के आस्था−संकट के इस युग में दिव्यकर्मी के क्या कर्त्तव्य होने चाहिए, यह बताया गया था। भगवान ने आगे यह भी कहा कि यह मानवी काया नवद्वारों वाली एक नगरी है, भगवान का एक देवालय है। संयमी व्यक्ति अपने अंतःकरण को अपने वश में करके किन्हीं भी कर्मों में कर्त्ताभाव न रखकर आनंदपूर्वक परमात्मा में स्थित होकर रहता है। संयम के साथ यज्ञीय कर्मों में लगना दोनों ही अनिवार्य हैं। यह तप व योग का सार्थक समन्वय है, जिसकी परिणति भगवान ‘आस्ते सुखं’−सुख में स्थित रहता है (तेरहवाँ श्लोक) में बताते हैं। न कुछ करते हुए, न कराते हुए कैसे कोई यज्ञीय कर्म कर सकता है, इसके प्रमाणरूप में रमण महर्षि एवं परमपूज्य गुरुदेव के उदाहरण दिए गए। गीता बार−बार युवा मानसिकता वाले, संन्यस्य भाव वाले कर्मठ दिव्यकर्मियों का आह्वान करती है। चौदहवें श्लोक के द्वारा यह बताया गया था कि यह त्रैगुण्यमयी प्रकृति ही है जो कर्त्तापन की, कर्मों की, कर्मफल संयोग की रचना करती है। स्वभावतः ही सब को रहा है (स्वभावस्तु प्रवर्तर्त)। अब इसी श्लोक की विस्तृत व्याख्या के साथ अगला क्रम इस अंक में।

अंदर की शाँति−परमात्मा की प्राप्ति

देखने में इन तीन श्लोकों के अर्थ से यह लगता है कि ये भिन्न−भिन्न अर्थ वाले हैं एवं यहाँ किसी अन्य संदर्भ में अर्जुन से श्रीकृष्ण ने कहे हैं। ऐसा नहीं है। एक की फलश्रुति दूसरे में व दूसरे की तीसरे में बताकर श्रीकृष्ण अब मूल प्रकरण पर आ गए हैं। पहले में यह कहा कि आसक्ति के बंधनों में बँधकर भगवत्प्राप्तिरूपी शाँति नहीं मिल सकती। दूसरे में यह कहा कि कायारूपी (नवद्वारों वाली) इस देवालय से, परमात्मा जिससे निरंतर झरता रहता है, ऐसे उपकरण से ‘वशी) संयमी व्यक्ति वे सारे सेवाकार्य यज्ञीय भाव से कर सकता है, जिनसे उसे सत्−चित्−आनंद परमात्मा की अनुभूति हो, सदैव अपने अंदर उस चिरस्थायी शाँति का आनंद वह लेता रहे, किंतु यह सब तभी संभव है, जब त्रैगुण्यमयी हमारी प्रकृति से परे हम चलेंगे। मुक्त होने के लिए दिव्यकर्मी को प्रकृति के कर्म से हटकर अक्षरपुरुष की स्थिति में आना होगा। तभी तो हम त्रिगुणातीत हो सकेंगे। जो अपने आप को अक्षर ब्रह्म, अविकारी परमपुरुष, परब्रह्म का एक घटक मानेगा, स्वयं को निर्गुण आत्मा के रूप में जान लेगा, वह प्रकृति के कर्म को साक्षी भाव से स्थिर शाँतचित्त के साथ देखेगा, प्रकृति और उसके कर्म से प्रभावित नहीं होगा। प्रभु स्तर की, विभु स्तर की सत्ता कर्म या कर्तृत्व या कर्मफल संयोग की रचना नहीं करती, बल्कि वह तो क्षर भाव में प्रकृति के द्वारा होते चलने वाले सभी कर्मों को मात्र देखती रहती है। यही भाव चौदहवें श्लोक में आया है।

विभु स्तर की अक्षर−पुरुषोत्तम सत्ता

पाठकों को थोड़ा विषय जटिल तो लग रहा होगा, किंतु विगत अंक के अंतिम दो उपशीर्षकों (स्वभावस्तु प्रवर्तते एवं मुक्ति का पथ) से यह भाव समझ में आ गया होगा कि अविद्या रूपी प्रकृति एवं परब्रह्म, अक्षर−पुरुषोत्तम भगवान में अंतर क्या है एवं हमें किसकी शरण में जाना चाहिए। कौन हमें चिरस्थायी शाँति दे सकता है। भगवद्सत्ता के बारे में आगे चलकर योगेश्वर तो यह भी बोले हैं कि वह तो इस जन्म में किसी भी प्राणी के पाप और पुण्य को अपना मानकर उन्हें अपने सिर पर नहीं लेती (पंद्रहवें श्लोक का पूर्वार्द्ध), फिर हम कैसे उसे निम्न स्थिति में लाकर उसको प्रकृति समान मान बैठते हैं। ‘यह तो अंदर बैठा परमात्मा करा रहा है’, ऐसा कहने वाला यह समझ ही नहीं पाता कि परमात्मा तो इससे भी परे है। वह तो अपनी आध्यात्मिक विशुद्ध दिव्य स्थिति में सतत विद्यमान है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह तो अज्ञान के कारण होता है कि उससे जन्मा अहंकार उन सबको मानव ने उपलब्ध किया है, यह कहकर अपनी मान लेता है। वह कर्त्तापन की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता है और स्वयं को उसी रूप में देखना भी पसंद करता है, न कि अपने असली स्वरूप में। अज्ञान का यह साम्राज्य ही सारे विभ्रमों−अहंताओं−असमंजसों का कारण है। इसी ने ज्ञान को, सही−सच्चे यथार्थ ज्ञान को ढक रखा है। श्लोक क्रमाँक पंद्रह हैं−

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यनित जन्तत्वः॥ (5/15)

वह सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करते हैं। यह तो ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं।

अविद्या−अज्ञान ही मूल कारण

सारी माया उस अज्ञान−अविद्या के कारण है, जिसने ज्ञान को ढक रखा है। यह ज्ञान प्राप्त हो जाए तो फिर बात ही क्या है। इसी की प्राप्ति हेतु तो हर कर्मयोगी−दिव्यकर्मी सतत निरत रहता है। इसी अज्ञान के कारण ही तो सारे गलत कार्य आज हो रहे हैं। वही सही दिख रहा है, तो गलत है। सही अर्थों में आत्मभाव में जीने वाले व्यक्ति ऐसे नहीं होते, वे त्रिगुणमयी प्रकृति से नियंत्रित होकर शुभ−अशुभ कर्म नहीं करते, वरन् परमात्मसत्ता में स्थित होकर उस आत्मज्ञान को प्राप्त कर ही सारे कार्य करते हैं।

यहाँ भगवान ने मनुष्य को, जो अज्ञानी है, सहज रूप में जंतु घोषित किया है। जीव−जंतु शब्द हम सामान्यतः प्रयोग करते हैं− कीड़े−मकोड़े, मूक जीवधारियों के लिए जिनका शिश्नोदरपरायण (पेट−प्रजनन का) जीवन होता है। भगवान ऐसी श्रेष्ठ स्थिति में है एवं तब भी अज्ञान की स्थिति में जी रहा है, ‘जंतु’, ‘एनीमल’, ‘बिहंग’ कहा है।

‘जंतु’ से दिव्यकर्मी की यात्रा

गीता के काव्य की शोभा सही स्थान पर सही शब्दों के चयन में ही है। यहाँ जंतु नाम देकर उनने अपने मन की सारी बात मानो कह दी है कि जो आत्मज्ञानरूपी कस्तूरी नाभि में रखकर भी इधर−उधर ज्ञान की तलाश में घूमते हैं, उनने तो उसे अज्ञान से स्वयं ढक रखा है। कोई अवसर मिला होता एवं इस अज्ञान के आवरण से मुक्त हुआ जा सकता तो ज्ञात होता कि मनुष्य वास्तव में क्या है? वह तो असीम शक्ति का भाँडागार है। स्वयं साक्षात् परमात्मा उसमें हैं। गुरु ऐसी ही स्थिति में से अपने शिष्य को, जो पूर्ण समर्पण भाव के साथ उसके पास आता है, उबारता है और उसे ज्ञान का सुरमा देकर उसकी दृष्टि खोल देता है−

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन् तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

चौथे अध्याय में भी भगवान ने ज्ञान की महिमा गाई थी (37 व 38वाँ श्लोक) तथा बार−बार यह कहा था कि ज्ञान की नौका में बैठकर तो पापी से पापी व्यक्ति भी तर जाता है (36वाँ श्लोक)। यहाँ भी भगवान उसी ज्ञान का माहात्म्य बखान कर रहे हैं। वह भी त्रिगुणातीत होकर परमसत्ता को समझने हेतु प्रेरित करने के लिए। यह समझे बिना हम आत्मिक प्रगति के क्षेत्र में एक भी कदम आगे नहीं रख सकेंगे।

भगवान का सही स्वरूप

श्रीकृष्ण ने इसीलिए कहा है कि (विभुः) सर्वव्यापी ईश्वर किसी का पाप (कस्यचित् पापं) और पुण्य भी (सुकृतं च एव) ग्रहण नहीं करते (न आदत्ते)। अज्ञानरूपी अविद्या से (अज्ञानेन्), सर्वत्र सच्चिदानंदघन परमात्मा व्याप्त हैं, ऐसा ज्ञान (ज्ञानं) ढका रहता है (आवृतं)। उसी से (तेन) जीव, साँसारिक मनुष्य (जन्तवः) मोह को प्राप्त होते हैं अर्थात् आत्मस्वरूप ज्ञान को भूलकर आत्मा को संसारी ही समझ बैठते हैं, फलस्वरूप मोहमुग्ध हो भटक जाते हैं (मुह्यन्ति)। शब्दों के विग्रह से गीता के उपदेश को भली भाँति समझा जा सकता है। परमहंस श्री रामकृष्णदेव कहते थे, “वेदाँत के अनुसार निर्गुण भाव से परब्रह्म (ब्रह्म) अव्यय आत्मा है और वह जीव का पाप−पुण्य ग्रहण नहीं करते (कर्मफल भोगी नहीं होते) सगुण भाव से वह बहा तो जीव की परमगति तथा कर्मफल का प्रदाता ईश्वर है।” वे कहते थे कि जो अखंड सच्चिदानंद हैं, वे ही लीलास्वरूप हो विविध रूप धारण कर आते हैं। वस्तुतः माया ही अज्ञान है। वही अहंबुद्धि को जन्म देती है, जो कि जीव के मोह−बंधन का व आत्मस्वरूप का ज्ञान खो बैठने का कारण बनती है। इस अहंरूपी अज्ञान के मिटने पर ही ब्रह्म आत्मारूप में प्रकट होते हैं, सही दिव्य शक्तिशाली रूप में पूर्ण ज्ञान के साथ अवतरित होते हैं। चैतन्य चरितामृत में भगवान कहते हैं−अद्वय ज्ञान−तत्त्व कृष्णेर स्वरूप। ब्रह्म आत्मा भगवान तिन सार−रुप॥

दृष्टिकोण ठीक हो, ज्ञान प्रकाशित हो

दृष्टाँत से समझें। इस शरीररूपी मशीन को चलाता तो ईंधन ही है, पर उसे कहाँ जाना है, यह चिंतन तो मस्तिष्क एवं शरीर धारी मनुष्य का इच्छातंत्र करता है। इस मशीन को चलाने वाला कितना समर्थ है, इसका उस ईंधन से कोई संबंध नहीं, जो ग्रहण किया जा रहा है, भोजन या प्राणवायु के रूप में। यदि मशीन चलाने वाला खुद ही होश में न हो तो ईंधन से उत्पन्न शक्ति उस उपकरण−काया को नष्ट ही कर देगी। यदि हमारे मन−बुद्धि जाग्रत−सावधान हों तो हमारी जीवनयात्रा सुखकर हो सकती है। जीवनीशक्ति हमारे अंदर सतत काम कर रही है। यह चेतना के स्तर पर आत्मसत्ता रूप में विद्यमान है। वह किसी से प्रभावित−अप्रभावित (बहिरंग क्रिया−कलापों से, अनगढ़ विचारों से) कभी नहीं होती। यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही गलत है, भावनाएँ ही दूषित हैं तो यह गड़बड़ी जीवात्मा के विनाश का कारण बनेगी। चूँकि ज्ञान अज्ञान से ढका है, वासनाओं ने उसे जकड़ रखा है, सत्य संबंधी जानकारी मनुष्य तक नहीं पहुँच पा रही है, मिथ्या धारणाएँ हमारे जीवन में घर कर लेती हैं। यह अज्ञानरूपी आवरण अपनी आत्मसत्ता को विकसित कर, न कि त्रिगुणमयी (सत्, रज, तम से युक्त) प्रकृति से प्रभावित हो, हटाया जाना चाहिए। यही आत्मज्ञान की प्राप्ति का, जीवनसाधना का एकमेव मार्ग है। जीवन भर जीव को इसी पुरुषार्थ में लगे रहना होता है। जो अज्ञानरूपी आवरण से जल्दी मुक्त हो मोह से मुक्त हो जाता है, वह मोक्ष में प्रतिष्ठित हो आनंदमय जीवन जीता है। कुँठाओं रहित जीवन, संत्रास−तनाव−विक्षुब्धता रहित जीवन जीने का एक ही मार्ग है कि अज्ञानरूपी आवरण जो ज्ञान पर ढका है, जिसमें मुग्ध हो जीव गलत कामों में लगा है, किसी तरह हटे। चाहे वह साधना (ज्ञान) का मार्ग हो, गुरु के प्रति भक्ति व समर्पण हो, दिव्यकर्मी रूप में कर्मयोग का मार्ग हो, सभी उसके लिए खुले पड़े हैं। त्रिगुणातीत होते ही अज्ञान मिट जाता है, ज्ञान बादल हटने पर जाज्वल्यमान सूर्य की तरह प्रकाशित हो उठता है व जीव कह उठता है, सोऽहम्। मैं भी वहीं हूँ, जो यह परमात्मा है।

युग निर्माण योजना की प्रगतियात्रा

परमपूज्य गुरुदेव जीवन भर इसी पुरुषार्थ में निरत रहे। गायत्री−साधना उनने जन−जन के लिए इसी अज्ञान के आवरण से मुक्त होने के लिए प्रतिबंधों से मुक्त कराई। स्वयं कठोर तप कर उस स्वरूप में पहुँच गए, जहाँ उत्कीलन−शाप विमोचन स्वयं गुरुसत्तारूपी अवतारी चेतना करती है। गायत्री त्रिपदा है। अज्ञान, अभाव, अशक्ति, इन तीनों को मिटाने की सामर्थ्य रखती हैं। चेतनातत्त्व की इकाई यही परमतत्त्व है। उपासना (भक्तियोग), साधना (ज्ञानयोग) एवं आराधना (कर्मयोग) द्वारा हमारी गुरुसत्ता ने जन−जन को अपनी ऋतंभरा−प्रज्ञा विकसित करने को प्रेरित किया। सभी की जीवनसाधना निखरी, दृष्टिकोण बदले, मुग्धता की स्थिति से निकलकर वे जंतु से दिव्यकर्मी बने एवं सद्बुद्धि का आश्रय ले वे आत्मिक प्रगति के पथ पर बढ़ते रहे। अपने आप का ज्ञान उन्हें स्वाध्याय से होने लगा। श्रेष्ठ विचारों में स्नान उनके स्वभाव को उच्चस्तरीय भाव में प्रतिष्ठित करता चला गया। जीवनोद्देश्य की जानकारी उस ध्यान से हुई, जिसमें उनने जाना कि वे कौन हैं−एक सामान्य जीव नहीं−विशिष्ट प्रयोजन के लिए जन्मे प्रज्ञा परिजन, जिन्हें उलटे को उलटकर सीधा करना हैं, विचार−क्राँति करनी है। अपने साथ औरों के चिंतन पर छाए कुहासे को भी मिटाना है। यही युग निर्माण योजना की प्रगतियात्रा है। गीताकार के संदेश को किस कुशलता से इस युग के संस्कृति पुरुष ने−योगेश्वर स्तर की सत्ता ने सामान्यजन तक पहुँचाया है, इसे शाँतिकुँज के प्रज्ञा अभियान को, युग निर्माण की प्रक्रिया को समीप से देखकर ही समझा जा सकता है। तब समझ में आएगा कि देव संस्कृति पुरुष ने−योगेश्वर स्तर की सत्ता ने सामान्यजन तक पहुँचाया है, इसे शाँतिकुँज के प्रज्ञा अभियान को, युग निर्माण की प्रक्रिया को समीप से देखकर ही समझा जा सकता है। तब समझ में आएगा कि देव संस्कृति विश्वविद्यालय का वास्तविक उद्देश्य क्या है? अज्ञान का आवरण आत्मसत्ता पर से उठाना−व्यक्ति को उसके यथार्थ सत्त्व का बोध करा देना। फिर गीता के संदेश पर आते हैं।

निर्लिप्त−निर्गुण स्थिति

निर्गुण−आत्मस्थिति में जैसे ही लौटकर जीव आत्मज्ञान को पुनः पाता है, वह प्रकृति के मुग्ध कर देने वाले लीलाजगत से, कर्मबंधनों से मुक्ति पा जाता है। तब प्रकृति के गुण उसे स्पर्श नहीं करते। वह अलिप्त बना रहता है। मन−प्राण−शरीर सभी रहते हैं, प्रकृति अपना कर्म भी करती रहती है, पर आँतरिक सत्ता निरपेक्ष ही बनी रहती हैं। “इस उच्च स्थिति को प्राप्त जीव स्थिर, मुक्त सर्वसाक्षी अक्षरब्रह्म हो जाता है,” ऐसा श्री अरविंद का मत है। वे कहते हैं कि यह पूर्णत्व नहीं हैं। आत्मा में तो मुक्ति है, पर प्रकृति में अपूर्णता है। इसके लिए कोई संन्यास की बात कह सकता है, पर गीता कर्म−संन्यास (सर्व कर्माणि सन्यस्य) की बात कहती हैं, क्योंकि उसमें ब्रह्म को आँतरिक अर्पण है। क्षर भाव में ब्रह्म प्रकृति के कर्म को पूरा−पूरा सहारा देता है, जबकि अक्षर भाव में ब्रह्म प्रकृति के कर्म को सहारा देते हुए भी अपने मुक्त स्वरूप को कायम रखता है।

जब एक आदर्श दिव्यकर्मी अपने ज्ञान के सहारे कर्म करते हुए भी त्रिगुणातीत बन जाता है तो वह श्रीकृष्ण के आदेश का पालन करता है, जिसमें भगवान ने आदेश दिया था−”निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।” ऐसी स्थिति में वह भगवान के प्रिय निर्देश ‘मन्मना, मच्चित्तः, मद्भावम्’ को प्राप्त हो जाता है। यही हम सबका भी लक्ष्य होना चाहिए। दिव्यजन्म की परमसिद्धि, किसी महामानव की लोक−यात्रा का चरमबिंदु यह रूपांतर ही होना चाहिए। श्री अरविंद यह रूपांतर ही होना चाहिए। श्री अरविंद कहते हैं कि यह संसिद्धि जब प्राप्त हो जाती है, तब पुरुष अपने आप को प्रकृति के स्वामी के रूप में जानता है और भागवत् इच्छा का एक हिस्सा बनकर वह अपनी प्रकृति की क्रियाओं को दिव्यकर्म में रूपांतरित करने में लग जाता है। ऐसे ही व्यक्ति उच्चस्तरीय महापुरुष बनते हैं, अक्षय कीर्ति को प्राप्त होते एवं जन−जन का कल्याण करते हैं। युग उन्हीं को आज पुनः तलाश रहा है। गीता के पंद्रहवें श्लोक की व्याख्या हमें ऐसे ही चैतन्य जीवंत दिव्यकर्मी की पहचान कराती है। युग परिवर्तन ऐसे ही महापुरुष करते हैं। सदा से ऐसा होता आया है व अब इस युग में भी ऐसा ही होने जा रहा है, यह सुनिश्चित माना जाना चाहिए।

सूर्यवत् प्रकाशित अंतरात्मा

ज्ञान प्राप्त हो गया, त्रिगुणातीत स्थिति प्राप्त हो गई तो यह समझें कि काफी काम हो गया। ज्ञान तो था ही भीतर मात्र भ्राँतियों का परदा उस पर पड़ा था, अतः वासना, तृष्णा, अहंता ही सब कुछ दिखाई देते थे, ज्ञान का वास्तविक स्वरूप समझ में नहीं आता था। बिना किसी कामना के, कर्मफल की चिंता के जीवन जीने का तरीका ज्ञान पर छाए परदे का अनावरण ही है। तभी मनुष्य अंदर की शाँति के साथ प्रसन्नतापूर्वक जीवन की सकता है। इसीलिए वे अगले (सोलहवें) श्लोक में कहते हैं−

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषाँ नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥

किंतु (तु) जिन लोगों का (येषाँ) वह (तत्) अज्ञान या मोह (अज्ञानं) आत्मा या ब्रह्म के (आत्मनः) तत्त्वज्ञान के द्वारा (ज्ञानेन) नष्ट कर दिया गया है (नाशितं), उन लोगों का (तेषाँ) वह (तत्) ज्ञान (ज्ञानं) सूर्य की तरह अज्ञानाँधकार को नष्ट कर देता है (आदित्यवत्), आत्मतत्त्व को−सच्चिदानंदघन परमात्मा को (परम्) प्रकाशित कर देता है (प्रकाशयति)।

कितना स्पष्ट व सही प्रतिपादन है। उपमा भी कितनी सुँदर है। भावातीत अक्षर परब्रह्म की सत्ता का अनुभव सर्वोच्च सत्य को प्रकाशित कर देता है। हमें वस्तुतः आत्मबोध करा देता है। अब इस गूढ़ अर्थ वाले श्लोक एवं इससे और क्या उपलब्धियाँ होती हैं, इस व्याख्या वाले अगले श्लोकों का क्रम आगामी अंक में। (क्रमशः)


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