चरैवेति का संदेशः मृत्यु-घाटी से

May 1993

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प्राणियों के पैर होते हैं। उनका चलना-फिरना स्वाभाविक और सहज लगता है, पर जब चट्टान सदृश्य जड़ पदार्थ एक स्थान से चल कर लम्बी दूरी तय करने लगे तो इसे क्या कहा जाय? प्रकृति की विलक्षणता या जड़ के जंगम बनने की अदम्य ललक? अत्युक्ति न मानी जाय, तो इसे दूसरी श्रेणी में रखा जा सकता है और यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे भी किसी स्थान विशेष से चिपक कर नहीं रहना चाहते। परिवर्तन उनकी नियति है, फिर चाहे यह स्वरूप संबंधी हो, स्वभाव संबंधी या स्थान संबंधी उनमें भी यह प्रक्रिया चलती रहती है।

ऐसी ही एक विचित्र प्राकृतिक घटना कुछ वर्ष पूर्व प्रकाश में आयी है। कैलीफोर्निया (अमेरिका) में एक विशाल घाटी है-’मृत्यु घाटी’ (डेथ वैली) इस घाटी के चारों ओर पर्वत श्रृंखलाएँ हैं, जो चीड़ के पेड़ों एवं कुछ अन्य जंगली वृक्षों से आबाद हैं। यह समुद्र तल से 300 फुट नीचे है और अमेरिका का सबसे गर्म, नीचा एवं सूखा प्रदेश है। इसी कारण इसे मृत्यु-घाटी के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ कई प्रकार के नैसर्गिक विचित्रताएं हैं, पर इनमें जो सबसे विलक्षण है, वह है यहाँ की चलती चट्टानें। घाटी में एक तीन मील लम्बी किन्तु सूखी झील है। इसी की समतल सतह पर बगल के पर्वत-श्रृंगों से चलकर शैल-खण्ड लम्हें फासले तय कर लेते हैं और अपने पीछे आकार-प्रकार के हिसाब से चौड़ी-सँकरी पट्टी बनाते चलते हैं। पहाड़ से पत्थर का लुढ़क कर झील की सूखी सतह पर पहुँचना तो समझ में आता है, पर ढाल रहित समतल पर बिना किसी बाह्य बल के इनका चलते चले

जाना अत्यन्त विस्मयकारी लगता है।

बुद्धि यही चकराने लगती है कि सर्वथा चिकनी सतह पर भी फिसलने के लिए वस्तु को किसी-न-किसी बल का सहारा चाहिए, फिर झील की सतह मोटे तौर पर समतल होते, हुए भी हलकी ऊबड़-खाबड़ दरार युक्त है। पाषाण भी पूर्णतः चिकने नहीं होते। उनमें भी कई-कई कोने और विषम किनारे होते हैं। हवा के तेज झोंकों से भी इनका नौ सौ फुट जैसी लम्बी दूरी तय कर पाना असंभव ही है। फिर ऐसी कौन-सी शक्ति है,जिसके कारण वे इतना लम्बी यात्रा करने में सफल होते हैं? विभिन्न क्षेत्रों के वैज्ञानिक और विशेषज्ञ इसका समुचित उत्तर ढूँढ़ पाने में अब तक विफल रहे हैं। हाँ, उनने अपने-अपने प्रकार के अनुमान व अन्दाज अवश्य लगाये हैं, पर ऐसा कोई नहीं, जो सिद्धान्त बन सके अथवा जिसके बारे में विश्वासपूर्वक कुछ कहा जा सके। उक्त घटना को देखने और जाँचने उपरान्त इसका निमित्त न समझ पाने के कारण इन मूर्धन्यों ने अपनी सम्मति और संभावना भर प्रकट कर दी, कि उनके विचार में ऐसा हो सकता है, पर किसी ने अब तक इस संबंध में तर्कयुक्त कोई ऐसा मत प्रस्तुत नहीं किया, जो सर्वसंमत एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हो।

इन्हीं अध्येताओं में एक हैं- डॉ. राबर्ट पी. शार्प। डॉ. राबर्ट ‘कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’में प्राध्यापक एवं प्रख्यात भूगोलवेत्ता हैं। उन्होंने अनेक वर्षों तक इस घटना का गहन अध्ययन किया। इस दौरान उनने 30 पत्थरों को चुना। इनका आकार-प्रकार देखा और नामकरण किया। इनके स्थान और स्थिति को चिह्नित किया। इनमें दो पत्थर ऐसे निकले जो उनके अध्ययन में काम आये। इन दोनों पत्थरों में से एक ने अनेक बार में कुल 860 फुट की यात्रा की, जबकि दूसरे ने एकबार में 690 फुट का सबसे लम्बा सफर तय किया। इस लम्बे और सूक्ष्म अध्ययन के पश्चात् भी डॉ. राबर्ट कोई ठोस नतीजे पर नहीं पहुँच सके। इस निष्कर्ष के रूप में मात्र उनने इतना ही कहा कि ऐसा संभवतः वर्षा और वायु के कारण होता हो, पर दृढ़तापूर्वक वे भी कुछ कहने में समर्थ न हुए।

निमित्त चाहे कुछ भी हो, पर इसकी एक दार्शनिक व्याख्या यह हो सकती है कि जड़ समझे जाने वाले पत्थर भी शायद एक स्थान से चिपके रहना पसंद नहीं करते। कदाचित गति उन्हें भी प्रिय हो। इसलिए वे ऐसे कौतुक करते रह कर प्राणिजगत में आने वाली जड़ता के प्रति उन्हें सचेत करते हों और कोई जीवधारी तो नहीं, पर मनुष्य एक ऐसी प्राणी है, जो चेतन होते हुए भी हानि-लाभ-भला-बुरा जानते और प्रत्यक्ष रूप से गतिवान दीखते हुए भी परोक्ष रूप से जड़ता को ही अपनाये रहना चाहता है। वह अपनी इच्छाओं को, आकांक्षाओं को मान्यताओं, परम्पराओं और व्यवस्थाओं को बदलने से ऐसे बचता-बिदकता है, मानों उसका सर्वस्व छिनने जा रहा हो। वह इनसे उसी प्रकार चिपके रहना चाहता है, जिस प्रकार जोंक शरीर से। दूध सामने होते हुए भी उसे रक्तपान में ही ज्यादा रस आता है। उसे गुबरैले को क्या कहा जाए, जो मल में ही स्वर्ग के आनन्द की अनुभूति करता हो! जरा इससे बाहर निकल कर तो देखे तो ज्ञात हो कि इस विशाल संसार में ऐसी और भी कितनी ही चीजें हैं, जिन्हें सुन्दर और स्वर्गोपम कहा जा सके। कुएं का मेढ़क जब एक संपूर्ण चक्कर जल में काट लेता है, तो ऐसे टर्राता है, जैसे समस्त संसार की सैर कर ली हो।

मनुष्य की रीति-नीति भी क्षुद्र जीवों से कोई बहुत भिन्न नहीं। वह अपनी दीनता को विपन्नता को बचकानी और पुरानी प्रथा को पकड़े व जकड़ रह कर ऐसी गर्वोक्तियां करता है, जैसे सचमुच उसकी प्रज्ञा ऋतम्भरा बन कर फूट पड़ी हो। जब यह बालबुद्धि व्यक्ति पर सवार होती है, तो नारकिसस की तरह उसे कहीं का नहीं रहने देती। फिर वह आत्मा सम्मोहन के ऐसे भ्रम जंजाल में उलझती है कि व्यक्ति अपनी ही विचारणाओं और मान्यताओं के ताने-बाने में फँस कर रह जाता है। चाह कर भी उससे उबर नहीं पाता और उन्हीं में पिलते-पिसते मर जाता है।

ग्रीक पुराण में नारकिसस की एक कथा आती है। एक बार वह अपनी खोयी बहन की तलाश में इधर-उधर के समीप पहुँचा। पानी साफ लगा, तो पीने की इच्छा हुई। जब वह झरने में झुका तो उसमें उसे अपना सुन्दर मुखड़ा दिखाई पड़ा। शायद तब आइने का आविष्कार नहीं हुआ था, अतः चेहरा भी पहली बार देख रहा था। अपने रूप में लावण्य पर नारकिसस इस कदर मोहित हुआ कि फिर उठ कर अन्यत्र नहीं जा सका। यहाँ तक कि अपनी प्रिय भगिनी को भी भूल गया।

किसी स्थिर मान्यता, भावना, विचारणा, प्रथा, परम्परा से चिपक जाने की भी ऐसी ही दुःखद परिणति होती है। व्यक्ति स्वयं अपनी अवगति न्यौता बुलाता और प्रगति के द्वार बन्द कर लेता है। नदी का जल प्रवाहमान होता है, अतः लोग उसका आचमन करते और देवताओं पर चढ़ाते हैं, किन्तु तालाब अपनी क्षुद्र सीमा में बंधे रहने व प्रवाहहीन होने के कारण सड़न युक्त बना रहता है, जिससे न तो वह आचमन योग्य रह जाता है, न पवित्र देवालयों में अर्घ्य चढ़ाने योग्य। हम समयानुरूप अपनी मान्यताओं और प्रचलनों को छोड़ने-अपनाने के लिए तैयार रह सकें इसी में हमारी प्रगति है। अवगति तो अब आड़े आती है, जब ऐसे परिवर्तनों के प्रति दृढ़वादी बनते और अनुपयुक्त को ही अपनाने का आग्रह करते हैं।


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